आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत के उत्तर-पूर्व के छोटे से राज्य त्रिपुरा में आज विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। यह राज्य बंगलादेश की सीमाओं से सटा हुआ है और इस कदर सटा हुआ है कि इसकी राजधानी अगरतला का बाहरी हिस्सा बंगलादेश की सीमाओं में आता है। यह इलाका बह्मन वाड़ी कहलाता है जबकि काजी रोड अगरतला के भीतर है। भारत के उत्तरी क्षेत्र के लोग त्रिपुरा को सिने संगीत सम्राट स्व. सचिन देव बर्मन की वजह से भी पहचानते हैं। स्व. एस.डी. बर्मन पूर्व त्रिपुरा रियासत के राजकुमार भी थे परन्तु यह आदिवासी बहुल राज्य है जिस पर मार्क्सवादी पार्टी का दो दशकों से भी अधिक समय तक शासन रहा परन्तु पिछले 2018 के चुनावों में भाजपा ने इस शासन को उखाड़ फैंका और अपनी सरकार गठित की। सबसे अधिक आश्चर्य यह रहा कि 2013 के चुनावों में मात्र दो प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा 2018 में पूर्ण बहुमत में आयी और 60 सदस्यीय विधानसभा में उसे 40 से अधिक सीटें अपने सहयोगी दलों के साथ मिलीं। इन चुनावों में भाजपा का मुख्य सहयोगी दल आदिवासी व जनजातियों की पार्टी 'आईपीएफटी' थी परन्तु इस बार के चुनावों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि राज्य की राजनीति में लम्बे अरसे तक एक-दूसरे की प्रमुख प्रतिद्वद्वी रही मार्क्सवादी पार्टी व कांग्रेस आपस में साझा मोर्चा बना कर भाजपा का मुकाबला कर रही हैं और तीसरी तरफ त्रिपुरा की पूर्व रियासत शाही वंशज प्रद्युत देव बर्मन ने अपनी अलग जनजातीय व आदिवासी पार्टी 'तिपरा मोथा' का गठन करके ताल ठोकी है। इस वजह से यह चुनाव त्रिकोणीय माना जा रहा है क्योंकि राज्य के आदिवासी इलाकों में देव बर्मन की पार्टी के प्रति लोगों में भारी उत्साह है। इस पार्टी की प्रमुख मांग है कि राज्य के जनजातीय व आदिवासी लोगों को राज्य के भीतर ही स्वायत्तशासी अधिकार इस प्रकार दिये जायें जिससे उनकी भाषा से लेकर संस्कृति तक का विकास हो और अपने ही राज्य में उन्हें हीनभावना का शिकार न होना पड़े। हालांकि इस तरफ पहले से ही यह व्यवस्था आदिवासी क्षेत्र के लिए 'त्रिपुरा जनजातीय स्वायत्त जिला परिषद' का गठन करके की गई थी परन्तु इसका कोई खास असर जनजातीय क्षेत्रों पर नहीं हो सका। अतः श्री प्रद्युत देव बर्मन की पार्टी तिपरा मोथा ने वृहद त्रिपुरा लैंड की मांग करते हुए आदिवासी समाज को सशक्त करने की आवाज उठाई है। उल्लेखनीय यह है कि त्रिपुरा के क्षेत्रफल का 70 प्रतिशत हिस्सा जनजातीय है और विधानसभा की 60 में से 20 सीटें इस समाज के लिए आरक्षित हैं। अतः श्री देव बर्मन को इन चुनावों में सन्तुलक या किंग मेकर समझा जा रहा है। श्री देव बर्मन पिछले चुनावों से पहले कांग्रेस में ही थे और पार्टी के प्रमुख स्तम्भ समझे जाते थे परन्तु शीर्ष नेतृत्व द्वारा राज्य में पार्टी संगठन पर ध्यान न दिये जाने की वजह से इनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया था। कालान्तर में इन्होंने अपनी अलग पार्टी पहले एक समाजसेवी संगठन के रूप में शुरू की और बाद में इसे राजनीतिक आवरण दे दिया। जहां तक सत्ताधारी भाजपा का सवाल है तो 2018 के चुनावों के बाद इसे अपना मुख्यमन्त्री बदलना पड़ा क्योंकि पिछले मुख्यमन्त्री ऐसी बेतुकी बयानबाजी करते थे जिसकी वजह से न केवल जग हंसाई होती थी बल्कि उनके कच्चे व आधे-अधूरे ज्ञान का भी प्रदर्शन होता था। पिछले चुनावों में जो सबसे बड़ी घटना हुई थी वह यह थी कि राज्य की जनता का मार्क्सवादी पार्टी व कांग्रेस की राजनीति से मोहभंग हो गया था और उन्होंने राजनैतिक पटल पर प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रही भाजपा को अपना समर्थन दे दिया था। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ था क्योंकि उसका पूरा जनाधार खिसक कर भाजपा के खेमे में चला गया था। इससे पूर्व मार्क्सवादी पार्टी और भाजपा में जो लड़ाई चलती थी उसमें कांग्रेस का वोट प्रतिशत 40 से ऊपर रहता था और मार्क्सवादी पार्टी का 50 से ऊपर। भाजपा ने यह समीकरण बुरी तरह तोड़ डाला। इस बार भी कांग्रेस पार्टी मार्क्सवादी पार्टी के साथ पिछले पायदान पर ही है और वह केवल 13 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है जबकि मार्क्सवादी 40 पर और शेष पर कुछ अन्य छोटे सहयोगी दल। इस छोटे से राज्य में चुनावी लड़ाई बहुत दिलचस्प है क्योंकि बीच में तिपरा मोथा के आ जाने से भाजपा व वाम मोर्चा दोनों के ही समीकरण बिगड़ सकते हैं। सत्ता की चाबी श्री प्रद्युत देव बर्मन के हाथ में जा सकती है। मगर राज्य में बंगला भाषी जनसंख्या भी अच्छी खासी है जिसकी वजह से प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी चुनावी मैदान में है। हालांकि इस पार्टी को राज्य के मतदाता बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं परन्तु फिर भी इसके प्रत्याशी बंगलाभाषियों को कितना रिझा पायेंगे, यह देखने वाली बात होगी। देखने वाली बात यह भी होगी कि तृणमूल कांग्रेस भाजपा के वोट काटती है अथवा वाम मोर्चा के। इसका पता तो नतीजों वाले दिन 2 मार्च को ही चलेगा।
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