समान नागरिक संहिता की ओर: आंबेडकर ने की थी वकालत, अब मोदी सरकार लागू करने की तैयारी में

अपने राजनीतिक हित साधने के लिए संबंधित धार्मिक या सामाजिक समूहों को अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए।

Update: 2022-05-10 01:42 GMT

अंग्रेजों ने 187 साल पहले एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें भारतीय कानूनों के संहिताकरण में एकरूपता की सख्त जरूरत पर बल दिया गया था। उसमें समाज में स्थिरता और सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) को हटाने की सिफारिश की गई थी। पर्सनल लॉ में वृद्धि के कारण ब्रिटिश सरकार को 1941 में हिंदू कानूनों के संहिताकरण के लिए बी. एन. रॉव कमेटी गठित करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उसकी सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के बीच बिना वसीयत वाले या अनिच्छुक उत्तराधिकार से संबंधित कानून में संशोधन और संहिताकरण के लिए 1956 में एक विधेयक को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में अपनाया गया था, हालांकि, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ थे। विवाह, तलाक, संरक्षण, उत्तराधिकार और संपत्ति के स्वामित्व को नियंत्रित करने वाले कई हिंदू पारिवारिक कानूनों को 1950 के दशक के दौरान अधिनियमित किया गया था, हालांकि कुछ वर्गों का विरोध जारी रहा।

अब मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के मुख्य मुद्दे को निष्पादित करने का मन बना लिया है, जिसे केंद्र और भाजपा शासित राज्यों द्वारा 2024 के संसदीय चुनावों में फायदा उठाने के लिए लागू किए जाने की संभावना है।
आरएसएस और भाजपा ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी को यूसीसी के पायलट प्रोजेक्ट के क्रियान्वयन का काम सौंपा है, जो जल्द ही इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन करेंगे। कैबिनेट की पहली बैठक में उत्तराखंड में यूसीसी लागू करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई, जिसका वादा भाजपा के घोषणापत्र में किया गया था। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार विशेषज्ञ समिति की अंतिम रिपोर्ट की प्रतीक्षा करेगी और इसे व्यवस्थित तरीके से लागू करेगी, ताकि किसी भी तरह का 'विभाजन या तनाव' पैदा न हो। अदालतों ने भी अक्सर अपने फैसलों में कहा है कि एकरूपता के लिए सरकार को समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ना चाहिए।
हिमाचल प्रदेश भी उत्तराखंड की राह पर जाएगा। हिमाचल के मुख्यमंत्री के मुताबिक, राज्य की स्थिति अन्य प्रांतों से अलग है और इससे मुसलमानों को नुकसान नहीं होगा। बल्कि मुस्लिम महिलाओं को इससे लाभ होगा, क्योंकि तब उनके पास जीने के लिए एक स्वस्थ पारिवारिक जीवन होगा।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित समान नागरिक संहिता पर गंभीर चिंता व्यक्त की है और इसे देश की विविधता के लिए खतरा बताया है। उसने कहा है कि समान नागरिक संहिता भारतीय समाज के बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक चरित्र को खतरे में डाल सकती है, इसलिए इसे टाला जाना चाहिए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने भी केंद्र की कार्यशैली पर संदेह जताते हुए कहा है कि समान नागरिक संहिता के जरिये समाज में भेदभाव फैलाने की कोशिश की जा रही है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, आरएसएस चाहता है कि सरकार समान नागरिक संहिता पर एक विधेयक पेश करने के लिए कदम उठाए और प्रस्तावित संहिता के बारे में गलतफहमी दूर करने के अलावा नागरिक समाज संगठनों को भी साथ ले। आरएसएस जानता है कि हिंदुओं में भी कुछ वर्ग ऐसे हैं, जिन्हें इस संहिता को लेकर संदेह और चिंताएं हैं। आरएसएस ने आम सहमति बनाने के लिए जनजातीय समुदायों को विश्वास में लेने की जरूरत पर भी बल दिया है, क्योंकि आदिवासियों के पास विवाह, पूजा, अंतिम संस्कार और विरासत से संबंधित सदियों पुराने रीति-रिवाज हैं। आदिवासी अपने पर्सनल लॉ को छोड़ना पसंद नहीं करेंगे, जो आरएसएस को दुविधा में डाल सकते हैं, इसलिए भाजपा को सावधानी से चलना होगा।
याद किया जा सकता है कि बी. आर. आंबेडकर ने संविधान बनाते समय कहा था कि समान नागरिक संहिता वांछनीय है, पर फिलहाल इसे स्वैच्छिक रहना चाहिए, और इस प्रकार संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के एक भाग के रूप में संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 44 के रूप में जोड़ा गया था। सभी समुदायों के लिए समान नागरिक संहिता के बारे में एक बहस 1951 में शुरू हुई, जब आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री की निष्क्रियता के विरोध में नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता की वकालत की, पर उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों, कांग्रेस और आरएसएस सहित सभी पक्षों की आलोचना सुननी पड़ी।
अब आरएसएस का इरादा समान नागरिक संहिता के जरिये सभी को समान कानून के दायरे में लाना है, क्योंकि विभिन्न समुदायों को अलग-अलग पर्सनल लॉ से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ, केंद्र पहले ही भारत के 21वें विधि आयोग से समान नागरिक संहिता से संबंधित विभिन्न मुद्दों की जांच करने और उस पर सिफारिशें करने का अनुरोध कर चुका है। उत्तराखंड यह संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य नहीं होगा, क्योंकि गोवा पुर्तगाली नागरिक संहिता, 1867 का पालन कर रहा है, जिसे समान नागरिक संहिता भी कहा जाता है।
भाजपा ने 2019 के संसदीय चुनाव के अपने घोषणापत्र में कहा था कि अगर वह सत्ता में आती है, तो समान नागरिक संहिता को लागू करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। इससे पहले इसकी मांग आरएसएस और बाद में जनसंघ द्वारा उठाई गई थी और इसे 1998 में भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनाया गया था। भाजपा का तर्क है कि वह धर्मनिरपेक्षता का विरोध नहीं करती है। लेकिन यह भी सच है कि समान नागरिक संहिता आरएसएस का मुख्य मुद्दा रही है। पिछले साल एनडीए ने साहसिक कदम उठाते हुए संसद में तीन तलाक की प्रथा रद्द करने के लिए विधेयक पारित किया था, जिसे समान नागरिक संहिता के संकेत के रूप में देखा गया था।
विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए खुद को तैयार किया है, पर समाज में सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए आम सहमति बनाई जानी चाहिए और अपने राजनीतिक हित साधने के लिए संबंधित धार्मिक या सामाजिक समूहों को अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला 


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