चुनाव लड़ने का किफायती मॉडल बनाने का समय; चुनावी प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी केवल कहने के लिए न रहे

उत्तर प्रदेश में कन्नौज के इत्र-व्यवसाय से निकल रही राजनीतिक भ्रष्टाचार की दुर्गंध से चिंतित लोगों को चाहिए कि वे इस रूपक के आईने में अपने लोकतंत्र की विकृत होती हुई

Update: 2022-01-04 17:20 GMT

अभय कुमार दुबे उत्तर प्रदेश में कन्नौज के इत्र-व्यवसाय से निकल रही राजनीतिक भ्रष्टाचार की दुर्गंध से चिंतित लोगों को चाहिए कि वे इस रूपक के आईने में अपने लोकतंत्र की विकृत होती हुई तस्वीर पर भी एक नजर डालें। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। हर बार चुनाव आयोग मतदान की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले काले धन की बरामदगी के लिए टीमें बनाता है और वे टीमें छापे मार कर सैकड़ों करोड़ रुपया बरामद करती हैं।

घटनाक्रम का अंतर केवल यह है कि इस बार यह काम जीएसटी के अधिकारियों ने किया है। लेकिन, बात वही है। व्यापारियों और उद्योगपतियों के साथ चुनावी लोकतंत्र का संचालन करने वाली पार्टियों और नेताओं की साठगांठ ने पिछले चालीस साल में दो परिघटनाओं को जन्म दिया है। एक है 'पॉलिटिकल मनी' राजनीतिक धन की परिघटना और दूसरी है राजनीति के व्यापारीकरण की परिघटना।
चुनाव सुधारों का यह काम था कि वे चुनाव लड़ने के एक किफायती मॉडल बनाने का रास्ता साफ करते। अगर समय रहते ये सुधार हो जाते तो लोकतंत्र को इन दोनों परिघटनाओं के शिकंजे से बचाया जा सकता था। लेकिन, इन सुधारों की फाइल पिछले कई दशकों से सरकारी अलमारियों में पड़ी धूल खा रही है। इसके कई दुष्परिणाम हुए हैं। चुनावी प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी केवल कहने के लिए रह गई है।
पार्टियां और उम्मीदवार उत्तरोत्तर धनबल के मातहत होते चले गए हैं। दूसरी ओर दो चुनावों के बीच होने वाली राजनीति और नीति निर्माण में मुख्य तौर पर उन ताकतों का हित साधन किया जाने लगा है जो चुनाव के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काले धन की सप्लाई सुनिश्चित करती हैं। पहले यह काम अप्रत्यक्ष ढंग से होता था, लेकिन अब इसे करने के लिए स्वयं व्यवसायी वर्ग या उसके खुले प्रतिनिधि राजनीति के मैदान में कूद पड़े हैं।
देश में बड़े स्तर पर निरंतर चलने वाले भ्रष्टाचार की जड़ यहीं निहित है। पांच राज्यों में चुनाव सिर पर हैं और जल्दी ही पार्टियां टिकटों का बंटवारा करेंगी। चाहे दलितों की पार्टी हो, पिछड़ी जातियों की हो, क्षेत्रीय दल हो या फिर राष्ट्रीय दल हों- निर्विवाद रूप से हर पार्टी ऐसे उम्मीदवारों का चयन करेगी जो चुनाव में करोड़ों खर्च करने और करोड़ों उगाहने का दम रखते हों।
टिकटार्थियों और प्राप्त करने वालों की सूची में कीमती विदेशी कारों के मालिकों, आयातित महंगी रायफलों के मालिक, अरबी घोड़ों के अस्तबल रखने वाले, बड़े-बड़े होटलों और सैरगाहों के मालिक, दुर्लभ चिड़ियों का व्यापार करने में करोड़ों खर्च करने वाले, आधुनिक ज़मींदार यानी पूंजीपति-किसान, मंझोले स्तर के उद्योगपति, पेट्रोल पम्पों के मालिकों, ट्रकों और बसों का धंधा करने वालों, करोड़ों की ठेकेदारी करने वालों के नाम मिलेंगे।
वे दिन हवा हो चुके हैं जब कमजोर तबकों की नुमाइंदगी करने वाले दलों के उम्मीदवार गरीब तबके से आते थे। वे दिन भी कहीं गुम हो चुके हैं जब पिछड़ों का राजनीतिकरण करने वाले राम मनोहर लोहिया ने दावा किया था कि वे 'रानी के खिलाफ मेहतरानी' को चुनाव लड़वा सकते हैं। बैकवर्ड हों, दलित हों या ब्राह्मण-ठाकुर-बनिए, या मुसलमान-ईसाई-सिख, सबके सब अगर राजनीति में हैं जो निरपवाद रूप से धन-पशुओं की श्रेणी में आते हैं।
राजनीति में गरीब, मध्यमवर्गीय या सामान्य रूप से खुशहाल अगर कोई है, तो वह मतदाता ही है। वह मतदाता जो चुनाव लड़ने के स्तर तक कभी नहीं पहुंच सकता। राजनीति एक पूर्णकालीन काम है और व्यापार भी एक पूर्णकालिक काम है। पहले समझा जाता था कि एक व्यक्ति दोनों नहीं कर सकता। इसलिए व्यापारीगण राजनीति का शौक पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा राज्यसभा में प्रवेश करने की कोशिश करते थे।
पार्टियां थोड़े हीले-हवाले के बाद उन्हें राज्यसभा का टिकट दे देती थीं। वे नेताओं और पार्टियों को चंदा देने की अपनी दम पर इस टिकट की दावेदारी करते थे। लेकिन भूमंडलीकरण के कारण बाजार और व्यापार को मिले प्रभामण्डल ने इस सीमा को तोड़ दिया। आज हर छोटा-बड़ा व्यापारी उद्योग-धंधा करने के साथ-साथ सत्ता पर कब्जा भी करना चाहता है। पार्टियाँं भी इस खेल में बराबर की शरीक हैं।
लोकसभा के चुनाव में उतरने से डरने वाला व्यापारी या उसका पुत्र अब धड़ल्ले से चुनाव लड़ता है, अक्सर जीत हासिल करता है, और फिर छोटा या बड़ा मंत्री बनकर सत्ता का इस्तेमाल अपने व्यापारिक हितों के लिए करने में जुट जाता है। पूंजीपतियों के खानदानी चिराग या तो ऐसा कर रहे हैं या करने लिए तैयार बैठे हैं। व्यापारी-राजनेता का मॉडल भारतीय लोकतंत्र में अपने कदम जमा चुका है।
यह मॉडल किसी व्यापारी का मुनाफा बढ़ाने के लिए कितना भी मुफ़ीद हो, राजनीति के लिए बुरी तरह से हानिकारक है। राजनीति सेवा का क्षेत्र है, स्वयंसेवा का नहीं। व्यापार से भी समाज-सेवा हो सकती है, पर उसके मुक़ाम दूसरे होते हैं। व्यापारीगण हमेशा से इस तरह की समाज-सेवा करते रहे हैं। अगर वे राजनीति में आना चाहें तो उन्हें रोका नहीं जा सकता। लेकिन, उनके लिए एक अलग तरह की आचरण संहिता बनाने की जरूरत है ताकि वे राजनीति से दूसरों को फायदा पहुंचाने के बजाय उसे खुद को लाभान्वित करने का उपकरण न बनाकर रख दें।
इन दोनों समस्याओं का निदान एक ही है। चुनाव लड़ने का किफायती मॉडल बनाना और आचार संहिता के जरिए उसे कानूनन लागू करना। चुनाव सुधारों का केंद्रीय मर्म यही होना चाहिए। अगर ऐसा कर दिया जाए तो पार्टियों को अपने छिपे और खुले खातों में सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए की रकमें नहीं रखनी पड़ेंगी। ना ही उन्हें उद्योगपतियों से लंबे-लंबे चंदे लेने पड़ेंगे। न ही वे सरकार में आने के बाद चंदा देने वालों के हित-साधन में व्यस्त रहेंगी। केवल इसी तरीके से लोकतंत्र को पारदर्शी, जनोन्मुख और नैतिक बनाया जा सकता है।
Tags:    

Similar News

-->