आत्ममंथन का वक्त: जनाधार हासिल करने को बड़ी पहल हो
भले की उदयपुर में संपन्न कांग्रेस के तीन दिवसीय चिंतन शिविर में पार्टी ने नीतियों की उन खामियों को स्वीकार किया है
भले की उदयपुर में संपन्न कांग्रेस के तीन दिवसीय चिंतन शिविर में पार्टी ने नीतियों की उन खामियों को स्वीकार किया है, जिसके चलते पार्टी का पराभव हुआ है, लेकिन इसके बावजूद जनता का विश्वास हासिल करने को गंभीर जमीनी पहल करने की जरूरत है। पार्टी ने सम्मेलन में स्वीकार किया कि जनता से जुड़ाव टूटा है और इसके लिये पार्टी को सीधे जनता से संवाद की स्थिति बनानी होगी। साथ ही नीतियों से जनमानस से सार्थक संवाद की जरूरत पर भी बल दिया गया। लेकिन एक हकीकत यह भी कि लोगों से सीधे जुड़ने के लिये यात्राओं से ज्यादा कुछ करने की जरूरत होती है। जिसके लिये बड़े बदलाव जरूरी हैं। जिसके लिये क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से बेहतर तालमेल भी हो, जिन्हें यह कहकर कांग्रेस खारिज नहीं कर सकती कि उनकी कोई निर्णायक विचारधारा नहीं है। पार्टी को जीवंत बनाने के लिये 'एक परिवार, एक टिकट' के विचार पर अपवादों के साथ सहमति बनाना अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकता। हालांकि, पार्टी शीर्ष नेतृत्व ने 'रोजगार दो' और कश्मीर से कन्याकुमारी तक 'भारत जोड़ो' यात्रा निकालने की बात कही है, लेकिन दरकते जनाधार को हासिल करने के लिये जमीनी स्तर पर व्यापक प्रयासों की जरूरत होती है। दरअसल, अप्रभावी संचार व संवाद की कमजोर प्रणाली ही कांग्रेस की लोकप्रियता में गिरावट की अकेली वजह नहीं है। ऐसे तमाम कारण हैं जिनके चलते कांग्रेस की यह स्थिति हुई है। जिसमें निर्णय लेने में देरी, प्रत्याशियों के चयन में पारदर्शिता का अभाव, अंतिम समय में टिकट वितरण में अराजकता, आक्रामक व तार्किक विरोध का अभाव, केंद्र सरकार के संदिग्ध निर्णयों के खिलाफ जनमत न तैयार कर पाना जैसे कारण भी शामिल रहे हैं। सांप्रदायिकता के खिलाफ विपक्ष को एकजुट न कर पाना तथा आसमान छूती महंगाई के मुद्दे को जन-जन तक न पहुंचा पाना भी कांग्रेसी की विफलता को दर्शाता है। दरअसल, आम जनता से जुड़े और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के खिलाफ एकजुटता के साथ आवाज बुलंद करने की जरूरत होती है।
निस्संदेह, कांग्रेस को इस बात पर विचार करना चाहिए कि पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल रहे युवाओं का पार्टी की रीति-नीतियों से मोहभंग क्यों होता रहा है। इस बाबत योजना बनाकर पार्टी को आत्ममंथन करना चाहिए कि युवाओं पर महत्वाकांक्षी व वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध न होने के आरोप लगाने के बजाय उनकी ऊर्जा का उपयोग पार्टी के विस्तार के लिये कैसे करना है। इस दिशा में पचास से कम आयु वर्ग के नेताओं के लिये पार्टी में आधे पद आरक्षित करना सार्थक कदम हो सकता है, हालांकि इस फैसले की व्यावहारिकता का अभी मूल्यांकन बाकी है। निस्संदेह, भाजपा ने लंबे समय तक केंद्रीय सत्ता में रही कांग्रेस के खिलाफ जनमत तैयार करने में बेहतर पार्टी संगठन और समर्पित कार्यकर्ताओं का उपयोग किया। इस दिशा में चुनाव प्रबंधन समिति का गठन करने का कांग्रेस का निर्णय स्वागत योग्य है। मगर सिर्फ प्रधानमंत्री की आलोचना करने मात्र से पार्टी को बेहतर परिणामों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सवाल यह है कि चिंतन शिविर में जिन कदमों को उठाने की घोषणा हुई है क्या उनके जरिये पार्टी खुद को नये वक्त की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाल पायेगी? बहरहाल, पार्टी को इस बात का अहसास अच्छे ढंग से हो चुका है कि पार्टी को मौजूदा चुनौतियों से उबारने का कोई छोटा रास्ता बाकी नहीं है। उसे बड़े पैमाने पर कदम उठाकर पार्टी की वापसी सुनिश्चित करनी होगी। देखना होगा कि चिंतन शिविर में घोषित योजनाओं का क्रियान्वयन कितने फुलप्रूफ तरीके से होता है। साथ ही किस हद तक देश की आर्थिक सुधार की नीतियों के पुनर्निर्धारण की मुहिम को विमर्श का मुद्दा बना पाती है। हालांकि, महिला आरक्षण व कुछ अन्य मुद्दों पर पार्टी की नीति लोकलुभावन शैली के ही अनुरूप है। साथ ही यह संदेश जाना जरूरी है कि पार्टी असमंजस व बचाव की मुद्रा से निकलकर आक्रामक तेवरों के साथ मैदान में आई है। इसके लिये पार्टी नेतृत्व में दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत दिखना भी जरूरी है। देखना होगा कि जिन मुद्दों पर देश के राजनीतिक मिजाज में परिवर्तन आया है कांग्रेस उसको लेकर क्या रणनीति अपनाती है।
दैनिक ट्रिब्यून के सौजन्य से सम्पादकीय