देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या बने नक्सलियों पर चौतरफा प्रहार करने का समय

इसी माह के आरंभ में नक्सलियों के हमले में छत्तीसगढ़ में हमारे 22 जवान शहीद हो गए

Update: 2021-04-28 11:12 GMT

विवेक शुक्ला। इसी माह के आरंभ में नक्सलियों के हमले में छत्तीसगढ़ में हमारे 22 जवान शहीद हो गए। इस दुखद घटना से मेरे जेहन में अपने दंतेवाड़ा और सुकमा में बिताए गए चार वर्षों (वर्ष 2015 से 2019 तक) की स्मृतियां उभरने लगीं। यहां घटित हर नक्सली घटना के बाद विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों में यही चर्चा होती है कि नक्सलवाद ग्रामीणों के समर्थन पर टिका है और इसी के बूते फल-फूल रहा है। मुझे तब ऐसा महसूस होता है कि सबसे बड़ा दुष्प्रचार ग्रामीणों के लिए यही होगा कि उन्हें नक्सलियों से जोड़ा जाए और उन्हें नक्सलियों का हितैषी माना जाए।

अपने कार्यकाल के चार साल नक्सल प्रभावित क्षेत्र दंतेवाड़ा एवं सुकमा में बिताने के क्रम में वहां ग्रामीणों को जोड़ने वाला एक विशेष अभियान 'तेदमुंता बस्तर' चलाया। इसके तहत नक्सलियों के गढ़ कहे जाने वाले सुकमा के अति नक्सल प्रभावित एक गांव में जाकर एक बार ग्रामीणों के साथ बैठक कर उन से निरंतर संवाद स्थापित कर वहां की वास्तविक स्थिति को समझने का प्रयास किया। कोई भी ग्रामीण नक्सलियों का साथ नहीं देना चाहता, क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि उनके क्षेत्र में नक्सलवाद रहे।

ग्रामीणों को यह बताना शुरू किया कि तीन तरीके से नक्सलवाद को खत्म किया जा सकता है। पहली शिक्षा, जिसमें हम बताते थे कि शिक्षा के माध्यम से नक्सलवाद खत्म किया जा सकता है। परंतु यह एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें आने वाली पीढ़ी नक्सलवाद के चंगुल से मुक्त हो जाएगी। दूसरी एकता, इसके माध्यम से प्रत्येक गांव नक्सलियों के खिलाफ खड़ा होकर उनसे प्रश्न करेगा कि नक्सलियों ने उन्हें क्या दिया है? और इस प्रकार नक्सलियों का विरोध सभी गांव वाले शुरू करेंगे और इस एकजुटता के माध्यम से नक्सलवाद को खत्म किया जा सकता है। तीसरा तरीका इन सबसे थोड़ा अलग है। इसमें हम कोई खास दिन निर्धारित करें और इस दिन सभी गांव वाले एक साथ अपने अपने घरों व गांव से निकलें और बड़ी संख्या में उस क्षेत्र की ओर जाएं जहां नक्सली रहते हैं। सभी लोग गांव, जंगल, नदी, पहाड़ पार करते उनको खोजते हुए आगे बढ़ते जाएंगे। हमारे हाथ में जो भी औजार हथियार आए उसे लेकर चलेंगे और जो भी नक्सली मिले उसे बोलें कि या तो आत्मसमर्पण करे, अन्यथा वह मारा जाएगा। इस प्रकार हम सभी नक्सलियों को खत्म कर देंगे।
जब गांववालों से यह पूछा गया कि इन तीनों ही तरीकों में से कौन सा तरीका आप नक्सलवाद के खात्मे के लिए चुनेंगे? तो वे तीसरे तरीके की ओर इशारा करते। इससे यह स्पष्ट है कि वे कितने आतुर हैं कि नक्सलवाद समाप्त हो जाए। अब मैं फिर से उसी पुराने प्रश्न पर आता हूं क्या ग्रामीण नक्सलियों का समर्थन करते हैं? संबंधित अभियान के दौरान जब विभिन्न गांव में बैठकें लेता तो उस संवाद में हमारा उनसे एक प्रश्न होता था कि इस गांव के कितने ग्रामीणों की हत्या नक्सलियों द्वारा अभी तक की गई है? आप विश्वास नहीं करेंगे, हमने ऐसा कोई भी गांव नहीं पाया, जहां नक्सलियों द्वारा ग्रामीणों की हत्या नहीं की गई हो। बैठकों के दौरान हमने पाया कि औसतन चार से पांच ग्रामीणों की हत्या सभी गांव में नक्सलियों द्वारा की गई थी।
आप इन गांवों में हुए नक्सली बर्बरता और हत्या की जानकारी ले सकते हैं। अब मैं आपसे यह पूछना चाहूंगा कि हमारे ही समाज में रहने वाले बहुत से गुंडे-बदमाशों के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की हिम्मत कितने लोगों में होती है? जिन्होंने भी हिम्मत की, ऐसे गुंडे-बदमाशों ने उनकी हत्या कर दी या करवा दी तो नक्सली भी इन गुंडे बदमाशों से कहां अलग हैं? कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है तो पूरे गांव वालों को बुलाकर जनअदालत लगाकर निर्ममतापूर्वक सबके सामने में उसकी हत्या कर दी जाती है। उस पर झूठे आरोप लगाए जाते हैं कि वह पुलिस का मुखबिर है। ऐसे झूठे आरोप लगाकर हत्या करना उनकी एक रणनीति का हिस्सा है, क्योंकि वे आतंक का माहौल बनाकर लोगों को अपने विरुद्ध न खड़े हो इसके लिए हत्या का उदाहरण प्रस्तुत करते है। मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन जरूर आएगा, जब स्थानीय आदिवासी नक्सलवाद से त्रस्त होकर तीसरा तरीका अपनाते हुए अपने घरों से गांव से निकलेंगे और उस दिन पूरे आदिवासी नक्सलवाद का खात्मा सुनिश्चित करेंगे। और वह दिन कोई सरकार द्वारा प्रायोजित या राजनीतिक आंदोलन (सलवा जुडूम जैसा) से प्रभावित न होकर उनका स्वत: स्फूर्त आंदोलन होगा, जिसमें नक्सलवाद का खात्मा निश्चित होगा।
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