वो बातें जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही हमें बता सकते हैं, क्योंकि अतीत हमेशा वर्तमान में छिपा होता है
स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले महान क्रांतिकारियों का जिक्र करें तो श्यामजी कृष्ण वर्मा को भी उनकी श्रेणी में
आशीष मेहता।
स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले महान क्रांतिकारियों का जिक्र करें तो श्यामजी कृष्ण वर्मा (1857-1930) को भी उनकी श्रेणी में आते हैं. एक विद्वान, वकील और कई रियासतों के पूर्व दीवान. वे इंग्लैंड गए और लंदन में स्वतंत्रता सेनानियों का हब 'इंडिया हाउस' बनाया. साथ ही, इंडियन होम रूल सोसायटी और 'द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' पत्रिका की शुरुआत भी की. (संयोगवश, वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के शुरुआती पैरोकार भी थे.) उन्होंने जिनेवा में अपनी अंतिम सांस ली, लेकिन उससे पहले ही उन्होंने स्थानीय अधिकारियों के साथ यह सुनिश्चित कर लिया था कि अंत्येष्टि के बाद उनके अस्थि-कलश को संभालकर रखा जाए और आजादी मिलने के बाद उसे भारत भेज दिया जाए. उनका अस्थि कलश अगस्त 2003 में मुंबई आया, जहां से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) उसे वर्मा के जन्मस्थान कच्छ के मांडवी ले गए. इस दौरान एक अभूतपूर्व यात्रा निकाली गई. कई दिनों तक जारी मीडिया की पब्लिसिटी ने लोगों में भुला दिए गए नायकों के प्रति रुचि भी बढ़ाई. आखिर में मांडवी के पास 'क्रांति तीर्थ' नाम से स्मारक भी बनाया गया. यह वह दौर था, जब गुजरात में मोदी की पारी शुरू हो रही थी. और इस पारी के खत्म होने तक वहां स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी (Statue Of Liberty) से भी ऊंची सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा की नींव रख दी गई थी. अब बतौर प्रधानमंत्री भी नरेन्द्र मोदी ने अपने मिशन को जारी रखा है. रविवार को इंडिया गेट पर सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की होलोग्राम प्रतिमा का उद्घाटन करते वक्त उन्होंने दावा किया कि वह पिछली सरकारों की 'गलतियों' को सुधार रहे हैं.
वे अपनी जगह एकदम सही हैं, क्योंकि आजादी की लड़ाई में 'कई महान हस्तियों' के योगदान को पर्याप्त रूप से याद भी नहीं किया गया. हालांकि 'उनके योगदान को मिटाने के प्रयास' की तलाश में काफी वक्त लगेगा. काफी लोगों को तो यह भी याद नहीं होगा कि इंदिरा गांधी ने एक विद्वान के अनुरोध के बाद जिनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा के अस्थि-कलश को भारत लाने की औपचारिकताओं को इजाजत दे दी थी. हालांकि, मामला आगे नहीं बढ़ा. वहीं, राजीव गांधी सरकार ने 1989 में वर्मा की याद में एक डाक टिकट भी जारी किया था.
मोदी महान हस्तियों के योगदान को लेकर सचेत
दूसरे नेताओं की तुलना में मोदी इन तथ्यों के प्रति काफी ज्यादा सचेत हैं. उनका मानना है कि अतीत हमेशा मौजूद रहता है. 'कई महान हस्तियों' के योगदान को याद करने के उनके प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए. इस पूरी प्रक्रिया में एकमात्र दिक्कत यह है कि महान व्यक्तित्वों की उनकी लिस्ट से दो या तीन नाम पूरी तरह गायब हैं. गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले और सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री थे. उन्होंने मुश्किल हालात में कई गलतियां की होंगी, लेकिन भारत के निर्माण में अहम योगदान दिया और कई अन्य लोगों की तुलना में यह योगदान काफी ज्यादा था. जब हम यह सोचते हैं कि यह सरकार (और इसकी सोशल मीडिया सेना) नेहरू को कैसे देखती है तो उनके प्रयासों को मिटाने जैसा अपराधबोध महसूस होता है.
जहां तक नेहरू की बेटी का सवाल है तो भारतीय लोकतंत्र और कांग्रेस के साथ जो भी गलत हुआ, उसके लिए इंदिरा गांधी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. हालांकि, उन्होंने दक्षिण एशिया के राजनीतिक मानचित्र को बदल दिया था. उन्होंने कुछ ऐसा कर दिखाया, जो किसी ने नहीं किया. बांग्लादेश की आजादी की स्वर्ण जयंती मनाते वक्त यदि केंद्र सरकार की ओर से किसी ने भी उनका जिक्र नहीं किया तो यह उनके योगदान को मिटाने का प्रयास जैसा ही है. शायद, ऐसी ही एक कोशिश अमर जवान ज्योति और नेशनल वॉर मेमोरियल की लौ के 'विलय' में की गई है.
'नेताजी' सशक्त राष्ट्रवाद के प्रतीक
दूसरा, ऐतिहासिक शख्सियतों से साथ ये जुड़ाव नाम बदलने या पहचान छिपाने भर तक ही सीमित नजर आता है. 'नेताजी' सशक्त राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं और उनकी विरासत का सम्मान करते हुए हम उनके नाम से परियोजनाओं की शुरुआत कर सकते हैं. लेकिन हमारा जुड़ाव यहीं खत्म हो जाता है. हमेशा ऐसा ही होता है. उदाहरण के लिए, नेताजी ने जब आजाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी, तब उन्होंने टीपू सुल्तान की जमकर तारीफ की थी. लेकिन यह एक ऐसा नाम है, जिसके साथ यह सरकार सहज महसूस नहीं करती है.
महात्मा गांधी का मामला अलग
राष्ट्रपिता का मामला इससे अलग नहीं है. गांधीनगर में एक भव्य सम्मेलन स्थल का नाम उन्हें समर्पित किया गया है. उनके जन्म की 150वीं वर्षगांठ को उचित तरीके से मनाने के लिए सभी प्रयास किए जा रहे हैं. साबरमती आश्रम के जीर्णोद्धार (विवादास्पद) और आधुनिकीकरण पर खूब रकम खर्च की जा रही है. पूरा स्वच्छ भारत अभियान उन्हें दी गई एक असामान्य श्रद्धांजलि है, क्योंकि गांधी भी सफाई पर काफी जोर देते थे और इस पर पिछली सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन पूरे जीवन में गांधी का पहला मिशन साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने का रहा. यह एक ऐसा पहलू है, जिसे लगातार नजरअंदाज किया जाता है, बल्कि मिटाने की कोशिश की जाती है. (एक और मामला अंबेडकर का हो सकता है.)
तीसरा, जब बीजेपी खुद को इतिहास से जोड़ती है, तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि उसके पास माफी-पत्र वगैरह के अलावा स्वतंत्रता-संग्राम से जुड़े प्रतीक कम ही नजर आते हैं. उसे उन नेताओं की विरासत को हथियाने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जो उस विचारधारा के घोर विरोधी थे जो बीजेपी का आधार है.
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस ने भी इस तरह के कार्यक्रमों में बराबर का योगदान दिया. सरदार पटेल, नेताजी समेत कई अन्य हस्तियों की काफी उपेक्षा की गई. बीजेपी के विरासत हथियाने की कोशिशों की आलोचना कोई भी कर सकता है, लेकिन कांग्रेस को इसका हक नहीं है. यदि भारत का सबसे पुराना राजनीतिक संगठन सिर्फ तीन चेहरों की बीन बजाते हुए खुद को एक पारिवारिक कंपनी में तब्दील कर लेता है तो आप उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए दूसरों को दोष नहीं दे सकते.
लेकिन, कभी-कभी, हकीकत काफी ज्यादा उलझी हुई होती है. जब गांधी के पोते तुषार गांधी ने 2005 में उनकी 75वीं वर्षगांठ पर दोबारा दांडी मार्च शुरू किया तो कांग्रेस ने इसे अपना कार्यक्रम बना लिया. सोनिया गांधी ने इस कार्यक्रम को हरी झंडी दिखाई और दूरदर्शन ने कई दिन तक इसका सीधा प्रसारण किया. गुजरात सरकार ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन इस मार्च के स्वागत के लिए अहमदाबाद की सड़कों पर सुबह के वक्त भी बड़ी भीड़ जुट जाती थी. दशकों से कई स्वतंत्रता सेनानियों की याद में डाक टिकट निकाले गए. संस्थानों और सड़कों (दिल्ली के नक्शे में सरकारी अस्पतालों के नाम देखें) के नाम रखे गए. कई स्मारक बनाए गए, लेकिन इनके प्रचार के लिए कोई पहल नहीं की गई और उस वक्त तो इस तरह की मदद के लिए सोशल मीडिया भी नहीं था.
और जब हम नेताजी की विरासत का जश्न मना रहे हैं तो कैप्टन लक्ष्मी को भी याद किया जाना चाहिए. आईएनए की नेता ने जब 2002 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा तो उनकी उम्मीदवारी को महज चार पार्टियों का समर्थन प्राप्त था, जिनके नाम आज के महान राष्ट्रवादियों के लिए अज्ञात ही रहेंगे.
राजनीति में इतिहास से खिलवाड़ कोई नया खेल नहीं है. दशकों तक कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए सिर्फ एक ही हिस्से को उजागर करने की कोशिश की. अपनी विचारधारा का इतिहास देखते हुए बीजेपी का इतिहास के साथ रिश्ता कठिन होना तय है. अब वह कांग्रेस सरकारों द्वारा छोड़े गए ऐतिहासिक पन्नों पर दावा करने की कोशिश कर रही है. जब कोई सत्तारूढ़ पार्टी इतिहास के पन्ने पलटती है तो किसी भी तरह स्वतंत्रता संग्राम, अपने आइकॉनिक नेता और उनकी पहचान कराने वाले मूल्यों को देखती है. हमारे सामूहिक अतीत के साथ किसी भी सार्थक और प्रेरक जुड़ाव की तुलना में आज की तारीख में इन पर होने वाली राजनीति काफी ज्यादा है. राजनीतिक पार्टियों के लिए यहां बहस करने और श्रेय लेने के लिए काफी कुछ है.
लोगों के मन में वर्तमान नेताओं और पिछली पीढ़ियों के नेताओं के बीच का अंतर काफी स्पष्ट है. इस विषमता के विजुअल रिप्रेजेंटेशन के लिए आपको सिर्फ इतना करना है कि सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति के पैरों में फोटो-ऑप्स चेक करें. नेताजी ने टीपू के 'मैसूर टाइगर' को आजाद हिंद फौज के झंडे में एक प्रतीक के रूप में शामिल किया था. शायद वह हमें सिखाना चाहते थे कि इतिहास में कैसे (और किसका) उत्सव मनाया जाए.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)