यह तो दीयों का त्योहार है, पटाखों का कतई नहीं

विडंबना यह है कि कुछ लोग इसे दीपावली मनाने की परंपरा पर अदालती दखल या दीपावली-विरोधी आदेश बता रहे हैं।

Update: 2020-11-05 04:02 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। एक तो जहरीली हवा और फिर कोरोना का खतरा, राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने 7 से 30 नवंबर तक आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी की सलाह दी है। राजस्थान सरकार ने तो इस पर अमल के आदेश भी दे दिए है। विडंबना यह है कि कुछ लोग इसे दीपावली मनाने की परंपरा पर अदालती दखल या दीपावली-विरोधी आदेश बता रहे हैं। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होने के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों से लेकर कस्बों तक के हैं।

सनातन धर्म का प्रत्येक पर्व-त्योहार एक वैज्ञानिक, तर्कसंगत और समय व काल के अनुरूप होता है। उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलयुग में दिवाली के रूप में मनाया जाता है। हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। कहा जाता है कि पटाखे चलाने का कार्य देश में मुस्लिमों के आने के बाद शुरू हुआ था। हालांकि, अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कह दिया कि दिल्ली-एनसीआर में पटाखे खरीदे-बेचे नहीं जाएंगे। लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं, बल्कि लोक-कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहने का कारक भी है।

दीपावली की असल भावना को लेकर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें, तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सह-अस्तित्व की अनिवार्यता है। विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई है। इसमें सबसे ज्यादा जानलेवा भूमिका होती है आतिशबाजी या पटाखों की। खासतौर पर चीनी पटाखों में तो बेहद खतरनाक रसायन होते हैं, जो सांस लेने की दिक्कत के साथ-साथ फेंफड़े के रोग को दीर्घकालिक बना सकते हैं। दिवाली पर आतिशबाजी के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों का यह खुलासा चैंकाने वाला है कि इससे न केवल सांस की बीमारी बढ़ती है, बल्कि गठिया व हड्िडयों के दर्द में भी इजाफा हो जाता है। संस्थान द्वारा इस बार शोध किया जाएगा कि दीपावली पर आतिशबाजी जलाने के कारण हवा में प्रदूषण का जो जहर घुलता है, उसका गठिया व हड्डी के मरीजों पर कितना असर पड़ता है।

आतिशबाजी के धुएं, आग और आवाज के शिकार इंसान तो होते ही हैं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और जल स्त्रोत भी दुष्प्रभावित होते हैं। विडंबना है कि आज पढ़ा-लिखा व आर्थिक रूप से संपन्न समाज महज दिखावे के लिए हजारों-हजार करोड़ रुपये के पटाखे फूंक देता है। इससे पैसे की बर्बादी तो होती ही है, सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचता है पर्यावरण को। ध्वनि और वायु प्रदूषण दीपावली पर बेतहाशा बढ़ जाता है, जो कई बीमारियों का कारण है। दिवाली के बाद अस्पतालों में अचानक 20 से 25 प्रतिशत ऐसे मरीज बढ़ जाते हैं, जिनको सांस संबंधी या अस्थमा जैसी बीमारी होती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, दिल्ली में पटाखों के कारण दीपावली के बाद वायु प्रदूषण छह से दस गुना और आवाज का स्तर 15 डेसिबल तक बढ़ जाता है। इससे सुनने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। तेज आवाज वाले पटाखों का सबसे ज्यादा असर बच्चों, गर्भवती महिलाओं और दिल व सांस के मरीजों पर पड़ता है। यह बात कई बार हो चुकी है कि ज्यादा आवाज मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक है, लेकिन एक बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो लापरवाह बने हुए हैं।

जान लें, बगैर आवाज के पटाखों में भी कम से कम 21 तरह के रसायन मिलाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 20 मिनट की आतिशबाजी पर्यावरण को एक लाख कारों से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। जाहिर है, दीपावली का मौजूदा स्वरूप न शास्त्र सम्मत है और न लोक परंपराओं व प्रकृति के अनुरूप, फिर क्यों न हम यह त्योहार दीयों के साथ श्रद्धापूर्वक मनाएं।

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