खेती पर भारी पड़ता यह टकराव
महापंचायतों के साथ किसान आंदोलन भी फिर से गति पकड़ने लगा है
वाई के अलघ। महापंचायतों के साथ किसान आंदोलन भी फिर से गति पकड़ने लगा है। जहां-जहां महापंचायत हो रही है, वहां-वहां किसान कहीं अधिक मुखर तरीके से अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनकी मूलत: एक ही मांग है, केंद्र सरकार जबरन उन पर नए कृषि कानून न लगाए। इसे वे कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस आंदोलन के पक्ष और विपक्ष में तमाम तर्क दिए जा चुके हैं, मगर कुछ अन्य बातें भी हैं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए।
यह तो अच्छी पहल है कि हरियाणा सरकार ने उस अधिकारी का तबादला कर दिया है, जिसने किसानों के सिर फोड़ने की बात कही थी। लेकिन असली मुद्दे की बात यही है कि जिन तीन कृषि विधेयकों पर संसद की मुहर लग चुकी है, और वे कानून बन चुके हैं, उनको फिलहाल लागू नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि अभी महामारी का वक्त है और यह समय विशेषकर किसानों के लिए काफी मुश्किल भरा है।
किसानों की तकलीफ का एक निजी अनुभव साझा करता हूं। महामारी के दौरान आवाजाही बंद हो जाने से व्यापार या तो संभव नहीं हो पाता या फिर काफी कठिन होता है। मेरी पत्नी पहले सुबह की सैर के वक्त ही फल-सब्जी ले आया करती थीं, मगर आजकल वह इसके लिए अहले सुबह नहीं, बल्कि कुछ देर से बाहर निकलती हैं। आखिर क्यों? दरअसल, जो किसान अहमदाबाद जिले से सुबह चार बजे अपनी गाड़ी में फल-सब्जी लेकर मुख्य बाजारों में आया करते थे, वे रात्रिकालीन कफ्र्यू के कारण सुबह छह बजे के बाद घर से निकलते हैं। नतीजतन, न सिर्फ उनके उत्पाद कम बिकते हैं, बल्कि वे बहुत दूर तक अपनी सब्जियां भी नहीं बेच पाते, क्योंकि दूर जाते-जाते दोपहर चढ़ आती है और फिर सब्जियां खराब होने लगती हैं। पहले अहले सुबह निकल जाने के कारण ऐसा नहीं होता था। और यह परेशानी सिर्फ अहमदाबाद जिले में नहीं है। अभी मेहसाणा से नवसारी 'मिल्क ट्रेन' भी नहीं चल रही है, और नासिक-मुंबई के बीच फलों के ट्रक भी नहीं दौड़ रहे। मेरा मानना है कि ऐसी परेशानियों से देश भर के किसान प्रभावित हो रहे हैं।
इस संदर्भ में देखें, तो कानून में जो बात कही गई है कि किसान कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) नहीं जाते, सही जान पड़ती है। वाकई, जहां किसान जाते हैं, उनको ही बाजार माना जाना चाहिए। इसलिए, ये कानून मूलत: किसानों की मदद ही करेंगे। फिर भी, जबरन इनको लागू करने का कोई तुक नहीं है। किसानों से सरकार को बात करनी चाहिए। वार्ता ही नहीं, उन्हें यह गारंटी देनी चाहिए कि उनकी शिकायतों पर गौर किया जाएगा। आखिरकार, इस तथ्य से भला कोई कैसे इनकार कर सकता है कि संसद सत्र के आखिरी दिन बिना किसी सार्थक बहस के कृषि विधेयक को पारित कर दिया गया था।