divyahimachal . हर साल हिमाचल का बजट दम भरता है और कागजी वादों में प्रदेश की खाल पर उधार की एक और परत चढ़ जाती है। विशेष राज्य का दर्जा, औद्योगिक पैकेज या अब नीति आयोग के तहत हिमालयी राज्यों की क्षेत्रीय परिषद का गठन अपने लक्ष्यों में व्यापक दिखाई देते हैं, लेकिन ये सारी पहल केवल सजावटी मकसदों का माल्यार्पण करती रही। हिमाचल के तमाम विश्वविद्यालयों के समाज-अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक व इतिहास विषयों के जानकारों तथा वैज्ञानिकों को प्रदेश की रिक्तता को नवाचार, सरोकार और परामर्श पैरवी से पूरी तरह वैचारिक रूप से आंदोलित करना चाहिए था, लेकिन शैक्षणिक स्तर पर या तो डिग्रियां या रोजगार के लिए औपचारिक शिक्षा के लेबल तैयार हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के कुलपति रहे वाजपेयी ने एक बड़े विजन का आलेप तो किया, लेकिन प्रदेश के साथ यह भी वैचारिक छलावा था। अब केंद्रीय विश्वविद्यालय में राजनीतिक परिसर की महत्त्वाकांक्षा को नए कुलपति बंसल पूरा कर पाते हैं या थिंक टैंक की अवधारणा में यह संस्थान हिमाचल की बौद्धिक व विवेक क्षमता का नए स्तर पर निर्धारण करेगा, यह देखा जाएगा। हिमाचल के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भों के साथ थिंक टैंक का आधार आज तक तैयार नहीं हुआ। प्रदेश को हिंदी राज्य घोषित करवा कर पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपने सरोकार, प्राथमिकता तथा वैचारिकता थोंप दी, लेकिन पहाड़ी या हिमाचली भाषा के पैरोकार इसके सामने बतौर थिंक टैंक मशक्कत नहीं कर पाए।
इसके मुकाबले 2003 में जम्मू क्षेत्र की डोगरी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह मिली, तो इसके पीछे वहां का सांस्कृतिक-साहित्यिक थिंक टैंक खड़ा था। क्या हिमाचल का लेखक व लोक कलाकार समुदाय सिर्फ कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग का पिछलग्गू बन कर यह अपेक्षा कर सकता है कि कोई सचिव महोदय, प्रादेशिक प्रारूप में बोलियों के महासागर से हिमाचली भाषा को छान कर ले आएंगे। आश्चर्य यह भी कि प्रदेश में एनजीओ कवर के नीचे कई संस्थाएं दिखाई देंगी, लेकिन प्रादेशिक सहयोग के बजाय निजी तरक्की के रास्ते खोजे जा रहे हैं। करीब साठ साल से बतौर विस्थापित प्रवासी सरकार चला रहे तिब्बती समुदाय ने भारतीय लोकतंत्र की छांव में, थिंक टैंक सशक्त किए और तिब्बती नीति संस्थान जैसी कर्मठता के तहत अपने अस्तित्व के विविध पहलुओं को जोड़े रहे हैं। तिब्बत के बाहर अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए मंच, मन और मकसद पैदा हो सकता है, तो हम सरकार से अपेक्षाएं और बजट के छिलके उतारते केवल इस व्यस्तता में मशरूफ हैं कि वेतन-भत्ते बढ़ते रहें या आपसी समझौते का एक क्लब बना कर 'ट्रांसफर साइकिल' बरकरार रखा जाए। मकलोडगंज में एक विदेशी महिला, गजाला अबदुल्ला हरे भरे देवदार के पौधों को बचाने को हर संभव दबाव पैदा करती हैं, लेकिन हम इस प्रयास में हैं कि पेड़ों से होटल या कामर्शियल भवन की छत कैसे निकाल लें। ब्रिटिश नागरिक हमें आकर बताती हैं कि त्रियूंड की ट्रैकिंग साइट को गंदगी से कैसे बचाएं।
हिमाचल को कब पता चलेगा कि कोई कुलभूषण उपमन्यु भी हिमालय नीति अभियान के तहत अलख जगा रहा है या मंडी से प्रवीण शर्मा अपनी संस्था 'सेंटर फॉर सस्टेनेबल डिवेलपमेंट' के तहत कुल्लू के राष्ट्रीय पार्क के बीच फंसे गांवों तक बिजली का प्रबंध कर रहा है। एक चिपको आंदोलन से सुंदरलाल बहुगुणा के पीछे सारा उत्तराखंड चल पड़ा, लेकिन हिमाचल में सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कोई नायक बन कर चलता है तो उसे परास्त करती राजनीति या नजरअंदाज करती मीडिया दृष्टि कहीं अन्यत्र चली जाती है। दूसरी ओर विधानसभा में आए प्राइवेट मेंबर बिल अपनी उल्लेखनीय दृष्टि को जमीन पर नहीं उतार पाए। यह दीगर है कि कुछ नेताओं ने एनजीओ बना कर राजनीति के मकसद को जरूर अपनी जमीन पर उतारा है, लेकिन यह सीमित परिधि का नजरिया है। इससे पूर्व शांता कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल की अंत्योदय व नो वर्क, नो पे जैसे सैद्धांतिक विचारों को अब देशव्यापी समर्थन प्राप्त है। प्रेम कुमार धूमल की सत्ता को 'पोलिथीन हटाओ' व कार्बन क्रेडिट जैसी योजनाओं को देश ने अंगीकार किया, तो समय-समय पर आए विधेयकों के कारण यहां की राजनीतिक संवेदना का परिचय मिला है, लेकिन हिमाचल का डाटा बैंक या पारदर्शी ब्यौरा न के बराबर है। हर साल बजटीय जानकारियों के बीच हिमाचल की आत्मा को खोजना मुश्किल होता जा रहा है। प्रदेश के संदर्भों में सर्वेक्षण, अध्ययन व शोध केवल किताबी है। मध्य प्रदेश में नर्मदा बांध परियोजना ने ऐसे थिंक टैंक पैदा कर दिए, जो आज तक पर्यावरणीय समाधानों का वैश्विक मंथन कर रहे हैं। भोपाल त्रासदी ने अलग तरह के थिंक टैंक जीवित कर दिए। कमोबेश हर राज्य में गैर सरकारी तौर पर सामने आ रही बौद्धिक कसरतों का फलक निरंतर ऊंचा हो रहा है, लेकिन हिमाचल में इस दिशा में बुद्धिजीवी, व्यापारी, कारपोरेट जगत व एनजीओ फिलहाल गौण साबित हो रहे हैं।