नेताजी ने लाखों युवाओं को आजादी के संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था। नेताजी ने मैट्रिक परीक्षा में दूसरा और भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। उन्होंने अपनी आईसीएस की नौकरी छोड़ दी और साल 1921 में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए इंग्लैंड से भारत वापस आ गए थे। जानकारी के मुताबिक नेताजी ने कहा था कि स्वतंत्रता पाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ना जरूरी है। स्वाधीनता संग्राम के लगभग अंतिम 2 दशकों के दौरान उनकी भूमिका एक सामाजिक क्रांतिकारी की रही थी। सुभाष चंद्र बोस ने अहिंसा और असहयोग आंदोलनों से प्रभावित होकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' में अहम भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सुभाष चंद्र बोस की सराहना हर तरफ हुई। देखते ही देखते वह एक महत्त्वपूर्ण युवा नेता बन गए। 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा', ये उनका बहुचर्चित नारा बना। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना की। 29 मई 1942 के दिन सुभाष चंद्र बोस जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
मास्को से जर्मनी गए। हिटलर से मिले और हिटलर से दस्ताना उतारकर हाथ मिलाने को कहा, कहा कि दोस्ती के बीच कोई दीवार नहीं आनी चाहिए, और आगे के मिशन के लिए मदद मांगी। कई साल पहले हिटलर ने 'माईन काम्फ' नामक आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाष चंद्र बोस ने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किए पर माफी मांगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया। अपने संघर्षपूर्ण एवं अत्यधिक व्यस्त जीवन के बावजूद नेताजी सुभाष चंद्र बोस स्वाभाविक रूप से लेखन के प्रति भी उत्सुक रहे। अपनी अपूर्ण आत्मकथा 'एक भारतीय यात्री' (ऐन इंडियन पिलग्रिम) के अतिरिक्त उन्होंने दो खंडों में एक पूरी पुस्तक भी लिखी, भारत का संघर्ष (द इंडियन स्ट्रगल), जिसका लंदन से ही प्रथम प्रकाशन हुआ था। यह पुस्तक काफी प्रसिद्ध हुई थी। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कह कर संबोधित किया जाता है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि उन्हें यह उपाधि किसने दी थी? महात्मा गांधी को सबसे पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रपिता कहा था। बात 1944 की है, जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में एक रेडियो संदेश प्रसारित करते हुए महात्मा गांधी को पहली बार राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। आज़ाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से महात्मा गांधी जी को संबोधित करते हुए नेता जी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आज़ाद हिंद फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया।
इस भाषण के दौरान नेता जी ने गांधी जी को राष्ट्रपिता कहा। तभी गांधी जी ने भी उन्हें नेता जी कहा। नेता जी के पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें, किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घंटे का समय यह सोचने के लिए मांगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अंतिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाए। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और इंग्लैंड चले गए। उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए परीक्षा पास कर ली। इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने अपने बड़े भाई शरत चंद्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा है, ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाएंगे? हम में से कितनों के अंदर यह जज्बा है? नेता जी को भारत का खून कभी भी नहीं भुला पाएगा। उनका शब्द घोष जय हिंद हम सब के लिए एक अमर वाक्य बन चुका है। नेता जी का जीवन कहता है कि हमारे समाज के लोगों को अपनी काबीलियत और चरित्र देश की बेहतरी में लगाना चाहिए, एक-दूसरे के चरित्र हनन और तुच्छ फायदों के लिए कीमती ऊर्जा को बर्बाद नहीं करना चाहिए। इस बार के गणतंत्र दिवस समारोह में नेता जी की जन्म से जुड़ी याद को विशेष स्थान देने से राष्ट्र गौरव महसूस करेगा और देश में राष्ट्रीयता की भावना बलवती होगी। आज देश को सुभाष चंद्र बोस के दिखाए रास्ते पर चलने की जरूरत है।
डा. वरिंदर भाटिया
कालेज प्रिंसीपल
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