चुनावों से पहले नए सीएम की ताजपोशी की हैं कड़वी यादें, क्या इसलिए यूपी में हो रही फैसले में देर

कहते हैं कि जो लोग इतिहास की गलतियों से सबक लेते हैं

Update: 2021-06-04 14:33 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | संयम श्रीवास्तव | कहते हैं कि जो लोग इतिहास की गलतियों से सबक लेते हैं उनके चैप्टर में पराजय का नाम नहीं होता. इतिहास में देखें तो चुनावों के पहले देश के कई राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला बीजेपी के लिए कभी फायदेमंद नहीं रहा है. यूपी और दिल्ली में चुनावों के पहले सीएम बदले जाने के कड़वे अनुभवों के चलते ही शायद यूपी में कोई बड़ा फैसला लेने के पहले अभी ताबड़तोड़ मीटिंगों का दौर चल रहा है. यूपी में पिछले एक हफ्ते से लगातार पार्टी-सरकार और संघ के साथ मिलकर मीटिंग पर मीटिंग, वन टु वन बातचीत और फीडबैक आदि का कार्यक्रम चला रही है. पर अभी तक कोई फैसला नहीं लिया जा सका है. वैसे भी उत्तर प्रदेश पर फैसला लेना इतना आसान नहीं है.

दरअसल केंद्र की सत्ता की चाभी उत्तर प्रदेश की सत्ता से होकर ही जाती है और दूसरे योगी आदित्यनाथ इतने कमजोर भी नहीं हैं. उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत की ताजपोशी जैसे रातों रात कर दी गई वैसा यूपी में योगी आदित्यनाथ के साथ नहीं किया जा सकता.
अंतिम मौके पर राजनाथ सिंह की ताजपोशी ने दिया बीजेपी को 15 साल का वनवास
6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी की कल्याण सिंह की सरकार को केंद्र की कांग्रेस सरकार ने बर्खास्त कर दिया था. इसके बाद राम मंदिर के नाम पर अपनी कुर्सी गंवाकर जनता के बीच कल्याण सिंह हीरो बन गए थे. उम्मीद की जा रही थी यूपी में बीजेपी को भारी बहुमत मिलेगा पर ऐसा नहीं हुआ. बाबरी विध्वंस के बाद यूपी में चुनाव हुए तो बीजेपी को हार मिली ही, दूसरी बार 1996 में हुए विधानसभा चुनावों में भी बहुमत नहीं मिल सका. कुछ महीने सौदेबाजी चली फिर बसपा-भाजपा सरकार बनी. छह-छह महीने मुख्यमंत्री वाला फॉर्मूला सामने आया. पहले मायावती मुख्यमंत्री बनीं और 6 महीने सीएम रहीं. फिर बीजेपी की ओर से कल्याण सिंह सूबे के मुखिया बने.
मगर कुछ ही महीनों में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने सपोर्ट वापस ले लिया. बीजेपी के इस संकट के समय राजनाथ सिंह सुपर हीरो बनकर उभरे और पहला बड़ा पोलिटिकल स्किल दिखाया. उनकी राजनीति से कांग्रेस और बसपा में दरार पड़ गई. दो पुरानी पार्टियों से निकल 2 नई पार्टियां अस्तित्व में आईं. लोकतांत्रिक कांग्रेस और जनतांत्रिक बसपा नामक दोनों नई पार्टियों ने कल्याण सिंह की सरकार को समर्थन दिया. राजनाथ सिंह इस सरकार का हिस्सा नहीं बने. समय उनसे कुछ बड़ा कराने का इंतजार कर रहा था. जल्द ही बीजेपी सरकार की फूट सार्वजिनिक होने लगी. कल्याण सिंह की डोर पार्टी पर कमजोर पड़ने लगी. देखते ही देखते लड़ाई कल्याण सिंह बनाम अटल बिहारी वाजपेयी हो गई.
पार्टी 1999 का लोकसभा चुनाव हार गई. यूपी में हार का ठीकरा कल्याण सिंह के सिर फूटा. कल्याण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा पर राजनाथ सिंह की ताजपोशी फिर अटक गई . सूबे के क्षत्रप आपस में ही न भिड़े इसलिए बीजेपी ने एक पुराने बुजुर्ग हो चुके नेता राम प्रकाश गुप्त को कमान थमा दिया. एक ऐसा नेता जिसकी याददाश्त खत्म हो चुकी थी, पार्टी पर कोई पकड़ नहीं थी, उसे सीएम बनाकर शायद बीजेपी ने एक ऐसी भूल कर दी थी जिसे 11 महीने बाद राजनाथ सिंह को लाकर भी पार्टी डैमेज कंट्रोल नहीं कर सकी. 28 अक्टूबर 2000 को सीएम पद की शपथ लेकर राजनाथ सिंह ने करीब एक साल से कुछ ऊपर पार्टी को बचाने और चुनाव के लिए तैयार करने की कोशिश की पर कोई सफलता नही मिली. 2002 के चुनावों में पार्टी 100 सीटों से नीचे सिमट गई. उसके बाद करीब 15 सालों तक यूपी में सत्ता से दूर हो गई.
चुनावों से ठीक पहले सुषमा स्वराज की दिल्ली में हुई ताजपोशी, बीजेपी को आज तक नहीं मिली जीत
1998 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए गवर्नमेंट की सरकार थी. दिल्ली में प्याज का संकट होने के चलते कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाकर दिल्ली सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया था. दिल्ली में बीजेपी की सरकार थी जिसका नेतृत्व कर रहे थे साहिब सिंह वर्मा. दिल्ली की राजनीति को नजदीक से देखने वाले जानते हैं कि दिल्ली में पार्टी की घटती लोकप्रियता और आने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए साहब सिंह वर्मा को रिप्लेस करके सुषमा स्वराज की ताजपोशी की गई. 13 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वाराज ने दिल्ली सीएम का पद संभाला. चर्चा उड़ी की बीजेपी का एक बड़ा तबका साहिब सिंह वर्मा को हटाना चाहता था और एक तीर से दो शिकार किया गया. दूसरा शिकार सुषमा स्वराज खुद थीं.

कहा जा रहा था कि उन्हें दिल्ली का सीएम ही इसलिए बनाया गया कि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में सीमित किया जा सके. फिलहाल 53 दिनों तक दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद उन्हें फिर से केंद्र की सियासत में वापस बुला लिया गया. दिल्ली में उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा पर सफलता नहीं मिली. बीजेपी की ऐसी हार हुई कि आज तक दिल्ली में सत्ता का सुख हासिल नहीं हो सका.


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