कोरोना काल में चुनाव की कड़ी चुनौती, बेहद संभलकर उठाने होंगे हर कदम

माजिक ढांचे में लोकतांत्रिक व्यवस्था की नैतिक श्रेष्ठता लोकहित सुनिश्चित करने में सत्ता की जवाबदेही पर आधारित है

Update: 2022-01-10 08:28 GMT
अश्विनी कुमार। माजिक ढांचे में लोकतांत्रिक व्यवस्था की नैतिक श्रेष्ठता लोकहित सुनिश्चित करने में सत्ता की जवाबदेही पर आधारित है। वहीं लोकतांत्रिक वैधता चुनावी प्रक्रिया से संबद्ध है, जो लोगों द्वारा अपनी इच्छा की अभिव्यक्ति को संभव बनाती है। एक गतिशील लोकतंत्र के इन आधारभूत अनिवार्य तत्वों को महामारी के इस दौर में कसौटी पर कसा जा रहा है। अकाट्य मेडिकल साक्ष्य और अतीत के अनुभव बिना किसी संदेह के यही स्थापित करते हैं कि चुनावी प्रक्रिया में उमड़ी भीड़ कोविड सुपर स्प्रेडर साबित हुई।
दूसरी लहर के दौरान हुए विधानसभा चुनावों के वीभत्स निहितार्थ हम सभी ने देखे, जिसमें वायरस तमाम लोगों की जिंदगियां लील गया। वैज्ञानिक साक्ष्य यही दर्शाते हैं कि वायरस के प्रभावित करने की क्षमता केवल उसकी प्रकृति या भयावहता पर ही नहीं, बल्कि वायरस और मानव समाज की अंत:क्रिया पर भी निर्भर करती है। कतिपय अध्ययन इसकी पुष्टि करते हैं कि मात्र आठ प्रतिशत लोगों ने ही कोविड की दूसरी लहर के दौरान 60 से 80 प्रतिशत लोगों को संक्रमित किया था। उसकी तुलना में ओमिक्रोन और भी संक्रामक है।
माना जा रहा है कि वह चार से आठ हफ्तों के दौरान चरम पर पहुंचकर महामारी को बड़े पैमाने पर बढ़ा देगा। कुछ रपट बता रही हैं कि संक्रमण दर को दर्शाने वाली आर वैल्यू दूसरी लहर के चरम को भी पार कर गई है। देश के तमाम जिलों में संक्रमण दर पहले ही 10 प्रतिशत से ऊपर जा चुकी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री चेता चुके हैं कि तीसरी लहर के दौरान संक्रमण के मामले पूर्व में अपने चरम के तीन से चार गुना बढ़ सकते हैं। ये एक राष्ट्रव्यापी स्वास्थ्य आपदा के स्पष्ट संकेत हैं। ऐसे मुश्किल वक्त में हमें कड़े विकल्प भी अपनाने होंगे।
समयबद्ध चुनाव राजनीतिक लोकतंत्र का एक अहम अवयव है। वहीं नागरिकों का स्वास्थ्य एवं जीवन की सुरक्षा और भी अनिवार्य तत्व है। वर्तमान परिदृश्य में इनमें टकराव होता प्रतीत हो रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि व्यावहारिक हकीकत यही है कि चुनावों के दौरान कोविड अनुशासन के अनुपालन से ही वायरस का संक्रमण रोक पाना संभव नहीं होगा। कड़े फैसले कभी आसान नहीं होते, परंतु प्राय: ऐसे निर्णय आवश्यक होते हैं। तर्क दिया जाता है कि चुनावों को टालने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को झटका लगता है। सरकारें अपने लिए नियत जनादेश से आगे सत्तारूढ़ रहती हैं। अलोकप्रिय सरकारों के लिए यह 'बिल्ली के भाग से छींका टूटना' जैसा होता है। हालांकि हमने यह भी देखा कि जुलाई 2020 में कोविड के कारण 31 देशों में विभिन्न स्तर पर चुनाव अस्थायी रूप से टाल दिए गए।
भारत के मामले में यही दलील दी गई कि चुनाव टालना चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। यह संविधान संशोधन से ही किया जा सकता है। उसके लिए व्यापक राजनीतिक सहमति आवश्यक होती है, जो कि दुर्लभ है। इससे राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति में संवैधानिक लचीलेपन का सवाल उठता है कि अप्रत्याशित स्थितियों में किस प्रकार प्रतिक्रिया दी जाए। वैसे आपातकालीन राष्ट्रीय चिंताओं से निपटने के लिए समय-समय पर संविधान संशोधन का सहारा लिया गया है। ऐसे में संविधान में 'भयावह राष्ट्रीय मेडिकल आपातकाल' के आलोक में संशोधन कर राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में अस्थायी विस्तार की शक्ति संसद या चुनाव आयोग को दी जाए।
राजनीतिक नैतिकता यही मांग करती है कि हम अनुभव से सीखें और राजनीतिक लाभ को लेकर गलत विकल्पों और महत्वाकांक्षा से विलग रहें। कुछ राज्यों ने कोरोना से निपटने के लिए स्थानीय प्रतिबंधों के अलावा नाइट कफ्यरू और वीकेंड कफ्यरू जैसे विकल्प अपनाए हैं, जो स्पष्ट रूप से वर्तमान स्थिति में विधानसभा चुनावों के आयोजन से बिल्कुल असंगत हैं। एक ओर लाकडाउन और दूसरी ओर चुनावी गतिविधियों की अनुमति एक प्रकार का प्रहसन ही है, जो हमारे नेताओं की मंशा पर सवाल खड़े करता है।
असाधारण परिस्थितियों और लाखों नागरिकों की सेहत पर मंडराते हुए खतरे को देखते हुए लोगों के मन में सवाल उठ सकता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इस पर स्वत: संज्ञान लेगा? अदालत ने अतीत में इससे भी कम विकट स्थितियों में राष्ट्रीय मूड को देखते हुए चुनावों के स्थगन को लेकर अपना हस्तक्षेप किया है। जरा विचार कीजिए कि लोगों की सेहत और जीवन की रक्षा के लिए चुनावों को कुछ समय के लिए टालना लोगों की भलाई के लिए कोई भारी कीमत है या इससे हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।
इसके उलट विरूपित चुनावी प्रक्रिया एक विश्वसनीय लोकतंत्र के रूप में हमारी साख पर सवाल खड़े करेगी। मतदाता इसके पात्र हैं कि वे ऐसे परिवेश में मतदान करें जिसमें उन्हें किसी बीमारी के चंगुल में फंसने का कोई डर न रहे। वर्तमान परिदृश्य में जो स्थितियां हैं वे सरकार-चुनाव आयोग द्वारा भयमुक्त स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की पूर्व निर्धारित गारंटी सुनिश्चित नहीं कर सकतीं। इसके लिए सक्षम चुनावी प्रबंधन से लेकर आवश्यक मेडिकल प्रोटोकाल का पालन अपरिहार्य होगा। चूंकि चुनावी प्रक्रिया के जोर पकड़ने में अब चंद दिन ही शेष रह गए हैं तो आवश्यक स्वास्थ्य प्रोटोकाल को लागू करने के किसी उद्देश्यपूर्ण तंत्र का अभाव स्पष्ट दिखता है।
साध्य और साधन के बीच संतुलन साधना हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। लोगों को यह जानने का अधिकार है कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन के मूल अधिकार और भयमुक्त एवं स्वतंत्र-निष्पक्ष चुनाव में कैसे तालमेल बिठाएंगे? वहीं नागरिकों की संरक्षक के रूप में राष्ट्रीय सरकार जीवन के अधिकार जैसे प्रमुख संवैधानिक मूल्य से क्यों विमुख हो रही है? यह चुनौतीपूर्ण समय 'सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक व्यवहार के अलग ढांचे' की मांग करता है तो मानवीय स्वास्थ्य को मूल लोकतांत्रिक मूल्य के रूप में देखते हुए चुनावों के समय को लेकर मंथन किया जा सकता है।
इस समय की विकराल चुनौती के मद्देनजर यह हमारा दायित्व है कि हम व्यापक संवैधानिक लक्ष्यों विशेषकर जीवन के मूल अधिकार के संदर्भ में राष्ट्रीय आकांक्षा पर विचार करें। एक राष्ट्र के रूप में इस स्थिति में अंतर्निहित मुश्किलों से पार पाने की हमारी क्षमताओं को लेकर इसमें राजनीतिक नेतृत्व की परीक्षा के साथ-साथ एक तार्किक लोकतंत्र की हमारी सीमाएं भी परिभाषित होंगी।
(लेखक पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री हैं)
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