देश में आर्थिक असमानता पर चिंता करने की जरूरत; 1% लोगों के हाथों में देश की एक तिहाई संपत्ति

कई सालों से आर्थिक असमानता पर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं

Update: 2022-01-28 08:04 GMT
रीतिका खेड़ा का कॉलम:
कई सालों से आर्थिक असमानता पर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। दिसंबर के महीने में फ्रांस के अर्थशास्त्रियों, पिकेट्टी और चन्सल की टीम की 'वर्ल्ड इनिक्वालटी रिपोर्ट' आई, जिसमें यह खुलासा हुआ कि भारत में आर्थिक असमानता अन्य देशों की तुलना कई गुना ज्यादा है। उनकी रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में भारत के टॉप 1% के हाथों में देश की कुल आय का 6% हुआ करता था। आज यह बढ़कर 22% तक पहुंच गया है।
यदि आय के बजाय हम कुल संपत्ति की बात करें तो स्थिति और भी विकट है। टॉप 1% के हाथों में देश की कुल एक तिहाई संपत्ति है। ऐसे और भी संकेत हैं। 2020-21 में दो लाख परिवारों में हुए एक सर्वे में पाया गया कि निचले 50% घरों में 1995 से लगतार बढ़ रही आय, 2015-16 की तुलना में, 2020-21 में 50% से अधिक गिर गई।
यह आंकड़ा इसलिए भी टिप्पणी योग्य है, क्योंकि इस अवधि में ही सबसे सक्षम 20% की आय 39% बढ़ी। इसका अर्थ यह हुआ कि जीडीपी में आर्थिक वृद्धि का ज्यादा से ज्यादा फायदा अमीरों तक पहुंचा। साथ ही, निचले 50 फीसदा का देश की आय में हिस्सा घट गया।
यदि ऐसा होता कि निचले तबके में 50 फीसदी का जीवन स्तर ठीक होता, तब शायद चिंता की कोई बात न होती। 50% निचले तबके की औसतन वार्षिक आय केवल 50 हजार रु. के आसपास है। (इसके मुकाबले टॉप 1% की औसतन आय 42 लाख रु. है।) क्या 50 हजार में व्यक्ति इज्जत और आत्मसम्मान की जिंदगी जी सकता है?
अर्थशास्त्रियों में अलग-अलग विचारधारा हैं। इनमें कई हैं जिन्होंने हमेशा यह सलाह दी कि आर्थिक नीति को जीडीपी की बढ़त दर पर केंद्रित होना चाहिए। उनकी राय में ऐसा करने से बाकी सब आर्थिक मुद्दों, खासकर गरीबी दर का निवारण अपने आप हो जाएगा। उनका यह भी मानना है कि असमानता की बहुत फिक्र करने की जरूरत नहीं क्योंकि आर्थिक असमानता, आर्थिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती है, जो जीडीपी के लिए अच्छी बात है।
विचारधारा को परे कर दें, तब भी इस तर्क में दोष है। यदि एक फीसदी के पास देश की एक तिहाई संपत्ति केंद्रित हो जाए, तो इससे जीडीपी की बढ़त दर को नुकसान हो सकता है। जीडीपी में बढ़त के लिए देश में वस्तु-सामाग्री और सेवाओं की मांग में बढ़त होना जरूरी है। जो अमीर हैं वह कितने ही गाड़ी, कपड़े, अन्य समान खरीद सकते हैं? जिनके पास खर्च करने की जरूरत है, उपभोग प्रवृत्ति है, उनकी आय हो तब ही जीडीपी बढ़ सकती है।
यदि हमारी विश्वगुरु बनने की आकांक्षा है तो इसे हासिल करने के लिए भी हमें आम आदमी पर ध्यान देना ही होगा। देश में केवल करोड़पतियों की संख्या बढ़ने से काम नहीं बनेगा। संपत्ति और आय का पुनर्वितरण विश्वगुरु बनने के लिए भी जरूरी है। यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह सबको आगे बढ़ाने के लिए हालात पैदा करे। इसमें, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा श्रेष्ठ हैं। इन्हें उप्लब्ध करवाने सरकार को राजस्व बढ़ाने जरूरत है।
असमानता हद से ज्यादा बढ़ जाए तो समाज में क्लेश-तनाव बढ़ता है। अपराध की दर बढ़ती है। साथ ही, समाज में लोगों में अपनापन घटता है, अलगाव-अकेलापन आ जाता है। आर्थिक असमानता से जुड़ा नैतिक सवाल शायद सबसे अहम है। जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था, 'आइदर वी ऑल लिव इन ए डीसेंट वर्ल्ड, ऑर नोबडी डज़', यानी या तो हम सभी सभ्य समाज में रहते हैं, या कोई भी नहीं।
ऑरवेल की समाज की रचना का आधार था न्याय, समानता और एकात्मता। यह भावना और लक्ष्य हमारे संविधान की प्रस्तावना में भी है। यह हमारे लिए सवाल है कि क्या हम ऐसा समाज रचने की कोशिश भी कर रहे हैं?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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