मेडिकल शिक्षा के बजट को बढ़ाने की जरूरत; पिछले दशक में यह बहुत निराशाजनक रहा है
मेडिकल शिक्षा के बजट को बढ़ाने की जरूरत
रीतिका खेड़ा का कॉलम:
यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध होने से पहली बार हमें अहसास हुआ कि वहां कितनी बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। इनमें से ज्यादातर मेडिकल डिग्री के छात्र हैं। इसके बाद भारत में उच्च शिक्षा, खासकर मेडिकल शिक्षा पर अच्छी-खासी चर्चा हुई। अमेरिका, यूनाइटेड किंग्डम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा इत्यादि सुनने में आता था, लेकिन यूक्रेन नाम से लोग कुछ हद तक आश्चर्यचकित हुए हैं। इतनी बड़ी संख्या में यहां के विद्यार्थी यूक्रेन में क्यों हैं?
मेडिकल शिक्षा के लिए यूक्रेन जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि भारत में मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिलना बहुत मुश्किल है। सरकारी कॉलेजों में सीटों की मारामारी है और निजी कॉलेज में फीस बहुत ज्यादा है। यूनाइटेड किंग्डम में निजी यूनिवर्सिटी में मात्र दो प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ते हैं, बाकी सब सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं। अमेरिका, जिसे पूरी दुनिया में निजी मार्केट का स्वर्ग माना जाता है, वहां भी सरकारी यूनिवर्सिटी में नामांकन निजी यूनिवर्सिटी से चार गुना है।
भारत में सरकारी समर्थन घटने की वजह से निजी संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसकी तुलना में भारत में यदि हम मेडिकल सीटें देखें तो निजी और सरकारी का हिस्सा आधा रहा है- आधी मेडिकल सीटें निजी कॉलेज में हैं और बाकी सरकारी में। शिक्षा मंत्रालय की ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्ट 2020 के अनुसार कुल कॉलेज नामांकन में दो-तिहाई नामांकन निजी संस्थानों में हैं। निजी संस्थाओं में भी दो प्रकार होते हैं- एक मुनाफे के लिए और नॉट फॉर प्रॉफिट।
शिक्षा के क्षेत्र में निजी, खासकर फॉर-प्रॉफिट, संस्थानों पर निर्भर होने से कई दिक्कतें हैं। इंग्लेंड में भी दोनों प्रकार के निजी संस्थान हैं। वहां एक शोध में पाया गया कि निजी मुनाफे वाले संस्थान में असफलता की दर सबसे अधिक थी। बंद हो जाने वाली निजी संस्थाओं में से मुनाफे वाली 90 फीसदी थीं। दो, इसका समानता पर बुरा असर पड़ने की गुंजाइश है।
हालांकि, पिछले कुछ हफ्तों में सरकार की ओर से प्रस्ताव है कि मेडिकल की कुछ निजी सीटों को सरकारी दरों पर उपलब्ध करवाना होगा, निजी संस्थाएं काफी हद तक अपनी मनमर्जी से फीस चुकाती हैं। इससे कमजोर परिवार के होनहार नौजवानों के लिए पढ़ाई का रास्ता रुक जाता है। तीसरी दिक्कत यह भी है कि यदि कॉलेज मुनाफे के लिए चलाए जाएंगे, तो केवल मुनाफा देने वाली शिक्षा ही (जैसे कि मैनेजमेंट) उपलब्ध करवाई जाएगी।
हालांकि उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी दिलवाने तक ही सीमित नहीं है। उच्च शिक्षा हमें अपनी विश्वदृष्टि को बदलने, उसका दायरा बढ़ाने का भी काम करती है। वह एक मौका है कि आप हुनर भी सीखें और साथ ही अलग सोच, तरीकों और संस्कृति को जानें। ललित कला, साहित्य इत्यादि के लिए निजी क्षेत्र में कम जगह होगी। जिस तरह सरकारी कॉलेजों में दलित, आदिवासी और विकलांगता के लिए सीटों का कोटा होता है, वह निजी संस्थानों के लिए अनिवार्य नहीं है।
इससे उच्च शिक्षा के सामाजिक समानता के उद्देश्य को हानि होती है। यदि सरकारी कॉलेजों की संख्या और सीटें बढ़ाई जाएं, तो कोर्ट में रिज़र्वेशन की श्रेणियां बढ़ाने के लिए बार-बार जो याचिका जाती है उसकी भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इन याचिकाओं में यही मांग होती है कि किसी न किसी समुदाय के लोगों के लिए कोटा हो। यदि कुल सीटें बढ़ेंगी, तो अपने आप सभी के लिए अधिक सीटें होंगी।
जैसे-जैसे साक्षरता का स्तर और बारहवीं तक स्कूली पढ़ाई करने वालों की संख्या बढ़ी है, वैसे ही कॉलेज शिक्षा की डिमांड भी बढ़ी है। बढ़ती शिक्षा के स्तर में कम आय वाले परिवारों के बच्चों की संख्या बढ़ी है, जो कि निजी कॉलेज की फीस देने में असमर्थ हैं। सरकारी कॉलेज में फीस दे पाते हैं, लेकिन इनमें सीटों की कमी है।
दूसरी ओर, उच्च शिक्षा में सरकार द्वारा खर्च कम होने पर, पिछले कई दशकों से ज्यादातर नए कॉलेज में निजी कॉलेज की संख्या ज्यादा रही है। इसके लिए शिक्षा के बजट को बढ़ाने की सख्त्त जरूरत है। पिछले दशक में शिक्षा का कुल बजट बहुत निराशाजनक रहा है।
मेडिकल शिक्षा के लिए यूक्रेन जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि भारत में मेडिकल में दाखिला मिलना बहुत मुश्किल है। सरकारी कॉलेजों में सीटों की मारामारी है, निजी कॉलेज में फीस ज्यादा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)