भीड़ को नहीं दी जा सकती किसी भी अपराध के आरोपित को सजा देने की अनुमति
अपराध के आरोपित को सजा देने की अनुमति
राजीव सचान। पंजाब में श्री गुरुग्रंथ साहिब और सिख धर्म के अन्य प्रतीकों से बेअदबी एक बेहद संवेदनशील मामला है। इस तरह की घटनाएं सिख समाज को केवल उद्वेलित ही नहीं करतीं, बल्कि उनमें असुरक्षा की भावना भी जगाती हैं। इसी कारण ऐसी घटनाएं बड़ा मुद्दा बनती हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में बेअदबी के मामलों ने इतना तूल पकड़ा कि शिरोमणि अकाली दल को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। इस बार भी अमृतसर और कपूरथला के बेअदबी के मामले मुद्दा बन जाएं तो हैरानी नहीं, क्योंकि ये घटनाएं ऐसे समय सामने आई हैं, जब पंजाब चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे वक्त बेअदबी की घटनाएं किसी साजिश की ओर संकेत करती हैं। जितनी जरूरत इस साजिश की तह तक जाने की है, उतनी ही इस तरह की घटनाओं को रोकने की भी। यह काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, क्योंकि पंजाब के सांप्रदायिक माहौल को खतरा पहुंचने का अंदेशा है। इस अंदेशे को हर हाल में दूर किया जाना चाहिए। इसी के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बेअदबी के आरोपित उस तरह भीड़ के हाथों पीट-पीट कर न मारे जाएं, जैसे अमृतसर और कपूरथला में मार दिए गए।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि अमृतसर और कपूरथला में जिन लोगों ने बेअदबी के आरोपितों की पीट-पीटकर हत्या कर दी, उनकी गिरफ्तारी हो सकेगी। इसका एक कारण तो पुलिस का रवैया है और दूसरा, पंजाब में किसी दल की ओर से पीट-पीट कर हत्या के खिलाफ आवाज न उठाना है। उलटे कुछ लोगों की ओर से यह कहा जा रहा है जो किया गया, वही सही था। पंजाब में कुछ इसी तरह का माहौल तब भी था, जब कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान दिल्ली-हरियाणा सीमा पर बेअदबी के आरोप में लखबीर सिंह को बेरहमी के साथ मार डाला गया था। उसके हत्यारों की तो गिरफ्तारी हो गई थी, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित है कि क्या अमृतसर और कपूरथला में बेअदबी के आरोपितों को पीट-पीट कर मारने वाले भी गिरफ्तार होंगे? यदि किसी कारण ऐसा नहीं होता तो कानून के शासन की भी बेअदबी होगी और भीड़ की हिंसा भी बेलगाम होगी।
भीड़ की हिंसा का यह पहला मामला नहीं। देश भर में ऐसी घटनाएं रह-रह कर होती ही रहती हैं। कभी-कभी ऐसी घटनाओं के मूल में धार्मिक भावनाओं को आहत करना भी होता है। कभी कोई चोर भीड़ के हत्थे चढ़ जाता है तो वह भी मार दिया जाता है। कपूरथला में मारे गए व्यक्ति के बारे में यह कहा जा रहा है कि वह रोटियां चुराने की कोशिश कर रहा था। पता नहीं सच क्या है, लेकिन चोरी के संदेह में कई निदरेष भीड़ की हिंसा के शिकार हो चुके हैं। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में कई लोग बच्चा चोरी करने के संदेह में मारे जा चुके हैं। कभी-कभी भीड़ की हिंसा के मामले बहुत तूल पकड़ते हैं और वे राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुर्खियां बनते हैं। यह बहुत कुछ घटना की प्रकृति पर निर्भर करता है और इस पर भी कि भीड़ के हाथों मरने वाला कौन है? अगर ऐसा कोई अभागा अल्पसंख्यक समुदाय का होता है तो भीड़ के हाथों उसकी मौत को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाता है। उसकी हत्या को देश में बढ़ती असहिष्णुता के तौर पर देखा जाता है और हिंदुस्तान को लिंचिस्तान वगैरह करार दिया जाता है। दादरी में गोहत्या के आरोपित अखलाक की हत्या के बाद ऐसा ही किया गया था। इसी तरह राजस्थान के पहलू खान और हरियाणा के जुनैद के मामले में भी यही काम किया गया।
झारखंड में चोरी के आरोप में पकड़े और फिर पीट-पीट कर मार दिए गए तबरेज अंसारी को भी कोई भूल नहीं सकता, लेकिन आखिर कौन जानता है मूदबिदरी (कर्नाटक) के प्रशांत पुजारी को, मथुरा के भरत यादव को, बाड़मेर के खेताराम भील को, पूर्णिया के दिनेश राय को, हाथरस के अमित गौतम को या फिर दिल्ली के राहुल को। इनमें से कुछ दलित थे, फिर भी कहीं कोई रोष-आक्रोश देखने को नहीं मिला। ऐसा क्यों होता है, इसका ठीक-ठीक आकलन करना कठिन है, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि भीड़ की हिंसा के कुछ मामलों में एक एजेंडे के तहत आसमान सिर पर उठा लिया जाता है और ऐसे ही दूसरे मामलों में मौन साध लिया जाता है। इस सिलसिले को रोकना मुश्किल है, क्योंकि कुछ एजेंडाधारी हमेशा यह देखकर ही प्रतिक्रिया व्यक्तकरते हैं कि मरने वाला कौन है और उसने किसके हाथों जान गंवाई? इनका कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन कानून के शासन की रक्षा के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि चाहे जैसी हिंसा हो और उसे चाहे जिसने अंजाम दिया हो, उसके खिलाफ कानूनसम्मत सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।
भीड़ को कानून हाथ में लेने और किसी भी अपराध के आरोपित को सजा देने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यदि ऐसा नहीं होता तो कानून का राज जंगलराज में तब्दील होता दिखेगा और यह सभ्य समाज के लिए एक बड़ा खतरा होगा। चूंकि भीड़ की हिंसा के कुछ मामलों में अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं होती और पुलिस भी अपना काम सही तरह करती नहीं दिखती, इसलिए उच्चतर न्यायपालिका को ऐसे मामलों का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। अपने देश में धार्मिक भावनाओं को आहत करने वालों के खिलाफ कानून है और इस अपराध में शामिल लोगों को तीन साल तक सजा भी हो सकती है, लेकिन इधर कुछ धार्मिक संगठन ईशनिंदा के आरोपितों को उम्रकैद और कुछ मौत की सजा देने वाला कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। ऐसा कोई कानून तो हिंदुस्तान को पाकिस्तान के रास्ते पर ही ले जाएगा।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)