हिजाब विवाद : संस्थान के कानूनों के ऊपर व्यक्तिगत अधिकार के वर्चस्व की मांग बेहद हैरान करने वाली बात है

हिजाब विवाद

Update: 2022-03-19 08:30 GMT
संदीपन शर्मा।
कॉलेजों में हिजाब (Hijab) के इस्तेमाल को लेकर चल रही बहस अलग-अलग तरह के तर्क-वितर्क में डूब गई है. इसके पक्ष में तर्क देने वालों ने मुख्य रूप से धार्मिक पहचान व्यक्त करने की स्वतंत्रता (Freedom to Express Religious Identity) के साथ इसकी तुलना की है, वहीं कुछ अन्य ने कहा है कि हिजाब पहनने वालों को संस्थान में प्रवेश से वंचित करना उनके शिक्षा पाने के अधिकार (Right to Education) का उल्लंघन है, वहीं एक मत ये भी आ रहा है कि किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी महिला को यह बताएं कि उसे क्या पहनना चाहिए. हिजाब के आलोचकों ने इस पर प्रतिबंध लगाने के दो कारण बताए हैं – एक तो यह कि ये पुरुषवाद का प्रतीक है, और दूसरा यह कि ये मुसलमानों को एकतरफा रियायत देता है. लेकिन, ये सभी तर्क मूल मुद्दे से चूक जाते हैं जो ये है कि – क्या किसी संस्था के नियमों की सीमा को लांघ कर धार्मिक अधिकारों को लागू किया जा सकता है?
भारतीय संविधान में धर्म का पालन करने का अधिकार हर नागरिक को दिया गया है. लेकिन, यह अधिकार कई प्रतिबंधों और सार्वजनिक नैतिकता के अधीन आते हैं. उनमें से एक यह है कि व्यक्तिगत अधिकार किसी संस्थान के नियमों और विनियमों की रेखा को लांघ नहीं सकते, खासकर अगर यह कॉलेज जैसा कोई सार्वजनिक स्थान हो तो. यदि संस्थान हिजाब या भगवा शॉल जैसे धार्मिक पहचान के प्रतीकों को प्रतिबंधित करता है, तो इन नियमों का पालन करना ही होगा. कॉलेज में हिजाब पहनने पर जोर देने वालों के लिए एक आसान रास्ता फिर यही बचता है कि यदि आपको संस्थान का ड्रेस कोड पसंद नहीं है, तो पढ़ाई के लिए कोई दूसरी जगह देख लें.
ड्रेस कोड संस्थान में एकरूपता सुनिश्चित करता है
सार्वजनिक स्थान धर्मनिरपेक्ष होने के लिए हैं, ऐसे में धर्म को उनसे दूर रखना ही होगा. सार्वजनिक संस्थानों में अपनी धार्मिक पहचान पहनने के अधिकार की मांग करने वाले न केवल उस स्थान के मौजूदा नियमों का, बल्कि इसे बनाए रखने के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की भावना का भी उल्लंघन करते हैं. शिक्षण संस्थान में ड्रेस कोड या यूनिफॉर्म लगाने के पीछे की भावना कक्षा में एकरूपता सुनिश्चित करने और वर्ग या जाति के विभाजन को मिटाने की होती है. इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संस्थान में सभी छात्र समान दिखाई दें, भले ही बाहर उनका स्तर एक जैसा न हो.
हम एक ऐसे समाज में जबरन एकरूपता के विचार की निरर्थकता पर बहस कर सकते हैं जो न तो समान है और न ही समरूप है. कई अन्य देशों की तरह, इस तरह एक नियम के तौर पर लगाए गए कोड को खत्म करने पर समाज की वास्तविकता और विविधता सामने आती है. लेकिन अगर संस्थान में कोई संहिता लगाई जाती है तो धर्म के आधार पर रियायतें मांगे बिना अक्षरशः इसका पालन करना होगा. यह न केवल हिजाब या भगवा शॉल पर बल्कि हर उस आइटम पर लागू होता है जो संहिता का उल्लंघन करती है.
विवादास्पद चित्रकार एमएफ हुसैन एक बार मुंबई (तब बॉम्बे) के एक क्लब में नंगे पांव प्रवेश करना चाहते थे. उनका तर्क था कि उन्हें अपनी पसंद से पहनने ओढ़ने की स्वतंत्रता है. लेकिन क्लब के उन नियमों का हवाला देते हुए उन्हें प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, जो आंगतुक को उचित जूते के बिना प्रवेश की अनुमति नहीं देते थे. हालांकि, वहीं हुसैन न्यूयॉर्क या लंदन में कभी भी स्मार्ट बूट के बिना घूमते हुए नहीं दिखे होंगे. लेकिन, भारत में उन्होंने अपने अधिकारों का हनन होने का दावा करके हंगामा खड़ा कर दिया.
हिजाब दरअसल इस्लाम की विकृति है
हिजाब पहनने के अधिकार पर विवाद का स्वर भी कुछ ऐसा ही है. यह किसी संस्थान के कानूनों को किसी व्यक्ति के अधिकारों के अधीन बनाने की अपमानजनक मांग है, जो कभी-कभी तर्कहीन और अनुचित होते हैं. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे वकील काले कोट की जगह शॉर्ट्स में अदालत में पेश होने का अधिकार मांगें या पायलट तब तक उड़ान भरने से इनकार करते रहें जब तक उन्हें अपनी इच्छानुसार कपड़े पहनने की आजादी नहीं दी जाती.
जो लोग कॉलेजों और स्कूलों में हिजाब पहनने के अधिकार पर जोर देते हैं, वे एक बुनियादी सवाल को नजरअंदाज कर देते हैं: क्या इस्लाम के अभ्यास के लिए हिजाब जरूरी है. लेकिन, ऐसा नहीं है. जैसा कि हमारे सहयोगी एम हसन का तर्क है कि इस्लाम केवल एक पर्दे का उल्लेख करता है, न कि हिजाब का. कर्नाटक में कॉलेजों के लिए पहना जाने वाला हिजाब दरअसल इस्लाम की विकृति है. यह वहाबी संस्कृति का एक अवशेष है जो तालिबान जैसे अत्याचारी शासन के प्रभाव में आकर इस्लाम में व्याप्त है.
जो लोग हिजाब के पक्ष में हैं, वे सिखों द्वारा पहनी जाने वाली पगड़ी का तर्क देते हैं. लेकिन, जैसा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश आरएस सोढ़ी तर्क देते हैं कि ये अवधारणा भी सही नहीं है. उनका तर्क है कि सिख धर्म का पालन करने के लिए पगड़ी भी आवश्यक नहीं है. गुरु गोबिंद सिंह ने सिखों के लिए जो पांच 'क' निर्धारित किए थे, उसमें पगड़ी का उल्लेख नहीं है. और, यदि सिखों के लिए पगड़ी आवश्यक भी होती, तो उसे पहनने का पूर्ण अधिकार देने की बजाय इसे किसी संस्था के कानूनों और नियमों के दायरे के अधीन ही रखा जाता.
महिलाओं को इस विकृति के खिलाफ विद्रोह करने की जरूरत है
भारतीय संविधान सभी को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देता है. यह उनके मौलिक अधिकारों का हिस्सा है. लेकिन, यह स्वतंत्रता एक व्यक्ति और उनके अराध्य के बीच एक अनुबंध के रूप में धर्म की अवधारणा पर आधारित है. यह दावा करके इसे बदला नहीं जा सकता कि यह स्वतंत्रता किसी व्यक्ति और संस्था के बीच के अनुबंध के रूप में लागू होनी चाहिए या किसी गैर-धार्मिक स्थान के चरित्र को बदलकर उसे विचारधाराओं की प्रतिस्पर्धा की जगह बना देना चाहिए. संविधान कहता है कि एक व्यक्ति धार्मिक हो सकता है, लेकिन देश और उसके संस्थान ऐसा नहीं कर सकते.
कई राज्य सरकारों ने सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस जैसे सांस्कृतिक संगठन से इसी तर्क के आधार पर ही बाहर रखा हुआ है. संक्षेप में, हिजाब पहनने की जिद उस हर चीज का उल्लंघन करती है जिसमें संस्था के कानून, एक ड्रेस कोड का विचार, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा और यहां तक कि इस्लाम में बताई पर्दा प्रथा भी शामिल हैं.
भारतीय समाज में हिजाब का केवल एक ही स्थान है. कट्टरवादी, नास्तिक मुसलमानों के घर – जो इस्लाम के कुछ विकृत संस्करण के आधार पर अपनी महिलाओं को पुरुषों की नजर से बचाना चाहते हैं. इस तरह की मानसिक, शारीरिक और धार्मिक अधीनता झेल रहीं महिलाओं को इस विकृति के खिलाफ विद्रोह करने की जरूरत है. लेकिन, जब तक वे ऐसा नहीं कर पातीं, तब तक हिजाब को भारतीयों की नजरों से दूर रखा जाना चाहिए, कम से कम उन स्कूलों, कॉलेजों और संस्थानों, में जहां एक निर्धारित ड्रेस कोड लागू किया गया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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