अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने का मजा ही कुछ और है, जैसे किशोर यानी 'दादा' पर
अगर बेटा पिता से कहे कि एक दिन वह घर से भाग जाएगा या मां से कहे कि मुझे दस हजार रु. दो और मैं अपनी जिंदगी खुद बनाऊंगा
एन. रघुरामन का कॉलम:
अगर बेटा पिता से कहे कि एक दिन वह घर से भाग जाएगा या मां से कहे कि मुझे दस हजार रु. दो और मैं अपनी जिंदगी खुद बनाऊंगा। ऐसे में उस लड़के के बारे में आप क्या राय बनाएंगे? आपका तो नहीं पता, पर मैं जरूर नि:शब्द रह जाऊंगा। ऊपर से आप क्या सोचेंगे अगर वो अपनी बीकॉम की फाइनल परीक्षा में शामिल होने से पहले कहे कि 'हांगकांग में होने वाले अंतरराष्ट्रीय खेलों में शामिल होने का मौका मुझे फिर नहीं मिलेगा, परीक्षाएं तो हर साल होती हैं।
इसलिए मैंने सोचा है कि इस साल पढ़ाई छोड़कर खेल पर ध्यान दूंगा।' अपनी जिंदगी में 27 साल की उम्र तक वह जॉबलैस रहा, पर उसके माता-पिता ने टोकाटाकी नहीं की। वे सिर्फ इतना चाहते थे कि वह उनके साथ दिन बिताए, जो आकांक्षा से भरे हों और उससे बेहतर जगह हों। उसके दादा शंकरलालजी पारेख अजमेर के रईस व्यापारी थे, पर बंगाल में बस गए थे। उसके पिता सोबागमालजी उस समय कॉलेज में थे और उनकी पॉकेटमनी कईयों के वेतन बराबर थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण पारिवारिक बिजनेस डगमगा गया और पिता ने निजी कंपनी में नौकरी कर ली। किशोर कुमार पारेख, जिन्हें जैसलमेर में 'दादा' नाम से जानते हैं, वह चार बच्चों में तीसरे नंबर के थे और अजमेर से 38 किमी दूर बाघसूरी में अपनी मौसी के घर रहकर तीसरी तक पढ़े क्योंकि मौसी की कोई औलाद नहीं थी। बाघसूरी में अच्छी शैक्षणिक सुविधाएं न होने से परिजन उसे वापस कलकत्ता ले गए।
पारिवारिक संपर्कों से वह खिलाड़ियों व रंगकर्मियों के संपर्क में आया और इस तरह खेल में रुचि बढ़ती गई और आखिरकार वह स्विमिंग व रोइंग में बंगाल का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वर्णपदक विजेता रहा, फिर कई अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में खेला। 1982 में ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी रोइंग स्पोर्ट्स में कप्तानी भी की। खेल के अलावा, थिएटर उसका जुनून बना रहा और वह सत्यजीत रे और उनके रंगकर्म से जुड़ा रहा।
हो सकता है पानी के खेल, रंगमंच के ग्लैमर ने मूंगा, बेशकीमती पत्थरों, गहनों के साथ उनका पहला रिश्ता बनाया हो। जैसा बचपन में उसने वादा किया था, जवानी में (1982) दस हजार रु. लेकर घर छोड़ दिया और जैसलमेर में कीमती पत्थरों की दुकान खोली। चूंकि भीषण गर्मी में पर्यटक जैसलमेर नहीं आते, 'दादा' ने तय किया कि वह उस समय का इस्तेमाल कराची से सामान लाने के लिए करेंगे।
जब उन्हें वीज़ा नहीं मिला तो वह छुटि्टयों में मनाली चले गए और उस जगह के मोहपाश में बंध गए और फिर हर गर्मियां वहीं बिताने की इच्छा जताई। उन्होंने तुरंत अपने एक दोस्त के भाई के साथ साझेदारी में मनाली में दूसरी दुकान शुरू की। आज 'दादा' अपनी गर्मियां मनाली में बिताते हैं और बाकी नौ महीने जैसलमेर में काम करते हैं। उन्हें पहचानना बहुत आसान है। अगर आप गुजरे जमाने के हॉलीवुड अभिनेता दिवंगत उमर शरीफ को चाहते हैं, और उनसे नहीं मिल सके, तो आपको उनके डुप्लीकेट 'दादा' से मिलना चाहिए!
'तुम बिल्कुल वैसे ही दिखते हो, जैसा मैं जवानी में दिखता था' उदयपुर में 'दादा' से मुलाकात के बाद ये उमर शरीफ के शब्द थे। दो दिन पहले जब मैं उनकी दुकान में गया और उनसे पूछा, 'आपको उमर शरीफ की जवानी की तस्वीर कहां से मिली? तो उन्होंने धीरता से जवाब दिया 'वो उमर नहीं, मैं हूं।' ऐसी समानता! मैं ऐसे चंद लोगों को ही जानता हूं, जो अपने ख्वाबों की जिंदगी जीते हैं और 'दादा' निश्चित रूप से उनमें से एक हैं।
फंडा यह है कि अगर आपको चुनने का मौका मिले कि क्या पढ़ना चाहते हैं और किस महीने में किस शहर में रहना चाहते हैं, तो कोई भी आसानी से कहेगा कि राजाओं की तरह जीवन बिताने वाले आप पर ईश्वर की विशेष कृपा है, जैसे किशोर यानी 'दादा' पर।