चीन का चरित्र: नेहरू का तुष्टीकरण और यह नया भारत
लद्दाख के सीमावर्ती पेट्रोलिंग जोन में चीन का काबिज हो जाना चीन के उस अविश्वसनीय चरित्र को दर्शाता है
लद्दाख के सीमावर्ती पेट्रोलिंग जोन में चीन का काबिज हो जाना चीन के उस अविश्वसनीय चरित्र को दर्शाता है, जिसका परिणाम कभी नेहरू सरकार ने देखा था। लंबी वार्ताओं के बाद बमुश्किल तमाम वे कुछ क्षेत्रों से वापस गए हैं, लेकिन उनकी भाव-भंगिमा में कमी नहीं आई है। 1962 के बाद लद्दाख की पहाड़ियों पर फिर युद्ध के बादल लगातार बने हुए हैं। अगर 1962 की बात करें, तो ब्रिटिश सत्ता की वापसी के बाद उत्तरी सीमाओं की रक्षा पर भारतीय विमर्श आमूलचूल बदल गया था। नेहरू ने कश्मीर युद्ध के दौरान ही 50,000 सैनिक रिटायर कर घर भेज दिए थे। जब आपके पास शस्त्र नहीं हैं, तो तुष्टीकरण आपकी स्वाभाविक नीति हो जाता है।
आजादी के बाद देश में तब अहिंसक तुष्टीकरणवादियों का राज था। दो सितंबर, 1946 को वायसराय वेवल ने नेहरू जी को वायसराय कौंसिल का सदस्य व प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। जनरल लोकहार्ट ने उनके सामने उत्तरी सीमाओं की सुरक्षा योजना प्रस्तुत की, तो नेहरू बिफर गए, 'बकवास! कोई सुरक्षा योजना नहीं चाहिए। हम अहिंसक देश हैं, हमें कोई खतरा नहीं है। सेना खत्म कर दो। हमारा काम पुलिस से चल जाएगा। ' ब्रिटिश सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कैरो ने आकलन किया था कि तिब्बत की सुरक्षा बेहद आवश्यक है। तिब्बत को स्वायत्तशासी बफर राज्य बनाए रखना ब्रिटिश नीति थी और उसी दृष्टि से उन्होंने शिमला में 1914 का त्रिपक्षीय सीमा समझौता हस्ताक्षरित किया था, जिसे मैकमोहन लाइन के नाम से भी जाना गया।
चीन में अक्तूबर, 1949 में माओ सत्ता में आ गए थे। अक्तूबर, 1950 में चीन कोरिया में अमेरिका के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़ा। साथ ही, उसने तिब्बत पर नियंत्रण के लिए सेना पहले ही रवाना कर दी। वह सेना हमारे अक्साई चिन के एक पुराने अविकसित मार्ग से होते हुए तिब्बत पहुंची। चीनी आक्रमण के जिस मार्ग को विश्व ने जाना, उसे हमने न जानने का नाटक किया। सरदार पटेल ने भारत की तिब्बत नीति पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए सात नवंबर, 1950 को नेहरू को पत्र लिखा, 'हमें पहले कभी तिब्बत सीमा की चिंता नहीं करनी पड़ी। पहली बार यह स्थिति बन रही है, जब हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ सकता है।' देश का दुर्भाग्य कि सरदार पटेल एक माह बाद नहीं रहे।
ब्रिगेडियर दलवी अपनी पुस्तक हिमालयन ब्लंडर में स्टाफ कॉलेज, वेलिंगटन का अपना संस्मरण लिखते हैं, 'अक्तूबर, 1950 की बात है। एक दिन अचानक जनरल लेंटेन उद्विग्न होकर उन लोगों के लेक्चर हॉल में आए और कहा, तुम्हारे नेताओं की अकर्मण्यता के कारण चीन ने भारत के उत्तर में आज एक बड़ा दरवाजा खोल लिया है। तुम्हारी मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी, इसका तुम्हें अंदाजा ही नहीं है।' उसके 12 साल बाद ही ब्रिगेडियर दलवी 1962 युद्ध में चीन के कैदी बन गए थे। अक्साई चिन में बन रही सड़क की फोटो और रिपोर्ट नेहरू को भेजी न गई हो, यह असंभव है। पर नेहरू के लिए तो अक्साई चिन ऐसा पथरीला इलाका था, जहां घास का तिनका तक नहीं उगता। हमारी वायुसेना इतनी सक्षम तो थी ही कि चीन को उस बन रही सड़क का काम रोकना पड़ता। पर वह सड़क बनने दी गई। कारण कि नेहरू चीन को साथ लेकर 'एशिया फॉर एशियंस' अर्थात एशिया एशियावालों के लिए जैसा दिवास्वप्न देख रहे थे। हमारे क्षेत्र से होकर बनाई गई उस सड़क का 1957 में बाकायदा उद्घाटन हुआ। विश्व भर में समाचार फैला, तो हमारे नेतृत्व ने भी चकित होने का नाटक किया।
शीतयुद्ध के उस दौर में दुनिया दो खेमों में बंट रही थी। पाकिस्तान अमेरिकी पैक्ट सेण्टो सीटो में शामिल हो गया और उसे शस्त्रों की आपूर्ति भी प्रारंभ हो गई। हम सपनों में थे। जनरल थिमैया ने अपने रिटायरमेंट पर बड़ी मायूसी से सैनिकों से कहा था, 'कहीं मैं तुम्हें सिर्फ मरने के लिए तो नहीं छोड़कर जा रहा हूं?' और नेहरू थे कि राष्ट्रीय सुरक्षा को हाशिये पर छोड़ 'एशिया एशिया वालों के लिए' जैसे अमूर्त विचार और विश्व शांति की मृग मरीचिका के पीछे दौड़ रहे थे। वर्ष 1962 की भीषण पराजय के बाद हम अकेले पड़ गए। गुटनिरपेक्षता की असलियत सामने आ गई। दलाई लामा अपनी पुस्तक फ्रीडम इन एक्जाइल में लिखते हैं, '1962 के बाद नेहरू ने उनसे स्वयं स्वीकार किया था कि 'मैंने स्वतंत्र एशिया का सपना देखा था। हम मूर्खों की दुनिया में रह रहे थे।' भारत विभाजन, कश्मीर विभाजन, तिब्बत समस्या-ये सब तुष्टीकरण की नीति के परिणाम थे।
चीन से उत्तरी सीमा पर युद्ध की स्थितियां ही न बनतीं, यदि पूर्व की ब्रिटिश तिब्बत नीतियों और शीतयुद्ध के दौर के जमीनी सत्ता-शक्ति के समीकरणों को संतुलित करते हुए राष्ट्रहित के लक्ष्य को प्राथमिकता दी गई होती। गलवान की शहादतों के बाद नया अवतार ले चुकी भारतीय सेना द्वारा 29/30 अगस्त की रात कैलाश रेंज की 30 चोटियों पर एक साथ चढ़ाई कर रणनीतिक पहल को नियंत्रण में ले लेना अकल्पनीय था। हालांकि सैन्य कमांडर स्तरीय वार्ताएं विफल रही हैं। चीन पैंगांग व स्पैंगुर झील क्षेत्र में 50,000 अतिरिक्त सैनिकों के साथ जबरदस्त एयर सपोर्ट, मिसाइलें, रॉकेट इकाइयां, टैंक बढ़ा रहा है। चीनी प्रत्याक्रमण पर भारत से बड़ी प्रतिक्रिया होनी निश्चित है। अभी गोगरा, डेपसांग के समाधान बाकी हैं, लेकिन अब अक्साई चिन के भारतीय अभियान में कोई नीतिगत विराम नहीं है, यह तय है। यह नया भारत नेहरू के तुष्टीकरणवादी आग्रह को धता बताकर बहुत आगे जा चुका है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला