काशीनाथ सिंह की टीचिंग:टीचर और स्टूडेंट के बीच जिंदगी होते हैं पन्ने, बच्चों को बांधे रखना टीचर्स के लिए चुनौती
आज शिक्षक भी नायकों की तरह स्क्रीन पर हैं और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चों को इससे किस तरह जोड़ कर रखा जाए। यह कहना है
अमोल गुप्ते। आज शिक्षक भी नायकों की तरह स्क्रीन पर हैं और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चों को इससे किस तरह जोड़ कर रखा जाए। यह कहना है सिनेमा जगत की खास हस्ती फिल्मकार, अभिनेता व फिल्म 'तारे जमीन पर' के स्क्रीन राइटर अमोल गुप्ते का। वहीं बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर व लेखक काशीनाथ सिंह जिन्हें खुद गुलजार पढ़ते हैं, उनका कहना है कि अध्यापक और छात्र के बीच में किताब के पन्ने नहीं होते, पन्नों में जिंदगी होती है। तो टीचर्स डे पर पढ़िए इन दो हस्तियों के खास आर्टिकल...
थिएटर और सिनेमा की दुनिया जिंदगी का एक अहम सबक हमें सिखाती है। चाहे परदे की दुनिया हो या क्लास का मंच। दोनों ही जगह किरदारों के लिए दर्शकों की रुचि को बनाए रखने की चुनौती होती है। कुछ ऐसी ही भूमिका में आज हमारे शिक्षक हैं। आज शिक्षक भी स्क्रीन पर हैं, नायकों की तरह, लेकिन उनकी भी सबसे बड़ी दुविधा शायद यही है कि किस तरह बच्चों को शिक्षा से जोड़कर रखा जाए।
मैं बचपन की ओर लौटूं…तो याद आता है, वही शिक्षक बच्चों पर सबसे ज्यादा असर छोड़ पाते थे, जो थिएटर की तरह पढ़ाते थे। हमारे जॉनसर सर…गणित पढ़ाते थे। गुरबत में रहते थे…पर उनकी जेब हम बच्चों के लिए कभी खाली नहीं हुई। 35 पैसे की चॉकलेट हमेशा जेब में रहती थी।
जब अच्छे मार्क्स आते तो वही पुरस्कार होती थी। तब 35 पैसे की कीमत का अंदाजा इसी से लगा लीजिए कि तब पांच पैसा बस का भाड़ा होता था। रामशंकर निकुम आर्ट टीचर थे। नामवर सिंह मुझे हिन्दी पढ़ाते थे। फिल्मों में गीत भी लिखते थे। नामवर सर की वजह से ही मेरी साहित्य में रुचि पैदा हुई।
कोरोना काल में शिक्षकों की जिम्मेदारी दोगुनी हो गई है, क्योंकि वे अब वर्चुअल किरदार हो गए हैं। वर्चुअल होने के बावजूद वे खुद को साबित कर रहे हैं। बच्चों को जोड़े रखना…किसी कामयाबी से कम नहीं है। वास्तव में वे पुरस्कार के हकदार हैं। ब्रिटेन में टीचर्स को डॉक्टर्स से ज्यादा तनख्वाह मिलती है। आज कठिन परिस्थिति है, फिर भी शिक्षक बच्चों के हमदर्द बनकर खड़े हैं। वे महसूस कर रहे हैं कि बच्चों की पीड़ा क्या है। शिक्षण की ऐसी भावना भारतीयों में ही हो सकती है।
हमारा शांति निकेतन हमेशा से गुरु-शिष्य परंपरा का आदर्श उदाहरण रहा है। अगर गुरु रविन्द्रनाथ टैगाेर जैसा हो…और उनकी ऊर्जा बेधड़क बच्चों तक पहुंचे तो निश्चित ही वैसा ही सूरज उन बच्चों में भी उगने लगेगा। शिक्षा का स्वरूप ऐसा ही होना चाहिए। अच्छी शिक्षा एक बीज को बोने की तरह है। घास तो सब जगह उग जाती है, लेकिन आम का पेड़ वहीं उगता है, जहां उसका बीज बोया जाता है। उसे धूप देनी पड़ती है। निगरानी रखनी पड़ती है…तब जाकर वह वृक्ष बन पाता है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी भविष्य की फसल इसी तरह मूल्यवान हो तो उसके लिए आज मेहनत करनी ही पड़ेगी। याद रखिए…ताजमहल भी एक रात में नहीं बना था।
शिक्षक और छात्र के बीच सिर्फ किताब के पन्ने नहीं होते हैं, इन पन्नों में जिंदगी होती है, छात्र इनसे ही जीवन संघर्ष सीखते हैं
मुझे अध्यापक जीवन से रिटायर हुए 25 वर्ष हो गए हैं। फिर भी एक शिक्षक के रूप में आपके सामने हूं। हमारे गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी रहे हैं। उन्होंने बाणभट्ट की आत्मकथा में लिखा है कि "न्याय जहां से भी मिले बलपूर्वक खींच लाओ...किसी से भी मत डरना, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं।" वह निर्भय होने की शिक्षा देते थे और असहमति का सम्मान करते थे।
इसी असहमति के सम्मान ने उनके एक विद्यार्थी को आलोचना का शिखर पुरुष नामवर सिंह बनाया। पंडित जी से हमने भी यह सीखा था कि असहमति विरोध नहीं होता, विचारों का द्वंद आगे बढ़ाता है। उन्होंने विद्यार्थियों को कभी विद्यार्थी नहीं समझा, हमेशा मित्र समझा। इसी के परिणाम स्वरूप हमारे कुछ छात्र आज प्रतिष्ठित कवि और कथाकार हैं। जिनमें से मैं दो का उल्लेख कर सकता हूं। कवि दिनेश कुशवाह और कथाकार देवेंद्र। हमारा विकास असहमतियों से हुआ है। आज भी देवेंद्र की कई कहानियां हैं जिनसे मुझे इर्ष्या होती है।
सौभाग्य से मैं ऐसे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था जो स्वायत्तशासित था। यहां पुलिस अथवा कैबिनेट मंत्री को भी विश्वविद्यालय परिसर में आने के पूर्व अनुमति लेनी पड़ती थी। हमें अपने पाठ्यक्रम बनाने की पूरी छूट थी और हम पाठ्यक्रम बनाने में मानवीय मूल्यों का ध्यान रखते थे।
आज विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्देश पर आप को पढ़ाना होगा। पाठ्यक्रम भी वही तय करेगा, यदि प्रेमचंद के स्थान पर किसी और लेखक की रचना पढ़ाने को दी जाए तो ना-नुकुर का सवाल नहीं है। आप को पढ़ाना ही है। यह बराबर ध्यान रखना चाहिए कि अध्यापक और छात्र के बीच में किताब के पन्ने नहीं होते, पन्नों में जिंदगी होती है। हम छात्रों को किताबों के माध्यम से जीवन जीना सिखाते हैं, संघर्ष करना पढ़ाते हैं। तो सारा तालमेल मौजूदा व्यवस्था में घालमेल हो गया है।
शिक्षण संस्थानों की मौजूदा व्यवस्था को तो नीरस नहीं, मनहूस कहो। मैं उदाहरण देकर बताऊं कि मेरे विद्यार्थी जीवन में जाने-माने विद्वान सीताराम चतुर्वेदी के बेटे धर्मशील चतुर्वेदी जिस समय आर्ट्स कॉलेज में आते थे, उनके ठहाकों से आर्ट्स कॉलेज का सारा परिसर गूंज उठता था। आज उस तरह से ठहाका लगाएं तो प्राॅक्टोरियल बोर्ड या पुलिस बुला ली जाएगी। विश्वविद्यालयों के बीच का उल्लास खत्म हो गया है।
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