दुनिया के तीन बड़े साम्राज्यों की नाक नीची करने वाले अफगान क्या पाकिस्तान की ''पंजाबी फौज' के आगे अपनी नाक रगड़ेगें ? कदापि नहीं। पाकिस्तान के नेता, फौजी और इतिहास के विद्वान इन तथ्यों से अनजान नहीं हैं। इसीलिए वे जश्न तो मना रहे हैं लेकिन उनसे पूछिए कि वे कितने पसीने में तर हो गए हैं ? यदि तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली होते तो क्या वजह है कि अभी तक काबुल में नई सरकार शपथ नहीं ले सकी है? पाकिस्तान के हुक्मरानों को डर है कि यदि काबुल में तालिबान की निरंकुश इस्लामी सत्ता कायम हो गई तो वह पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिरदर्द होगा। तालिबान पर पाकिस्तान नहीं, पाकिस्तान पर तालिबान चड्डी गांठेगें। वे उससे पूछेंगे कि सारी दुनिया में इस्लाम के नाम पर बनने वाला अकेला राष्ट्र पाकिस्तान है लेकिन 'ए पंजाबियों, तुम कितने इस्लामी हो?' तालिबान आंदोलन में कई फिरके हैं। 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तान' तो पाकिस्तान के अंदर रह कर उसके खिलाफ कार्रवाई करता रहा है। 1983 में जब पेशावर के जंगलों में मैं पहली बार मुजाहिदीन नेताओं से मिला तो वे कहते थे कि पेशावर तो हम पठानों का है। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उस पर जबरन कब्जा कर रखा है। वे 1893 में अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरेंड सीमा-रेखा को बिल्कुल नहीं मानते।
आज तक किसी भी अफगान सरकार ने उसे मान्यता नहीं दी है बल्कि सरदार दाऊद के प्रधानमंत्री काल में तीन बार पाक-अफगान युद्ध की नौबत आ खड़ी हुई थी। इसीलिए अब पाकिस्तान फूंक-फूंककर कदम रख रहा है। उसकी कोशिश है कि काबुल में अब एक मिली-जुली सरकार कायम हो जाए। उसे पता है कि यदि काबुल में कोहराम मच गया तो लाखों अफगान शरणार्थी उनके यहां घुस आएंगे। उसकी अर्थ-व्यवस्था पहले ही डांवाडोल है। वह संकट में फंस जाएगी। यदि काबुल की सरकार स्थिर और मजबूत हो तो अफगानिस्तान खनिजों का भंडार है। वह दक्षिण एशिया का सबसे मालदार देश बन सकता है। पिछले 40 साल में पहली बार काबुल में अब ऐसी सरकार बन सकती है, जो सचमुच संप्रभु, स्वायत्त और पूर्णरूपेण स्वदेशी हो। यदि काबुल की सत्ता अनुभवहीन, अल्पदृष्टि और संकुचित हाथों में चली गई तो अफगानिस्तान अस्थिरता के गहरे कीचड़ में फिसल सकता है।