बिना बुर्के वाली औरत की कनपटी पर तालिबान की बंदूक
ईरान की पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट मसीह अलीनेजाद ने 15 अगस्त को एक वीडियो ट्विटर पर शेयर किया
मनीषा पांडेय।
काबुल, अगस्त, २०२१। ईरान की पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट मसीह अलीनेजाद ने 15 अगस्त को एक वीडियो ट्विटर पर शेयर किया, जिसमें अफगानिस्तान की फिल्मकार और अफगान फिल्म की डायरेक्टर सहरा करीमी भाग रही हैं और कह रही हैं, "तालिबान शहर में घुस आए हैं. हम लोग भाग रहे हैं. हर कोई डरा हुआ है." मसीह ने आगे लिखा, "ये किसी फिल्म का दृश्य नहीं है. यह इस वक्त काबुल की सच्चाई है. वहां ये हो रहा है."
अभी एक हफ्ते पहले तक काबुल की तस्वीर कुछ और ही थी. अफगानिस्तान के पहले सरकारी फिल्म संस्थान 'अफगान फिल्म' ने 2019 में पहली बार किसी महिला को उस संस्था का महानिदेशक बनाया. सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी करने वाली अफगानिस्तान की पहली महिला सहरा करीमी के निर्देशन में एक हफ्ते पहले काबुल में एक फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया था. अभी डेढ़ महीने पहले कान फिल्म फेस्टिवल में पहली बार अफगानिस्तान से कोई ऐसी फिल्म पहुंची, जो पूरी तरह वहीं बनी और शूट की गई थी. हिजबुल्लाह सुल्तानी की फिल्म कोच-ए-परिंदा (बर्ड स्ट्रीट) फेस्टिवल में सुर्खियों में रही. अफगानिस्तान से ही आई दूसरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'काबुल मेलेडी' भी उस देश की कहानी सुना रही थी कि कैसे तालिबान की धमकी और माता-पिता के विरोध के बावजूद दो लड़कियों ने गाना नहीं छोड़ा.
ये दोनों फिल्में उस मुल्क की कहानी थीं, जिसने दो दशकों से युद्ध की विभीषिका और तालिबान के साए में जीते हुए भी जीवन और सपनों की उम्मीद बचा ली थी.
अभी एक हफ्ते पहले तक जो शहर सिनेमा बना रहा था, गीत गा रहा था, जहां औरतें काम पर जा रही थीं, बच्चे स्कूल के मैदान में दौड़ रहे थे, लोग बेखौफ बर्ड स्ट्रीट पर जाकर चिडि़यों का चहचहाना सुन रहे थे, लड़कियों का पहला अफगानी बैंड गीत गा रहा था, सिनेमाघर भरे हुए थे, नाइट क्लब, रेस्तरां और थिएटर गुलजार थे, वो पूरा शहर अचानक मानो एक विशाल मरुस्थल में तब्दील हो गया है. सड़कें ढीले लबादों में हाथों, कंधों और सीने पर बंदूक और हथियार उठाए तालिबानियों से पट गई हैं. तालिबान कहीं भी, किसी को भी बंदूक की नोंक पर घुटने टेकने को मजबूर कर रहा है. किसी भी वक्त गोली से उड़ा दे रहा है. लोग अपनी जान बचाने के लिए सड़कों पर भाग रहे हैं. काबुल एयरपोर्ट पर बेतहाशा भीड़ जमा है. जो हाथ में आया है, वो लेकर लोग बस किसी तरह उस शहर से निकल जाना चाहते हैं. कितने तो एयरपोर्ट पर खाली हाथ ही चले आए हैं. वो सबकुछ पीछे छोड़कर, जिसे जाने कितने बरसों में कितने जतन से संजोया होगा. घर, जमीन, जीवन, यादें सबकुछ.
मसीह अलीनेजाद लिखती हैं, "लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हैं. यह देखकर दिल टूटा जा रहा है कि दुनिया कुछ भी नहीं कर रही."
दिल्ली, जनवरी, 2012
लंबे समय तक एक इंटरनेशनल न्यूज एजेंसी के लिए काम करती रही एक पत्रकार दोस्त दो साल काबुल में बिताकर लौटी थी. उसके लौटने की खबर पर हमने फरमाइश की कि एक अफगानी बुर्का ले आना. वो नीले रंग का एक बुर्का अपने सामानों से भरे सूटकेस में साथ लेकर लौटी, जो एक ढीले-ढाले लबादे की तरह था. उसे सिर से पहनना होता था. ऊपर का हिस्सा सिर पर टोपी की तरह फिट हो जाता और पूरे शरीर को ढंक लेता. चेहरे वाले हिस्से में बस इतनी जालियां थीं कि नाक को सांस आती रहे और आंखों को इतना रास्ता दिखाई दे कि पांव किसी पत्थर से ठोकर न खाएं.
वो रंगीन बुर्का हमारे जीवन का सच नहीं था. न बंधन, न मजबूरी, न दबाव. वो हमारे लिए मजे की चीज थी, जिसे पहनकर हमने फोटो खिंचाई और उसके साथ मौज-मस्ती करते रहे. फिर अफगानिस्तान यात्रा की निशानी की तरह उस बुर्के को आलमारी में अपना एक मुकम्मल कोना मिल गया. साल में कभी-कभार वो उस देश की स्मृति की तरह आलमारी बाहर निकलता. उससे जुड़ी कहानियां सुनाई जातीं. काबुल के उस बाजार के किस्से सुनाए जाते, जहां से उस दोस्त ने वो बुर्का खरीदा था.
आज तकरीबन एक दशक बाद काबुल के बाजार से खरीदे गए उस नीले जालीदार बुर्के की कहानी इसलिए भी याद आ रही है क्योंकि अभी चंद घंटे पहले ये खबर आई है कि काबुल एयरपोर्ट पर बिना बुर्के और हिजाब के पहुंची महिलाओं को तालिबान ने गोली मार दी. जिस कपड़े के टुकड़े को हमने मौज में पहना, आज उसी के लिए काबुल की सड़क पर सरेआम एक औरत को तालिबान ने मार डाला. अब वो औरतों की कनपटी पर बंदूक रखकर उन्हें वो जाली वाला बुर्का पहनने के लिए मजबूर करेंगे.
सरहा करीमी
दो दिन पहले जब तालिबान ने कांधार को अपने कब्जे में ले लिया तो वहां के सबसे बड़े बैंक अजीजी बैंक में घुसकर तालिबानियों ने वहां काम कर रही नौ महिलाओं को बंदूक की नोक पर वहां से बाहर निकाल दिया. बंदूकधारी तालिबान उन्हें घर छोड़कर आए और कहा कि अब बैंक वापस आने की जरूरत नहीं है. उनकी जगह उनके घर के मर्द अब काम पर जाएंगे.
सहरा करीमी ने ट्विटर पर बहुत मार्मिक और दिल तोड़ देने वाली चिट्ठी शेयर की है. दुनिया से अपील की है कि वो उनकी मदद करें. सहरा लिखती हैं, "ये दुनिया मेरी समझ में नहीं आती. मैं इस चुप्पी को नहीं समझ पा रही. मैं खड़ी होऊंगी और अपने देश के लिए लड़ूंगी, लेकिन मैं अकेले ये नहीं कर सकती. मुझे आप जैसे लोगों की मदद की जरूरत है. आप ये संदेश दुनिया तक पहुंचाने में हमारी मदद करें कि यहां क्या हो रहा है. अपने-अपने देशों के प्रमुख मीडिया संस्थानों को ये बताने में हमारी मदद करें कि अफगानिस्तान में क्या हो रहा है. आप अफगानिस्तान के बाहर हमारी आवाज बनें. यदि तालिबान काबुल पर कब्जा कर लिया तो इंटरनेट या कम्युनिकेशन का कोई भी माध्यम हम तक नहीं पहुंच पाएगा. सब बंद हो जाएगा."
सहरा ने उस चिट्ठी में ऐसी-ऐसी बातें लिखी हैं, जो शायद किसी आम नागरिक के लिए अजूबी जानकारी भी हो सकती है. अफगानिस्तान की जो छवि पॉपुलर मीडिया ने हमारे दिमागों में बना रखी है, उसे देखकर हमें लगता है कि पूरा अफगानिस्तान ही कूढ़मगज, सामंती और पुरातनपंथी होगा. यह सच होने के बावजूद पूरा सच नहीं है. यह तथ्य है कि पिछले दो दशकों में तालिबान ने अफगानिस्तान के बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में लेकर शरीया कानून और इस्लामिक राज स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन अब तक काबुल, कांधार, हेरात और कई बड़े शहरों में स्थितियां उलट थीं.
काबुल की सड़कों पर तालिबान का कब्जा. फोटो: PTIशैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में बड़ी संख्या में महिलाओं की हिस्सेदारी थी. अपने खुले खत में सहरा करीमी लिखती हैं कि तालिबान जब सत्ता में आया तो स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या जीरो थी. उन्होंने सारी लड़कियों को स्कूलों से निकाल दिया और स्कूलों की इमारतें तोड़ डालीं. लेकिन तब से लेकर अब तक काफी बदलाव आया है. अफगान सरकार ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत काम किया. आज 90 लाख से ज्यादा लड़कियां स्कूल जाती हैं. तालिबान ने जिस तीसरे सबसे बड़े शहर हेरात पर कब्जा किया है, वहां की यूनिवर्सिटी में 50 फीसदी महिलाएं हैं.
ये सब ऐसी अविश्वसनीय उपलब्धियां हैं, जिनके बारे में दुनिया कुछ नहीं जानती. लेकिन अब पिछले कुछ हफ्ते के भीतर ही तालिबान ने वापस स्कूलों को तबाह कर दिया है, 20 लाख से ज्यादा लड़कियों को वापस घरों में कैद कर दिया है. पिछले 20 सालों में हम लोगों ने जो कुछ भी हासिल किया, वो सब तबाह हो रहा है.
सराह लिखती हैं कि तालिबान ने कत्लेआम मचा रखा है. बच्चों का अपहरण कर रहा है. छोटी-छोटी बच्चियों की तालिबान लीडरों को बेच रहा है. उन्होंने एक महिला की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उन्हें उसकी पोशाक पसंद नहीं आई. उन्होंने एक कवि की हत्या कर दी. सरकार के कल्चर और मीडिया हेड को मार डाला. सरकार से जुड़े अनेकों लोगों की हत्या की. अनगिनत लोगों को सरेआम फांसी पर लटका दिया.
काबुल की सड़कों पर तालिबान का कब्जा.
सराह लिखती हैं, "मैंने बतौर एक फिल्म निर्माता अपने देश में जिस चीज को बनाने और हासिल करने के लिए इतनी मेहनत की, वो सब टूटने और तबाह हो जाने की कगार पर है. अगर तालिबान के हाथों में सत्ता आ जाती है तो वे सभी कलाओं पर पाबंदी लगा देंगे. मैं और अन्य फिल्म निर्माता उनकी हिट लिस्ट के अगले नाम हो सकते हैं. वे औरतों के अधिकारों का दमन करेंगे और हमारी अभिव्यक्ति की आजादी को कुचल देंगे. हमें चुप करा दिया जाएगा."
लोकतंत्र, आजादी और बराबरी की राह छोड़कर धर्म का रास्ता अपनाने वाले मुल्क में औरतों का क्या हाल होता है, ये समझने के लिए कल्पनाशक्ति की जरूरत नहीं है. सिर्फ इतिहास पर एक नजर डालना काफी होगा. 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान किस तरह महिलाओं के लिए एक बड़े कारागार में तब्दील हो गया. कमाल अतातुर्क का तुर्की, जो पूरे मिडिल ईस्ट में औरतों के लिए शैक्षिक संस्थानों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक के दरवाजे खोलने वाला पहला इस्लाम बहुत देश था, जो दुनिया का इकलौता ऐसा इस्लामिक देश था, जहां सलमान रूश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज प्रतिबंधित नहीं हुई थी (जबकि भारत तक में वो किताब प्रतिबंधित थी), वहां कैसे धीरे-धीरे औरतों की आजादी और अधिकारों को कुचला जा रहा है. पूरी बेशर्मी के साथ तुर्की इस्तांबुल कन्वेंशन से बाहर निकल गया और उसे शर्म भी नहीं आई.
अफगानिस्तान भले हिंदुस्तान न हो, लेकिन हिंदुस्तान से बहुत दूर भी नहीं है. पड़ोस में कहीं भी बंदूकें चलेगी तो आवाज घर तक भी आएगी ही.