बोर्ड परीक्षा पर सुप्रीम कोर्ट: जिंदगी को 'ऑफलाइन' करना ही होगा
बोर्ड परीक्षा पर सुप्रीम कोर्ट
कोरोना की लगातार तीन लहरों ने जिस तरह लोगों की जिंदगी को ऑनलाइन कर दिया है उसके दुष्परिणाम अब धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं. बाहरी दुनिया से कटकर अपने घर तक ही सीमित रह जाने के कारण अवसाद के अलावा अन्य तरह की स्वास्थ्यगत समस्याएं लोगों में उभर रही हैं. और इसमें भी सबसे ज्यादा नुकसान शिक्षा व्यवस्था और छात्रों को उठाना पड़ा है. ऑनलाइन पढ़ाई से लेकर ऑनलाइन परीक्षा तक ने छात्रों की मानसिकता में कई तरह के बदलाव किए हैं.
ऐसे में हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के इस दो टूक फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए कि 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं इस बार ऑफलाइन ही होंगी. शीर्ष अदालत में वकील और बाल अधिकार कार्यकर्ता अनुभा सहाय श्रीवास्तव ने याचिका दायर कर मांग की थी कि चूंकि कोविड परिस्थतियों के चलते सामान्य कक्षाएं नहीं लगी हैं इसलिए छात्रों की परीक्षाएं भी ऑफलाइन के बजाय ऑनलाइन ही होनी चाहिए. याचिकाकर्ता का कहना था कि सभी बोर्डों की ऑफलाइन परीक्षाएं रद्द करते हुए इनका आयोजन ऑनलाइन हो और उसके परिणाम भी समय पर घोषित किए जाएं.
लेकिन कोर्ट ने इस मामले में बहुत स्पष्ट और सख्त रुख अपनाते हुए इस याचिका को खारिज कर दिया. उसने परीक्षाएं आयोजित करने वाली संस्थाओं से अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही आगे बढ़ने को कहते हुए यह भी साफ कर दिया है कि वह इस मामले में कोई दखल नहीं देगा. परीक्षाओं के बारे में अंतिम फैसला संबंधित परीक्षा बोर्ड या एजेंसियां ही करेंगी.
इतना ही नहीं कोर्ट ने इस तरह की याचिका लगाए जाने पर भी अप्रसन्नता जाहिर की. उसने कहा कि इस तरह गैर जिम्मेदाराना ढंग से दायर की गई याचिकाएं जनहित याचिका का दुरुपयोग हैं. ऐसे प्रयास होने से व्यवस्था को लेकर लोगों में भ्रम पैदा होता है जो ठीक नहीं. ऐसी याचिका झूठी उम्मीद जगाने के साथ-साथ लोगों को भ्रम का शिकार बनाती है और कोर्ट ऐसी किसी भी बात को आगे नहीं बढ़ा सकता.
दरअसल कोरोना काल में पढ़ाई और परीक्षाओं का मामला शुरू से ही विवादों में रहा है. एक वर्ग ऐसा है जो सरकार पर ऑफलाइन पढ़ाई के लिए दबाव डालता रहा है तो दूसरी ओर वह वर्ग है जो छात्रों के स्वास्थ्य को देखते हुए ऑनलाइन तरीके पर जोर देता रहा है. लेकिन इन दोनों धारणाओं के बीच छात्रों के साथ-साथ अभिभावकों में भी कहीं न कहीं यह मनोवृत्ति घर करने लगी है कि एक साल और बिना पढ़ाई या सीधी परीक्षा के निकल जाएगा और वे ऑफलाइन परीक्षा का सामना करने से बच जाएंगे.
इस तरह की सोच रखने वालों में ज्यादातर संख्या उन लोगों की है जो येन केन प्रकारेण पास भर होना चाहते हैं. लेकिन दूसरी तरफ बड़ी संख्या में वे बच्चे भी हैं जो इस तरीके को अपने भविष्य के लिए खतरनाक और हानिकर मानते हुए इस बात पर जोर देते रहे हैं कि परीक्षा ऐसी हो जो सही मायनों में उनकी पढ़ाई की योग्यता और प्रतिभा का सम्यक मूल्यांकन कर सके. ऑनलाइन परीक्षाओं में या जनरल प्रमोशन की स्थिति में इस तरह का मूल्यांकन वस्तुपरक यानी ऑब्जेक्टिव तरीके से नहीं हो पाता.
ऑनलाइन परीक्षा एक तरह से ओपन बुक परीक्षा होती है और छात्रों के पास सवालों के जवाब किताब देखकर देने या गूगल आदि से सर्च करके जवाब खोजने की सुविधा रहती है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि किस छात्र ने सवालों का हल अपनी खुद की पढ़ाई और मेहनत से निकाला है और किसने किताब देखकर या गूगल सर्च करके वह उत्तर खोजा है.
ऐसा नहीं है कि इस स्थिति को लेकर छात्रों के बीच कोई मानसिक उलझन न पैदा हुई हो. मैं स्वयं इन दिनों जनसंचार शिक्षा से अस्थायी रूप से जुड़ा हूं. पिछले दिनों छात्रों की वार्षिक परीक्षा के दौरान मैंने जब उनसे पूछा कि ऑनलाइन परीक्षा का उनका अनुभव कैसा रहा तो कुछ देर तो कोई कुछ नहीं बोला लेकिन एक छात्र ने हिम्मत करके खुलकर अपनी बात रखते हुए कहा कि सर 70 प्रतिशत सवाल तो हमने चीटिंग करके हल किए. तभी दूसरे ने कहा कि 70 ही नहीं सौ फीसदी सवाल देखकर ही हल किए. लेकिन इसके बाद एक छात्रा ने जो कहा वो चौंकाने वाला था. उसने बताया कि अब हालत ये हो गई है कि हमें अपने स्तर पर उन सवालों के जवाब आते भी हैं तो भी हम मन से लिखने के बजाय किताब में से देखकर उनका जवाब दे रहे हैं.
हालांकि कक्षा के सारे छात्रों ने इस विषय पर बात नहीं की, कुछ या तो चुप रहे और कुछ ने अपने इन साथियों से सहमति जताई. लेकिन उस बातचीत से एक बात जरूर उभर कर आई कि इस तरह होने वाली परीक्षाओं को लेकर छात्रों के मन में ही एक अफसोस या अपराध भाव पनप रहा है. यह बात उन्हें कचोट रही है कि वे किताब देखकर या अन्य कहीं से उत्तर खोजकर प्रश्नपत्र हल कर रहे हैं न कि अपनी प्रतिभा के बल पर. इस तरह की 'सुविधा' मिल जाने के बावजूद छात्रों का कहना था कि परीक्षा तो वैसी ही होनी चाहिए जैसे वह होती आई है.
इसका मतलब साफ है कि अपवादों या चोर गली से किसी तरह पास हो जाने की मंशा रखने वाले कुछ लोगों को छोड़ दें तो मोटे तौर पर छात्रों को भी इस बात का अहसास है कि जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है और यह उनके भविष्य के लिए दिक्कत पैदा करेगा. कुछ छात्रों ने तो यह तक कह डाला कि आज तो हम जनरल प्रमोशन से या किताब देखकर पास हो गए लेकिन पता नहीं नौकरी के लिए इंटरव्यू देते समय हमारी इस पढ़ाई को किस नजरिये से देखा जाएगा. हमें अवसर देते समय हमारी प्रतिभा और योग्यता को पता नहीं किस तरह तौला जाएगा.
छात्रों के मन की यह दुविधा बताती है कि वे इन दिनों किस मनोदशा से गुजर रहे हैं. हालांकि एक तरह से यह अच्छा संकेत है कि अभी भी बच्चों के मन में यह बेईमानी का भाव स्थायी नहीं हुआ है कि बिना पढ़े ही वे पास हो जाएं. वे चाहते हैं कि पढ़ें और पढ़ाई के आधार पर ही परीक्षा भी दें. लेकिन यह भाव कितने दिन रहेगा कहा नहीं जा सकता. यह भी तय है कि वर्तमान परिस्थिति जितनी लंबी खिंचेगी छात्र मनोवैज्ञानिक रूप से और अधिक टूटेंगे या कमजोर होंगे.
ऐसे में जरूरी है कि कोरोना की तीसरी लहर के उतार पर आने की स्थति को देखते हुए जिंदगी की गाड़ी को भी पटरी पर लाकर उसे सामान्य बनाया जाए. इसमें क्लासरूम पढ़ाई और परीक्षाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं. इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वागत योग्य भी है और दूरदर्शितापूर्ण भी. जिंदगी ने ऑनलाइन बहुत जी लिया, अब उसे फिर से ऑफलाइन आना ही चाहिए.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
गिरीश उपाध्याय पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.