बिसरती परंपराओं का सूर्योदय
लोक जीवन की विरासतीय परंपराओं में कभी पूरा सामाजिक आचार-विचार रसा बसा हुआ करता था। कालांतर में कालचक्र के पहिए ने भले उसकी दशा-दिशा बदल दी, लेकिन मानव मन के अंत:स्थल में जमी वह परत आज भी करवट ले ही लेती है।
अशोक कुमार; लोक जीवन की विरासतीय परंपराओं में कभी पूरा सामाजिक आचार-विचार रसा बसा हुआ करता था। कालांतर में कालचक्र के पहिए ने भले उसकी दशा-दिशा बदल दी, लेकिन मानव मन के अंत:स्थल में जमी वह परत आज भी करवट ले ही लेती है। जिंदगी की भाग-दौड़ और आपाधापी में कभी-कभी हमने इतनी तेजी से कदम बढ़ाया, मानो अतीत से हमारा तादात्म्य कभी था ही नहीं। चूंकि किसी वृक्ष की अंतिम ऊंचाई पर जाकर हम वहां अधिक देर रुक नहीं सकते या कूद नहीं सकते, इसलिए मिथ्या मर्यादा से मुदित हो हम उस शिखर पर कुछ पल ठिठक कर इस चिंतन में लीन हो जाते हैं कि आखिर लौटें तो लौटें कैसे- लोग क्या कहेंगे। इस ऊहापोह से निवृत होते ही हम पेड़ पर जैसे चढ़े थे, उसी रास्ते वापसी का विकल्प तय कर धरती पर वापस आ जाते हैं।
कुछ समय पहले एक परिचित के वैवाहिक स्वागत समारोह में भाग लेने का अवसर मिला। घर से निकलते समय एक रंगीन लिफाफे में स्नेह अंश स्वरूप कुछ नगद राशि रख लिया था। हम वर-वधु को आशीर्वाद देने मंच पर गए। शिष्टाचार के संस्कार से ओतप्रोत नवविवाहित जोड़े ने हम दोनों का चरण स्पर्श किया। पत्नी ने लाए स्नेह अंश के लिफाफे को दोनों की ओर बढ़ाया तो मुस्कान मुद्रा में दूल्हा-दुल्हन ने कहा कि 'आंटी-अंकल, यह तो लाना नहीं था, बस आप दोनों का आशीष ही पर्याप्त है'। वर-वधु के माता-पिता ने भी विनीत भाव से कहा कि निमंत्रण कार्ड पर तो साफ अनुरोध लिखा था कि किसी प्रकार के उपहार, सामग्री या नगद कृपया नहीं लाएं। मेरा मन कई विचारों में मग्न हो गया। याद नहीं आता कि तीन दशकों से अधिक अवधि से शादी समारोह में भाग लेने की कड़ी में ऐसा कोई अनुपम क्षण आया हो।
उसी समारोह में सामान्य रूप से संचालित 'स्वरुचि भोजन' से अलग व्यवस्था देखकर मस्तिष्क परंपरा के परिवेश के गगन में विचरण करने लगा। प्रचलित ऐसे समारोहों में भव्य पंडाल में जगमगाती रोशनी से नहाए हुए वातावरण में सजे-धजे टेबल-कुर्सी की जगह जमीन पर बिछे दरी पर 'पंगत' में बैठकर भोजन की व्यवस्था रखी गई थी। कतारबद्ध हो जब भोजन के लिए बैठा तो बचपन में गांव के ऐसे आयोजन में उपस्थिति की बरबस याद आ गई।
क्राकरी के प्लेट, कटोरी आदि की जगह पारंपरिक प्लेट, कटोरी और मिट्टी के कुल्हड़ जब सामने रखे गए तो लगा कि महानगर की भौतिक संस्कृति ने आज लुप्त ग्रामीण विधि विधान से अनेक वर्षों के बाद सुखद दर्शन कराया है। भोजन परोसने के क्रम में सब्जी, दाल, बाल्टी से, जबकि पूड़ी, कचौड़ी, पापड़ आदि टोकरी में रख कर दिए जा रहे थे। भोजन व्यंजन के सबसे प्रसिद्ध मिठाई के किस्म नगरीय नहीं होकर शुद्ध ग्रामीण परंपरा के निर्मित थे। बालूशाही, गाजा, जलेबी, बुंदिया आदि के स्वाद ने जिह्वा के साथ-साथ मन को भी तृप्त किया। कई सालों के बाद इन मिष्टान्न के स्वाद और परोसने वाले की आत्मीय आग्रह की निरंतरता ने निर्धारित खुराक में वृद्धि कर दी।
निश्चय ही पंगत के संगत से उत्पन्न माहौल ने समारोह में रोमांचकारी दृश्य से साक्षात्कार कराकर सभी आगंतुकों का मन मोह लिया। सामूहिक भोजन और प्रार्थना की महत्ता ने बरबस स्मरण कराया कि इसी शक्ति और सौजन्य से हमारे पंजाबी भाई-बंधु ने आर्थिक प्रगति के द्वार को खोलने में सफलता प्राप्त की है। उल्लेखनीय है कि स्वरुचि भोजन में हमलोग अपनी इच्छानुसार प्लेट में व्यंजन मात्रा रखते हैं, जबकि पंगतीय व्यवस्था में खिलाने वाले की सहृदयता भोजन क्रम में स्नेह और मधुरता का समावेश करा रही थी। प्रत्येक आगंतुकों को विदा करते समय आयोजक ने सबों के प्रति आभार व्यक्त करने में भी कोई कसर नहीं रखी।
घर आकर प्राप्त अनुभव तरंग से तृप्त मन ने अनेक संदर्भों से युक्त करते हुए प्रेरक दिशा की यात्रा करा दी। हालांकि आज भी गांव के अधिकांश सामूहिक भोजन पंगत में ही किए जाते हैं। पहले घर घर जाकर व्यक्ति द्वारा खुद निमंत्रण देना और फिर भोजन के तुरंत पूर्व जाकर 'बुलावा संदेश' की परंपरा खास मायने रखती है। यह क्रम पूरे गांव को एक इकाई के सूत्र में बांधे रखने में ऊर्जा और समन्वय प्रदान करता है।
नगरीय जीवन शैली में इन प्रकल्पों का अब क्षरण हो रहा है। जबकि अधिकांश नागरिक गांव से ही विस्थापित होकर शहरों की शरण में आए हैं। शहरों में मोबाइल मंच ने सामाजिक संसाधनों का विराट आभासी विकल्प दे रखा है जो निमंत्रण का संदेशा अपने कुटुंब, मित्र, स्वजनों को तुरंता गति से भेजकर ऋणमुक्त हो जाते हैं।
बिना उपहार के वैवाहिक आयोजन हालांकि इक्का-दुक्का ही हो रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि दस कदम बढ़ाने के लिए प्रथम कदम की ही मूल महत्ता है। इससे दहेज का दानवी दांव भी निर्वासन की ओर अग्रसर हो सकेगा। और हां, सामूहिक भोजन विधि में पंगत पद्धति में मितव्ययिता का समावेश भी प्रकट होता है, जबकि अधिकतर स्वरुचि भोजन व्यवस्था में आडंबरीय प्रदर्शन की चमक हुआ करती है। ऐसी सादगी और सरलता से अगर आयोजनों की संख्या में बढ़ोतरी होती है तो हमें सोचने को विवश होना होगा।