दक्षिण अफ्रीका : डेसमंड टूटू की विरासत
पिछले कुछ हफ्तों से मैं दक्षिण अफ्रीका के बारे में विचार कर रहा था
रामचंद्र गुहा। पिछले कुछ हफ्तों से मैं दक्षिण अफ्रीका के बारे में विचार कर रहा था, क्योंकि वहां टेस्ट शृंखला खेली जा रही थी, लेकिन इसकी बड़ी वजह थे आर्कबिशप डेसमंड टूटू, पिछले हफ्ते जिनका निधन हो गया और उनके साथ ही रंगभेद विरोधी संघर्ष के अंतिम महान योद्धा की विदाई हो गई। संभवतः वह अपने किसी भी समकालीन की तुलना में विश्व की अंतरात्मा के अधिक करीब थे।
मैंने डेसमंड टूटू को पहली बार जनवरी, 1986 में टेलीविजन की स्क्रीन पर देखा था। तब मैं अमेरिका में अध्यापन करता था और वह पादरी उस देश के प्रवास पर थे, ताकि वह अमेरिका और अमेरिकियों को झकझोर सकें, जो कि मौन और कई बार मुखर होकर नस्लवादी सत्ता का समर्थन कर रहे थे। टूटू मानते थे कि पश्चिम का आर्थिक दबाव सत्तारूढ़ व्यवस्था को नस्लीय भेदभाव को खत्म करने के लिए कदम उठाने को मजबूर कर देगा।
वहां वह कॉरपोरेट प्रमुखों से मिले, जिनमें जनरल मोटर्स के प्रमुख भी शामिल थे, उनके अलावा उन्होंने अमेरिका के सबसे महान और सबसे समृद्ध विश्वविद्यालयों के प्रमुखों से भी मुलाकात की और उनसे दक्षिण अफ्रीका में बड़े पैमाने पर किए गए लाभदायक निवेश को वापस लेने का आग्रह किया।
वहां उनकी तुलना मार्टिन लूथर किंग से भी की जा रही थी, जिसे इस दक्षिण अफ्रीकी ने खारिज कर दिया और पत्रकारों से कहा कि अन्य चीजों के अलावा एमएलके (मार्टिन लूथर किंग) उनकी तुलना में खूबसूरत थे। यह कहते हुए उन्होंने अपने नाटे कद और गोलमटोल शरीर और बिखरे बालों का हवाला दिया।
दक्षिण अफ्रीका में निवेश करने वाले अमेरिकी विश्वविद्यालयों में येल भी था, जहां मैं काम कर रहा था। टूटू के प्रवास ने छात्रों के साथ ही शिक्षकों के एक वर्ग को भी प्रभावित किया, जिन्होंने येल कॉरपोरेशन से संपर्क कर उनसे दक्षिण अफ्रीका कंपनियों से निवेश खींचने का आग्रह किया। कॉरपोरेटर्स ने दंभपूर्ण तरीके से इससे इनकार कर दिया।
इसके बाद छात्रों ने लाइब्रेरी के बाहरी हिस्से पर कब्जा जमा कर वहां लकड़ी और टीन से झोपड़ियां बना ली और वहां बैठ गए, गाना गाने लगे, नारे लगाने लगे और भाषण देने लगे। उन्होंने नेल्सन मंडेला के चित्र लगाए, जो कि बीस साल से अधिक समय से जेल में थे और जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को रंगभेद विरोधी आंदोलन और संघर्ष को समर्पित कर दिया था।
येल में बिताए ये कुछ महीने थे, जब मैं पहली बार भारत से बाहर था। हालांकि मैं उम्र के तीसरे दशक के अंतिम हिस्से में था, लेकिन मुझे इससे बहुत वास्ता नहीं था कि दक्षिण अफ्रीका में क्या कुछ हो रहा है। मुझे लगता है कि मैं इसके लिए भारतीय प्रेस को दोष दे सकता हूं, जिसने तब उस देश पर शायद ही कभी कोई रिपोर्ट दी हो, शायद इसलिए कि वहां के नस्लवादी शासन के साथ हमारे कोई राजनयिक संबंध नहीं थे। टूटू को टेलीविजन पर सुनने और उनके भाषणों की रिपोर्ट्स पढ़ने और येल के अधिकांशतया श्वेत छात्रों में उसका प्रभाव देखने के बाद देर से ही सही दक्षिण अफ्रीका में मेरी दिलचस्पी बढ़ गई।
भारत लौटने के बाद मैं दक्षिण अफ्रीका की राजनीति का करीब से अनुसरण करने लगा। इस बीच, प्रतिबंधों को लेकर कदम उठाए जाने लगे। मारग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन, जिन्होंने पहले नस्लवादी सत्ता की आलोचना करने के प्रति अनिच्छा दिखाई थी, कुछ आवाज उठाने लगे। नेल्सन मंडेला उस समय तक जेल में ही थे, लेकिन कुछ विदेशी आगंतुकों से मिलने की उन्हें इजाजत दी गई। उनमें ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री मैलकम फ्रेसर भी शामिल थे, जिनसे मंडेला का पहला सवाल था, क्या डॉन ब्रैडमैन अभी जिंदा हैं?
1991 में मैं लंदन में था और वहां गोपालकृष्ण गोखले के घर पर मेरी मुलाकात अंग्रेज पादरी ट्रेवोर हडलस्टन से हुई थी, जिन्हें नस्लवाद की आलोचना करने की वजह से 1950 के दशक में दक्षिण अफ्रीका से निष्कासित कर दिया गया था। जोहान्सबर्ग क्षेत्र का पादरी रहते हुए हडलस्टन ने कई उल्लेखनीय युवाओं को तराशा, जिनमें डेसमंड टूटू और जाज संगीतकार हग मस्केला शामिल थे।
एक समय के तेजतर्रार प्रचारक तब उम्र के सातवें दशक के अंतिम वर्षों में पहुंच चुके थे और कुछ कमजोर लग रहे थे। डिनर टेबिल पर वहां मौजूद जब एक अन्य मेहमान ने उनकी सेहत के बारे में पूछा तो हडलस्टन का जवाब था, 'मैं उम्मीद करता हूं कि मुझसे पहले रंगभेद की मौत हो जाएगी।'
हडलस्टन की इच्छा पूरी हुई और 1994 में नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने के बाद वह थोड़े समय के लिए दक्षिण अफ्रीका गए। 1997 और 2009 के दौरान मैंने खुद दक्षिण अफ्रीका की पांच बार यात्रा की। इन यात्राओं में मैंने रंगभेद विरोधी संघर्ष की कुछ उल्लेखनीय शख्सियतों से मुलाकात की।
उनमें कवि मोंगेन वैली सेरोट, समाजशास्त्री फातिमा मीर, न्यायविद् एल्बेइ सैस और इतिहासकार रेमंड सूटनर शामिल थे। उन्होंने और उनके जैसे अन्य लोगों ने वीरतापूर्वक इतिहास के घावों को अपने पीछे छिपा लिया था, और अब वे एक पूर्ण और बहु-नस्लीय लोकतंत्र के निर्माण के लिए सामूहिक रूप से काम कर रहे थे।
वे विविध नस्लीय पृष्ठभूमि से आए थे
अफ्रीकी, भारतीय, रंगीन, श्वेत। वे एक 'इंद्रधनुष राष्ट्र' (एक शब्द, संयोगवश, डेसमंड टूटू द्वारा गढ़ा गया) के अस्तित्व में आने का प्रतिनिधित्व करते थे। दक्षिण अफ्रीका की मेरी यात्रा के दौरान मैं कभी आर्कबिशप टूटू से नहीं मिल सका। हालांकि 2005 में टूटू जब एक निजी यात्रा पर बंगलुरू आए थे और तब मुझे भी उनके सम्मान में दिए गए एक डिनर में आमंत्रित किया गया था। मैं उनके साथ करीब बीस मिनट तक रहा।
हमने ससे पहले सचिन तेंदुलकर के बारे में बात की, जिनके दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाजों के खिलाफ शानदार फुटवर्क और रोमांचक स्ट्रोक प्ले की उन्होंने बहुत प्रशंसा की। इसके बाद मैंने उन्हें ट्रेवोर हडलस्टन से हुई मेरी मुलाकात के बारे में बताया। इतना सुनते ही उन्होंने कहा, ट्रेवोर अफ्रीकियों जैसा हंसते थे, उनका पूरा शरीर हिलने लगता था।
यदि उनके साथ मेरे कुछ व्यक्तिगत संबंध न भी होते, तब भी डेसमंड टूटू के निधन पर मैं उतना ही दुखी होता। क्योंकि वह अपने देश में और अन्य देशों में भी नैतिकता की मिसाल के तौर पर पहचाने जाने वाले शायद अंतिम जीवित व्यक्ति थे।
वह दक्षिण अफ्रीका की अंतरात्मा थे, जिन्होंने सीधे तौर पर रंगभेद शासन की नस्लीय क्रूरता का सामना किया, और खुले तौर पर अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे रंगभेद के बाद के शासन के भ्रष्टाचार और वंशवाद की भी आलोचना की।
फिर भी टूटू ने जहां भी अन्याय हुआ, उसके खिलाफ बात की, चाहे वह फलस्तीनियों के खिलाफ यहूदी बस्तियों और इस्राइल द्वारा की गई ज्यादतियां हों या म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ उनकी साथी नोबेल पुरस्कार विजेता, आंग सान सू की के नेतृत्व में शासन द्वारा की गई कार्रवाई हो।
यहां तक कि उन्होंने अपने स्वयं के एंग्लिकन चर्च की स्थायी घृणा को भी आड़े हाथ लिया। टूटू के जीवन और उनकी विरासत में हमारे अपने देश के लिए भी कुछ अच्छे सबक हैं। उनकी अंतर-धार्मिक सद्भावना विशेष रूप से भारत के लिए आज प्रासंगिक है।
ईसाइयत के अभ्यास को लेकर वह उल्लेखनीय रूप से उदार थे। जैसा कि उन्होंने अन्य धार्मिक परंपराओं के अनुकरणीय व्यक्तियों की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'ईश्वर ईसाई नहीं है।' और ईश्वर हिंदू भी नहीं है।