कुछ किस्से, उदाहरण और पूर्वी उत्तर प्रदेश के चश्मे से योगी सरकार के चार साल

मशहूर पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने एक बार कहा था कि सरकारी योजनाएं इसलिए विफल हो जाती हैं, क्योंकि

Update: 2021-03-20 16:31 GMT

मशहूर पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने एक बार कहा था कि सरकारी योजनाएं इसलिए विफल हो जाती हैं, क्योंकि वे ऊपर से नीचे की ओर आती हैं. कोई प्रोजेक्ट बनाता है, कोई सर्वे करने जाता है, कोई प्रोजेक्ट संभालने के लिए निकलता है और धरातल पर आते-आते ज्यादातर योजनाएं कई पेंच में फंसकर फांसी लगा लेती हैं. दरअसल, उन्होंने ये बात तालाबों के संदर्भ में कही थी. उन्होंने अपनी प्रसिद्ध किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' की एक कॉपी देते हुए तालाबों के पुनर्जीवित ना हो सकने की वजह बताई थी और कहा था कि अगर सरकारें वास्तव में तालाबों को पुनर्जीवित करना चाहती हैं तो वह गांव-गांव जाकर किसी बुजुर्ग से पूछें.

गांव का बुजुर्ग आसानी से बता देगा कि कहां पर पहले तालाब हुआ करता था, या फिर बारिश का पानी किस ढलान से होते हुए गांव के किस हिस्से तक जाता है. जबकि होता ये है कि एक सर्वेयर महीने भर सर्वे करता है, गलत अनुमान लगाकर तालाब तैयार कराता है, जो बारिश के बाद भी सूखा ही रह जाता है. कुछ दिनों में तालाब पूरी तरह से सूख जाता है और वक्त के साथ एक बार फिर सपाट मैदान बन जाता है.
आमतौर पर यह तर्क सभी देते हैं और इन तर्कों को सिद्धांत मानकर ताक पर रख दिया जाता है, लेकिन कुछ सालों पहले कुशीनगर में मेरे ही गांव में एक किसान ने जो तर्क दिया था, वह आज भी मेरे मन में इस सिद्धांत का उदाहरण बनकर कौंधता है.
योगी जी के गाय बांटने से क्या होगा?
तब योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) मुख्यमंत्री नहीं थे. उन्होंने युवा वाहिनी नाम से एक संगठन बनाया था. संगठन के एक पदाधिकारी ही उस किसान से उलझ गए थे. योगी की तारीफ में पदाधिकारी ने कहा कि वह क्या नहीं करते हैं, तुम्हारे जैसे किसान को मुफ्त में गाय तक दे देते हैं. तब उस किसान ने तर्क दिया था- गाय कौन मांगता है योगी जी से. वह तो एक दिन मर जाएगी और अगर उसके बच्चों को पाल-पोसकर मैं धनवान बनने की कल्पना करूं तो उसमें पीढ़ियां गुजर जाएंगी. इससे बेहतर होता कि योगी जी गाय ना देकर कर्ज दिला देते. मैं तीन-चार गाय पाल लेता और अपने दूध के बिजनेस को आगे बढ़ा लेता. खैरात दिए बिना भी बहुत कुछ किया जा सकता है.
अब जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार के चार साल पूरे हो चुके हैं और चार साल पूरे होने पर उन्होंने विस्तृत लेख और बड़े विज्ञापनों से अपनी उपलब्धियों का उल्लेख किया है, तो एक छोटे किसान की अभिलाषा की ओर लौटना जरूरी है, उनके नजरिए को समझना जरूरी है.
हनकदार अफसर से ज्यादा असरदार किसान
वैसे कोई भी किसान मूर्ख नहीं होता. अगर वह अशिक्षित है, तब भी कल्याणकारी योजनाएं बनाने के लिए तैनात, किसी सरकारी हनकदार अफसर से ज्यादा समझदार होता है. अगर एक किसान की छोटी सी अभिलाषा पर सरकार गंभीरता से विचार करे तो सरकारी स्तर पर सिर्फ दो काम बचते हैं. पहला- किसान को पशुपालन के लिए धन उपलब्ध कराना, दूसरा- उसके दूध के लिए बाजार उपलब्ध कराना.
पहले स्तर पर सरकार डेयरी को सामूहिक स्तर पर ले जा सकती है, जो कम से कम पूर्वी उत्तर प्रदेश की विपत्ति का हल जरूर निकाल सकती है. अगर सरकार एक किसान नहीं बल्कि एक गांव में बीस किसानों के बीच भी 40 लाख का ऋण बांट दे, तो एक गांव में 50 से 80 पशुधन होंगे. इसके बाद इन किसानों की एक कमेटी बनाकर अगर सरकार इनके व्यापार को सही दिशा दे, तो किसान दुग्ध उत्पादन का लाभ भी ले सकेंगे और ऋण भी चुका सकेंगे.
ये तभी सफल होगा, जब सरकार दूसरे स्तर पर यानी बाजार के स्तर पर भी जिम्मेदारी निभाए, कई गांवों के साथ मिलकर सामूहिक पशुपालन शुरू कराए, ताकि पशुपालन में आने वाली लागत में कमी आए. इसके साथ ही मिल्क प्रोसेसिंग यूनिट खोले, ताकि किसान अपने उत्पाद (प्रोडक्ट्स) का बाजार पा सकें. सामान्य अर्थशास्त्र का नियम कहता है कि एक गाय देने से एक भी किसान समर्थ नहीं हो सकता. जबकि किसानों के समूह को सिर्फ योजना देने से पूरा समूह समर्थ हो सकता है.
किसानों के लिए योगी सरकार की माइक्रो लेवल पर योजनाएं
योगी सरकार ने यूपी के किसानों को समर्थ करने के लिए माइक्रो लेवल पर काम शुरू किया है. गन्ने का क्लस्टर, उन्नत चावल पैदा करने का क्लस्टर जैसे अनगिनत प्रयोग शुरू किए हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ जिस भूभाग का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां भी इसके सफल होने की उम्मीद नहीं है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में किसान के पास इतनी जमीन बची ही नहीं है कि खेती के जरिए उसके पूरे परिवार का जीवन स्तर सुधर सके. यानी जैसा कि अनुपम मिश्र जी ने कहा था- यहां पर भी योजना ऊपर से नीचे की ओर जाती हुई दिख रही है. तकलीफ इस बात की है कि इन योजनाओं की विफलता से सिर्फ योगी सरकार का ही नुकसान नहीं होगा, बल्कि असल नुकसान पूरे उत्तर प्रदेश के लाखों किसान परिवारों का है.
भारतीय जनता पार्टी से पहले उत्तर प्रदेश ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की दो दशक से ज्यादा की राजनीति देखी है, जब लखनऊ की सरकार सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सरकार हुआ करती थी. पूर्ववर्ती शासन में पूर्वी उत्तर प्रदेश बिजली के लिए तरस गया था, अस्पतालों में मौत नाचती थी, स्कूलें सिर्फ मिड डे मील के वक्त खुलते थे, खेती की लागत फसल की कीमत से ज्यादा हो गई थी, किसान सिर पकड़कर बैठे थे, युवा बेरोजगार घूम रहे थे, जबकि सरकारें साइकिल बांट रही थीं और हाथी पार्क बनवा रही थीं.
ऐसे में योगी सरकार से पूर्वी उत्तर प्रदेश को उम्मीद थी कि वो पश्चिम को छोड़कर पूरब पर ध्यान देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का अनुभव कहता है कि जब योगी सरकार ने पूरे उत्तर प्रदेश को बराबरी की नजर से देखना शुरू किया तो पूर्वी यूपी में मायूसी छाने लगी. लेकिन अब साफ-साफ दिखता है कि सूबे में कोई कमी नहीं थी. उतनी ही बिजली और उतने ही संसाधनों ने पश्चिम की चमक छीने बिना पूर्व को परिवर्तित कर दिया.
पैसे से पैसा आता है
दरअसल बात कमी की नहीं है, बात योजना की है और पैसे की है. योगी आदित्यनाथ 2018 में ही पैसे का महत्व समझ चुके होंगे. जब यूपी की सरकार ने लखनऊ में फरवरी 2018 में इन्वेस्टर्स समिट किया था तो उसमें देश के A लिस्टेड बिजनेसमैन शामिल हुए थे. तब सरकार ने उद्यमियों के साथ 1,045 मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टेंडिंग (MoUs) साइन किए थे. उम्मीद जताई गई थी कि सूबे में 4.28 लाख करोड़ रुपये का निवेश होगा, लेकिन दो साल में साफ हो गया कि उद्यमियों (Entrepreneurs) ने यूपी पर भरोसा नहीं किया. वो MoU नहीं बल्कि ठन ठन गोपाल था. उद्यमियों ने तब यूपी सरकार पर भरोसा तो नहीं ही किया, अब जाकर यूपी सरकार ने प्राइवेट नौकरियों में भी आरक्षण देकर सूबे में मौजूद कंपनियों की उम्मीदों में भी पलीता लगा दिया है.
सच्चाई ये है कि पैसा कभी भी दुविधा में नहीं रहता. एक किसान ने जो योजना बताई, वो सिर्फ एक उदाहरण हो सकता है. बाकी योजनाएं सरकार को ही तलाशनी होंगी. गांव-गांव और शहर-शहर जाना होगा और योजनाएं नीचे से ऊपर की ओर ले जानी होंगी, जो शुरू से की गई होती तो उत्तर प्रदेश के विकास के लिए पांच साल कम नहीं होते.


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