By शिवकांत।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रमुख सचिवों की एक महत्वपूर्ण बैठक में कुछ सचिवों ने कुछ राज्यों में चुनाव जीतने के लिए की गयी मुफ्त वितरण योजनाओं पर चिंता प्रकट की. उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसी योजनाएं पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में श्रीलंका जैसा आर्थिक संकट खड़ा कर सकती हैं. इस चेतावनी पर विपक्षी नेताओं ने तंज कसे.
तमिलनाडु के वित्त मंत्री त्यागराजन ने कहा कि भाजपा के बेरोक सत्ता हथियाने की वजह से श्रीलंका जैसा संकट खड़ा हो सकता है. शिवसेना के नेता संजय राउत ने कहा कि महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो भारत में श्रीलंका जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. समाजवादी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव ने भी ऐसी ही बात कही.
आम धारणा यह है कि यह संकट चीन के कर्ज से पैदा हुआ है. श्रीलंका ने विभिन्न परियोजनाओं के लिए और कर्ज की किस्तें चुकाने के लिए चीन से लगभग पांच अरब डॉलर का कर्ज लिया है, लेकिन यह श्रीलंका के कुल विदेशी कर्ज का लगभग 10 प्रतिशत ही है. कुल कर्ज का लगभग आधा उसने अंतरराष्ट्रीय बाजार से लिया है. उसने चीन जितना ही कर्ज जापान, एशियन विकास बैंक और विश्व बैंक से भी ले रखा है.
संकट की असली वजह राजपक्षे और जयवर्धने सरकारों की आर्थिक नीतियां, भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची हैं. श्रीलंका ने चीन से भी पहले सत्तर के दशक में आर्थिक सुधार शुरू कर दिया था. मुक्त बाजार व्यवस्था शुरू होते ही वहां तेजी से विदेशी निवेश आया और पर्यटन उद्योग का तीव्र विकास हुआ. बुनियादी सुविधाएं बेहतर हुईं, लेकिन सरकार ने खेती, ऊर्जा और औद्योगिक निर्माण जैसे अर्थव्यवस्था को स्थिरता देनेवाले क्षेत्रों के विकास पर ध्यान नहीं दिया.
साल 2019 के आतंकवादी बम कांड ने और उसके बाद कोविड महामारी ने पर्यटन ठप कर दिया. जब कर्ज के भुगतान के लिए भी कर्ज लेने की नौबत आ गयी, तब सरकार ने रासायनिक खाद के आयात पर खर्च होनेवाली विदेशी मुद्रा को बचाने के लिए खेती को पूरी तरह ऑर्गेनिक बनाने का फैसला लिया. इसका परिणाम भयावह हुआ और खेती की उपज आधी हो गयी.
क्या भारत के कुछ राज्यों की आर्थिक दशा इतनी खराब हो चुकी है कि कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, गैस सिलिंडर और कंप्यूटर तथा पेंशन जैसी चुनावी योजनाओं से उनका हाल श्रीलंका जैसा हो सकता है? इसका सीधा उत्तर तो यह है कि आमदनी बढ़ाये बिना अंधाधुंध खर्च करने से किसी भी राज्य का दिवाला निकल सकता है, पर भारतीय राज्यों की दशा अभी इतनी खराब नहीं हुई है और अर्थव्यवस्था भी कुछ ही स्रोतों पर इतनी निर्भर नहीं है कि श्रीलंका जैसा हाल हो सके. कुछ राज्यों की स्थिति खतरे के निशान तक जरूर जा पहुंची है, जिनमें पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश मुख्य हैं.
इनके कर्ज निर्धारित सीमा से लगभग दोगुने हो चुके हैं. राजस्व विधेयक समीक्षा समिति के अनुसार केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी के 40 प्रतिशत से और राज्यों का कर्ज उनकी जीडीपी के 20 प्रतिशत से ऊपर नहीं जाना चाहिए. मुद्रा की साख और ऋणदाताओं का भरोसा कायम रखने के लिए वित्तीय संयम और संतुलन रखना जरूरी होता है. केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. रिजर्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्टों के अनुसार, केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी के 60 प्रतिशत से ऊपर जा चुका है और राज्य सरकारों का कर्ज जीडीपी के 30 प्रतिशत से ऊपर चल रहा है.
इस प्रकार कुल राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी के 90 प्रतिशत से ऊपर है. फिर भी, श्रीलंका की तुलना में भारत का कर्ज अब भी काफी कम है. कर्ज के बोझ के कारण कर्ज माफ करने, महिलाओं और वृद्धों को पेंशन देने, मुफ्त बिजली देने और सरकारी नौकरियां बढ़ाने जैसी योजनाओं से राज्यों के घाटे और बढ़ सकते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविड और महंगाई की मार से जूझते गरीब लोगों को आर्थिक मदद देने की भी जरूरत है.
इसके बिना मांग नहीं बढ़ती और बिना मांग के अर्थव्यवस्था की गति तेज नहीं हो सकती. मांग को शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचा बेहतर कर भी बढ़ाया जा सकता है और मुफ्त योजनाओं में पैसा बांट कर भी. उन मदों में पैसा लगाने के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत पड़ती है और प्रभाव दिखने में समय लगता है.
इसलिए सरकारें लोकलुभावन योजनाएं लाकर वोट बटोरती हैं, जो आसान है, पर ये अर्थव्यवस्था को श्रीलंका की राह पर भी धकेल सकती हैं. इसका असली हल टैक्स नीति के सुधार में छिपा है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए सरकारों को सेस कर लगा कर पैसा जुटाने के बजाय उन्हें सामाजिक सुरक्षा कर लगाने के बारे में सोचना चाहिए. अमेरिका और यूरोप से लेकर रूस और चीन तक हर देश में बुनियादी मदों का खर्च ऐसे करों से चलता है.
इसी तरह केंद्र सरकार को परोक्ष करों पर निर्भरता कम करते हुए आयकर और लाभांश कर जैसे करों का दायरा बढ़ाना चाहिए. खर्च पर कर लगा कर उगाहना आसान जरूर है, लेकिन इससे मांग घटती है और अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती है, जबकि आमदनी पर लगने वाले करों से ऐसा कोई दुष्प्रभाव नहीं होता.