विश्व के कुछ मातृसत्तात्मक समाज और स्त्रियों की दुनिया

भारत ही नहीं बल्कि मूलतः वैश्विक समाज ही पुरुष प्रधान रहा है

Update: 2022-01-03 16:45 GMT
भारत ही नहीं बल्कि मूलतः वैश्विक समाज ही पुरुष प्रधान रहा है। भारत इसका अपवाद नहीं रहा। लेकिन हमारी जनजातियां, जो कि प्राचीन और वर्तमान के बीच की एक कड़ी हैं, में ऐसे भी समाज हैं जहां पुरुष नहीं बल्कि नारी प्रधानता है। उसी परम्परा को हमारी आदिम जातियां संजोए हुए हैं। जाहिर है कि प्राचीन काल में विश्व में ऐसे भी समाज रहे हैं जहां नारी प्रधानता रही है। ऐसी ही नारी प्रधानता का एक उदाहरण भारत के मेघालय राज्य का है। कुछ आदिम जाति समाजों में बहुपत्नी प्रथा भी रही है। उन समाजों में भी नारी के हाथों में परिवार के नियंत्रण के भी उदाहरण हैं।
विश्व के कुछ मातृसत्तात्मक समाज
विश्व में आज भी कई मातृ सत्तात्मक समाज हैं जहां सदियों से महिलाएं राजनीति, अर्थव्यवस्था और व्यापक सामाजिक संरचना, सब कुछ देखती हैं और वंश परम्परा माता से ही चलती है। इनमें चीन की मोसुओ जाति भी एक है जिनकी जनसंख्या 40 हजार के करीब बताई जाती है। ये बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। इस समाज में महिलाएं विवाह नहीं करतीं। इसी प्रकार कोस्टा रिका के ब्रिब्रि जनजातीय समाज भी मातृसत्तात्मक है जिनकी जनसंख्या 12 से 35 हजार के बीच मानी जाती है। इस समाज में महिलाएं आदरणीय होती हैं।
वही धार्मिक आयोजनों के लिए ककाओ पेय बना सकती हैं। केन्या के उमोजा जनजाति का एक ऐसा महिला गांव है जहां पुरुषों के प्रवेश पर प्रतिबंध है। इस गांव की स्थापना अनेक तरह की हिंसा से पीड़ित महिलाओं ने 1990 में की थी। इंडोनेशिया का मिनांगकाबाउ विश्व की सबसे बड़ी महिला प्रधान जनजाति मानी जाती है, जिसकी जनसंख्या लगभग 40 लाख आंकी गई है। इस समाज में भी महिलाएं आदरणीय होती हैं।
यहां विवाह तो होते हैं मगर पुरुष का शयन कक्ष अलग होता है। घाना की अकान जनजाति भी मातृसत्तात्मक है मगर वहां पुरुष ही परिवार के मुखिया होते हैं, लेकिन विरासत मां के नाम पर चलती है। वहां जमीन की मालिक भी महिला होती है और धन का बंटवारा भी महिलाएं ही करती हैं। वंश भी महिलाओं पर ही चलता है। न्यू गुयाना की नागोविसी जनजाति भी मातृसत्तात्मक है। भारत में खासी जनजाति मातृसत्तात्मक है जिसकी जनसंख्या लगभग 10 लाख आंकी गई है।
धर्म बदला मगर परम्पराएं नहीं बदलीं
मेघालय की राजधानी शिलांग के अधिकांश लोग खासी नामक जनजाति के हैं। इस जनजाति के ज्यादातर लोग ईसाई धर्म को मानने वाले हैं, मगर उन्होंने अपनी मातृसत्तात्मक प्राचीन संस्कृति को त्यागा नहीं है। गारो, खासी और जयंतिया राज्य की तीन पहाड़ियां है और इन पर रहने वाले आदिवासी और जातीय समूहों को इन्हीं तीन नामों से जाना जाता है। हालांकि, इनमें गारो जनजाति का संबन्ध बोड़ो जातियों से माना जाता है। इनका वर्चस्व पश्चिमी मेघालय में अधिक है और ऐसा माना जाता है कि तिब्बत से आकर ये यहां बसे।
इनका प्रमुख उत्सव बंडल है, जो फसलों की कटाई के दौरान मनाया जाता है। इस जाति की विशेषता यह है कि इसमें महिलाओं की प्रमुखता होती है और समाज के सभी बड़े फैसले महिलाएं ही लेती हैं। यह जनजाति मातृ सत्तात्मक है। खासी जनजाति हिंद-चीन मूल के हैं। इनका समाज भी मातृ सत्तात्मक है।
इन दोनों जनजातियों की ही तरह जयंतिया जनजाति भी मातृसत्तात्मक है। खासी जनजाति के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इस जनजाति में महिला को घर का मुखिया माना जाता है। जबकि भारत के अधिकांश परिवारों में पुरुष को प्रमुख माना जाता है। इस जनजाति में परिवार की सबसे बड़ी लड़की को जमीन जायदाद की मालकिन बनाया जाता है। यहां मां का उपनाम ही बच्चे अपने नाम के आगे लगाते हैं।
खासी जाति में स्त्री राज
मेघालय के गंवई इलाके में महिलाओं को सबसे ज्यादा इज्जत की नजर से देखा जाता है। करीब 10 लाख लोगों का वंश महिलाओं के आधार पर चलता है। खासी जाति की परंपरा के मुताबिक परिवार की सबसे छोटी बेटी सभी संपत्ति की वारिस बनती है, पुरुषों को शादी के बाद अपनी पत्नियों के घरों में जाना पड़ता है और बच्चों को उनकी माताओं का उपनाम दिया जाता है। अगर किसी परिवार में कोई बेटी नहीं है, तो उसे एक बच्ची को गोद लेना पड़ता है, ताकि वह वारिस बन सके।
इसके अलावा खासी जाती की महिलाओं को इस बात का अधिकार है कि वे समुदाय से बाहर शादी कर सकती हैं। सबसे छोटी बेटी को संपत्ति का वारिस बनाने के पीछे तर्क यह यह है कि मां बाप को लगता है कि वह मरते दम तक उनकी देखभाल कर सकती है। उन्हें लगता है कि वे अपनी बेटी पर आश्रित रह सकते हैं।
महिला राज के खिलाफ आन्दोलन
पारियात सिंगखोंग रिम्पाई थिम्माई संगठन के कार्यकर्ता इसे बदलना चाहते हैं। खासी जाति की परंपरा को बदलने के लिए पारियात संस्था का गठन 1990 में हुआ। इससे पहले पुरुषों ने इस समाज में अपने अधिकारों के लिए 1960 के आस पास आन्दोलन शुरू किया लेकिन उसी वक्त खासी जाति की महिलाओं ने एक विशाल सशस्त्र प्रदर्शन किया, जिसके बाद पुरुषों का विरोध ठंडा पड़ गया।
सास और दामाद की शादी
मेघालय की गारो जनजाति में एक ऐसी परंपरा है जिसके तहत सास और दामाद की शादी हो सकती है। इसके बाद सास और दामाद का रिश्ता खत्म होकर पति-पत्नी का रिश्ता बन जाता है। गारो जनजाति का एक नियम है कि शादी के बाद छोटी बेटी का पति घर जमाई बन कर ससुराल में रहने आ जाता है।
इसके बाद इसे नोकरोम कहा जाने लगता है। नोकरोम को सास के मायके में पति के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता मिलती है। अगर किसी कारण से ससुर की मृत्यु हो जाती है तो सास की शादी नोकरोम से कर दी जाती है। इस शादी के बाद बेटी और सास दोनों का पति बनकर नोकरोम को दोनों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। गारो जनजाति में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। समाज में इसे पूरी तरह मान्यता प्राप्त है। हालांकि नए जमाने के युवा इसे कम ही अपना रहे हैं फिर भी अभी यह अस्तित्व में है।
पहली महिला गृह मंत्री
कांग्रेस विधायक रोशन वर्जरी ने मेघालय की पहली महिला गृह मंत्री बनाई गईं। वह देश के किसी राज्य में इस मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाली दूसरी महिला भी हैं। मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने 12 मार्च 2013 को विभागों का बंटवारा करते हुए वर्जरी को गृह मंत्रालय (जेल) के साथ-साथ लोक निर्माण विभाग की जिम्मेदारी भी सौंपी है।
वह पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में इस महत्वपूर्ण विभाग को संभालने वाली पहली भारतीय महिला हैं। वह उत्तरी शिलांग से विधानसभा चुनाव जीतीं थी। उनसे पहले यह पोर्टफोलियो वरिष्ठ राजनेता एचडीआर लिंगदोह के पास था। वर्जरी से पहले आंध्र प्रदेश में सबिता रेड्डी किसी राज्य की पहली गृहमंत्री बनीं थीं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।

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