तो एक तरफ किसान नेताओं पर एफआईआर और पुलिस से सिकंजा तो दूसरी और उनकी सार्वजनिक बदनामी का महाअभियान तो दूसरी और इस सबसे घायल किसान! तभी राकेश टिकैत का रोता चेहरा पश्चिम यूपी-हरियाणा के जाटों में आंदोलन में भभका बना सकता है। जयंत चौधरी, अजित सिंह, अखिलेश यादव अपनी पार्टियों को आंदोलन का समर्थक बना सकते है। ध्यान रहे संयुक्त किसान मोर्चा के सिख और जाट नेता अभी तक राजनैतिक दलों को दूर रखने की नीति लिए हुए थे लेकिन वे अब कांग्रेस, आप, ममता बनर्जी, लेफ्ट नेताओं याकि उन 16 विरोधी पार्टियों का समर्थन ले तो आश्चर्य नहीं होगा जिन्होने शुक्रवार को राष्ट्रपति के भाषण का बहिष्कार किया है।
आंदोलन को अराजनैतिक बनाए रखने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के पंजाब के नेता जोगिंदर सिंह उगराहां,बलबीर सिंह राजेवाल,जगमोहन सिंह,डॉक्टर दर्शनपाल हो या राकेश टिकैत या योग्रेंद्र यादव सब की पहले जिद्द थी कि नेताओं को मंच पर नहीं आने देना है। उनसे दूरी रखनी है लेकिन अराजनैतिक आंदोलन कैसे सरकार की ताकत के आगे बिना नेतृत्व और दिशा के भटकता है, खत्म होता है, बदनाम होता है यह फिर साबित हुआ है। किसी भी किसान नेता ने सोचा नहीं होगा कि उनके ऐतेहासिक अंहिसात्मक आंदोलन का हश्र ऐसा होगा।
तभी विपक्ष का एकजुट हो कर किसानों की मांग में राष्ट्रपति अभिभाषण का बहिष्कार जहा सरकार बनाम विपक्ष में टकराव है वहीं किसान आंदोलन की दिशा भी है। संसद का बजट सत्र चल नहीं पाएगा। यदि जोर-जबरदस्ती हुई तो वैसा ही होगा जैसे पिछले सत्र में कृषि बिल पास कराते हुए राज्यसभा का नजारा था। इस सबका सीधा असर फिर अप्रैल-मई में होने वाले पांच विधानसभा चुनावों पर होगा। ममता बनर्जी ने किसानों के समर्थन में दो टूक स्टेंड लिया है। 26 जनवरी की घटना के लिए मोदी सरकार को जिम्मेवार ठहराया है। उस नाते चुनाव बहाने बंगाल में पानीपत की लड़ाई का जो मैदान सजेगा उसमें बंगाली बनाम गैर-बंगाली, देशभक्त बनाम पाकिस्तानी-खालिस्तानी का नैरेटिव आर-पार की लड़ाई वाला होगा। इसका बगल के असम में भी असर होगा तो तमिलनाड़ु विधानसभा चुनाव पर भी होगा। ध्यान रहे तमिलनाडु के किसान कम आंदोलित नहीं रहे है। उन्होने भी मोदी सरकार के दौरान दिल्ली आ कर धरना-प्रदर्शन किया था और निराश हो लौटे थे।
तभ दलील बनती है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को संसद सत्र में कृषि कानूनों का प्रस्ताव ले कर आना चाहिए। किसान का पीटता-रोता-लौटता चेहरा पूरे देश के किसानों में एक मैसेज बनाने वाला है और इसका कम ज्यादा वोटों पर असर होगा। मगर 26 जनवरी की घटना के बाद के तीन दिनों में मोदी सरकार ने जिस पैटर्न में आंदोलन को पुलिस से, मीडिया में झूठे प्रचार से खत्म कराने का महाअभियान चलाया है तो जाहिर है ये इस विश्वास में है हिंदू भक्तों में उनका ग्राफ बढ़ा है। सरकार की छप्पन इंची छाती और चाणक्य नीति से प्रभावित हो कर बंगाल के बंगाली, असमी और तमिलनाडु, केरल के हिंदू भी उनके दिवाने बने है। इन चुनावों में भी भाजपा की अप्रत्याशित जीत से फिर साबित होगा कि नरेंद्र मोदी अजेय है और वे ही सच्चे है बाकि सब झूठे!
इसलिए किसान आंदोलन, संसद सत्र से अप्रैल-मई के पांच विधानसभा चुनावों में राजनैतिक पारा भयावह ऊंचाईपर होगा। पश्चिम बंगाल और असम में भाजपा वह प्रचार-प्रोपेगेंडा करेगी जिसकी धुरी देशभक्ति बनाम देशद्रोही-पाकिस्तानी-खालिस्तानी का अखाड़ा होगा। ऐसे में चुनावी पानीपत लड़ाई में नतीजा कुछ भी आए देश में टकराव, विभाजकता के नए चक्रवात बनेंगे जिससे राजनीति सामान्य कतई नहीं बनेगी।
उन्ही चक्रवातों से गुजरते हुए अक्टूबर-नवंबर से उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब आदि के फरवरी 2020 केविधानसभा चुनाव की बिसात बिछनी शुरू होगी। और चुनावों के चुनाव उत्तरप्रदेश के चुनाव के लिए लडाई का मैदान किस हल्ले, नैरेटिव, धर्म-कर्म से सजना है इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।