सीताराम बाबा: नर्मदा का अनथक योद्धा
सीताराम बाबा चले गए! अपनी लंबी, गहरी विरासत छोड़कर
सीताराम बाबा चले गए! अपनी लंबी, गहरी विरासत छोड़कर। यह विरासत थी-आंदोलनजीवी की, एक विनम्र पर कट्टरता के साथ इतिहास रचने वाले की। अपनी मां से उन्होंने हासिल की कहानियों की, नर्मदा घाटी के निवासियों को मां नर्मदा के साथ जोड़ने की। उपवास, जेल, सब कुछ भुगतकर हंसते, खेलते, खिलखिलाहट के साथ डटे रहने की, आम लोगों के बीच, नर्मदा आंदोलन का आधारस्तंभ बनकर।
सीताराम भाई बुजुर्गियत लेकर ही आंदोलन में पधारे और पहले काका, फिर बाबा बनते गए, लेकिन उनकी जवानों-सी ऊर्जा अदम्य रही। उनका हंसते-हंसते कभी शासन को, तो कभी ग्रामवासियों को भी डांटने का हक और ताकत बरकरार रही। सीताराम बाबा की गहरी सोच उनकी कहानियों में, उनके मुहावरों में ही छुपी रहती थी और अचानक बरसती थी। उसकी बूंदें माहौल को न केवल ठंडा करतीं, बल्कि सुनने वालों को तन-मन तक भिगोती और विचारों से नहलाती थी।
उन्हें 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' के 'मानव बचाव' के साथ प्रकृति, धरती और नदी बचाओ की विचारधारा दिल-दिमाग में भरी हुई सपनों की मंजिल लगती थी। यह प्रकट होता था, उनके साथ हुई हमारी सबकी हल्की-फुल्की मुलाकातों में। इर्द-गिर्द बदलते समाज के मूल्यों और विकास के झूठे प्रतीकों पर उनका मन सवाल खड़ा करता था। सीताराम बाबा का पहला योगदान शुरू हुआ, हमारे साथ 1990 में शुरू हुए 'मणिबेली सत्याग्रह' से। वह एक-एक आती-जाती, सत्याग्रहियों की टुकड़ी का हिस्सा नहीं थे, वह 'कायमी टीम' के मजबूत सदस्य थे। चारों महीने, जलभराव के सामने जल-सत्याग्रही बनकर। कभी दाल-बाटी बनाने में तो कभी गांववासी आदिवासियों से, पहाड़ और निमाड़ का रिश्ता बांधने में।
मणिबेली के द्वार पर जब सैकड़ों पुलिसवाले आकर शूलपाणेश्वर मंदिर में डट गए और हमने छोटी-सी सत्याग्रहियों की कुटिया डूब आने की आहट को चुनौती देते खड़ी की थी, तो गांववासियों और युवाओं के साथ पैदल चलकर पहुंचे सीताराम बाबा को भी पुलिस द्वारा पीटा गया था।
जब अहिंसक तरीके से अपने जल, जंगल, जमीन बचाने के लिए पहाड़ के ऊपर मानव-शृंखला बनाकर डोमखेडी, निमगव्हाण, भरड और सुरुंग गांव के आदिवासी सर्वेक्षण का विरोध दर्ज कर रहे थे, तब शासन ने रेहमल वसावे की हत्या की थी। उसके शव को उठाकर जिलाधिकारी के सामने रखकर सर्वेक्षण रोका गया और उस एकमात्र शहादत पर भी धुले के हमारे अनगिनत समर्थकों ने हमारी निषेध रैली में हिस्सा लिया तो हम पर लाठियां बरसीं थीं, सबसे अधिक सीताराम भाई पर। बाद में हम सब जेल में बंद रहे।
सरदार सरोवर बांध की 'विश्व बैंक' की 'मोर्स कमेटी' द्वारा पोलखोल हुई थी। कमेटी के सदस्यों को निमाड़ के गांवों में, पहाडी 'मुखडी' जैसे गांव में, मणिबेली में महुआ के नीचे बिठाकर बातें सुनाने में 'विश्व बैंक' के मिशन के सामने भी सवाल करते, जेल भुगतने वालों में सीताराम भाई हरदम आगे रहते ही थे। वह अपने शब्दों में, अपनी भाषा और माध्यम में आंदोलन को गूंथते थे। सीताराम भाई के पास घाटी में आए कोई पत्रकार, मिलने वाले, अतिथि-समर्थक पहुंचें नहीं - ऐसा संभव ही नहीं था।
भोपाल या दिल्ली में जब शासन के अधिकारी, मंत्री या मुख्यमंत्री से चर्चा में वह धीरे से पूछ लेते, क्या मैं कुछ बोलू? तो हमें रोकने की हिम्मत क्या, इच्छा भी नहीं होती। सीताराम भाई छोटे से बड़े तक हर कार्यक्रम में रहते। अपनी उम्र को भूलकर बांध की 80 मीटर ऊंचाई घोषित होने पर भोपाल में चला 26 दिन का उपवास भी अपने कंधों पर लेकर, कमलू जीजी, केवलसिंग, हमारे साथ बैठे तब सब चकित हुए थे। उन्होंने आखिर तक एक भी मौका नहीं छोड़ा, हमारे साथ खड़े रहने का। बाबा आमटे नर्मदा किनारे दशकभर रहे, तब उनके साथ नजदीकी रिश्ता और संवाद रखने वालों में से थे, सीताराम बाबा। उन्होंने मुआवजे के पैसे को तब तक नहीं छुआ, जब तक सर्वोच्च अदालत ने ही आदेश नहीं दिया। आखिरी कार्यक्रम में एक नए अस्पताल के भूमि-पूजन कार्यक्रम में शामिल होकर मानो आंदोलन हर चुनौती से, नवनिर्माण की ओर बढ़ने की प्रेरणा की एक मशाल जलती छोड़कर वह तीन सितंबर, 2021 को हमेशा के लिए चले गए। (सप्रेस)
क्रेडिट बाय अमर उजाला