चुप्पी टूटनी चाहिए

उन दिनों की बात है, जब मैं मोदीभक्त कहलाती थी। इस भक्ति में तब कमी आने लगी जब मोहम्मद अखलाक को उसके घर के अंदर से घसीट कर लाठियों और पत्थरों से जान से मारा था एक हिंसक हिंदू भीड़ ने।

Update: 2022-05-01 06:09 GMT

तवलीन सिंह: उन दिनों की बात है, जब मैं मोदीभक्त कहलाती थी। इस भक्ति में तब कमी आने लगी जब मोहम्मद अखलाक को उसके घर के अंदर से घसीट कर लाठियों और पत्थरों से जान से मारा था एक हिंसक हिंदू भीड़ ने। गौमाता के नाम पर पहली लिंचिंग। उसके इक्कीस साल के बेटे को भी उसके साथ पीटा गया, लेकिन वह सौभाग्य से बच गया था। अखलाक को सजा-ए-मौत मिली सिर्फ इसलिए कि उसके हत्यारों को शक था कि उसने गाय का गोश्त अपने घर के फ्रिज में रखा हुआ था। मेरी मोदीभक्ति उन दिनों इतनी मजबूत थी कि मुझे यकीन था कि अखलाक की हत्या गलतफहमी के कारण कुछ सिरफिरे गांववालों के हाथों हुई थी, एक सोची-समझी रणनीति के तहत नहीं।

इस विश्वास को लेकर मैं हत्या के कुछ दिन बाद संघ के दिल्ली स्थित मुख्यालय में पहुंची आरएसएस के एक आला अधिकारी से मिलने। हमारी मुलाकात शुरू ही हुई थी कि मैंने अखलाक की हत्या का जिक्र किया, इस उम्मीद से कि आरएसएस के इस आला अधिकारी की आंखों में दो आंसू आ जाएंगे और उनके मुंह से सुनूंगी निंदा के दो शब्द। मगर हैरान रह गई, जब उस आला अधिकारी ने चुपके से कहा, 'हिंदू कम से कम अब मारने तो लगे हैं। पहले मरते थे, लेकिन मारते नहीं थे।'

इन शब्दों ने मुझे याद दिलाया कि आरएसएस के सदस्य और इस संस्था के करोड़ों समर्थक ऐसा मानते हैं कि हिंदू बुजदिल हैं और कभी लड़ नहीं सकते हैं। एक फौजी की बेटी होने के नाते मेरा सारा बचपन गुजरा था भारतीय सेना की गोद में, सेना की छावनियों में। इन छोटे फौजी शहरों में मुझे मिले कई बहादुर और काबिल हिंदू जवान और अफसर। सो, समझना मुश्किल है कि हिंदुओं की बुजदिली का विचार आया कहां से? लता मंगेशकर का वह गाना ही सुन लेते संघ परिवार के विचारक, जिसकी सबसे मशहूर पंक्ति है, 'कोई सिख, कोई जाट, मराठा, कोई गुर्खा कोई मदरासी'। क्या ये सब मुसलमान थे? अगर हिंदू हैं, जो वास्तव में कायर हैं, तो वे हैं आरएसएस के समर्थकों में। कायरता की पहचान है भीड़ इकट्ठा करके किसी निहत्थे को जान से मारना।

समस्या यह है कि ऐसे कायरों को संरक्षण मिल रहा है देश के शासकों से। पिछले दिनों जो हिंसा भड़की है देश भर में, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उसकी अभी तक खुल कर निंदा प्रधानमंत्री ने एक बार भी नहीं की है। इस बात को लेकर मुझे निजी तौर पर तकलीफ हुई है, क्योंकि मेरा मानना है कि गुजरात के 2002 वाले दंगों को लेकर उनको जरूरत से ज्यादा बदनामी झेलनी पड़ी, सिर्फ इसलिए कि वह पहला सांप्रदायिक दंगा था, जिसे हमने टीवी पर देखा।

सोनिया गांधी कह सकीं शान से कि मोदी 'मौत का सौदागर' है। भूल गर्इं मैडमजी कि उसके पतिदेव ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा सिखों के कत्लेआम को सही ठहराया था इस आधार पर कि 'बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है'। अटल बिहारी वाजपेयी ने उनको याद दिलाया कि धरती जब हिलती है तब पेड़ गिरते हैं। मोदी ने कभी 2002 के दंगों को सही नहीं ठहराया है और न ही किसी अदालत या जांच समिति ने उन दंगों में मोदी का हाथ पाया है। गुजरात में जो दंगे हुए थे 2002 में, वैसे कई दंगे हुए हैं कई बार 'सेक्युलर' मुख्यमंत्रियों के शासनकाल में।

मोदी के दौर में जो दंगे हुए उनमें हिंदू-मुसलिम दोनों मरे। सो, उनको जनसंहार कहना गलत है। जनसंहार एक बार ही हुआ है और वह था 1984 में दिल्ली में जब हजारों सिख मारे गए थे और एक भी हिंदू नहीं मरा। अजीब बात है कि इसका दोष कभी राजीव गांधी के सिर नहीं लगा। राजीव गांधी को कभी अमेरिका ने वीजा देने से मना नहीं किया और अपने देश में उनकी कोई बदनामी नहीं हुई।

मैंने मोदी का समर्थन किया, क्योंकि उनके साथ नाइंसाफी की थी मीडिया ने। समर्थन इसलिए भी किया, क्योंकि 2013 में कांग्रेस पार्टी सिकुड़ कर राजनीतिक दल न रह कर सिर्फ सोनिया गांधी और उनके बच्चों की निजी कंपनी बन गई थी। यही विचार देश भर में मतदाताओं का था, सो मोदी एक बार नहीं, दो बार प्रधानमंत्री बने हैं। इस दौरान उनके माथे पर जो दाग था वह तकरीबन मिट गया है, इसलिए समझ में नहीं आता कि अब क्यों अपने आप को बदनाम होने दे रहे हैं दुनिया की नजरों में।

पिछले हफ्ते मुसलमानों का 'जनसंहार' करवाने का इल्जाम उन पर दो जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने लगाया और दुनिया भर के मीडिया में अब चर्चा है भारत की 'बुलडोजर नीति' की। मोदी निजी तौर पर इतने बदनाम हुए हैं कि इन मानवाधिकार संस्थाओं ने उनकी तुलना हिटलर से करना शुरू कर दी है। कहने लगे हैं मानवाधिकारों के चौकीदार कि बिल्कुल वैसे जैसे हिटलर ने यहूदियों के जनसंहार से पहले उनकी दुकानें, उनके रोजगार के साधन, उनके उपासनागृहों पर पाबंदियां लगा दी थी, वैसा मोदी कर रहे हैं भारत में मुसलमानों के साथ।

आरोप बेबुनियाद नहीं है। ऐसा हो रहा है उन राज्यों में, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। ठेलेवालों के ठेले तोड़ दिए गए हैं, हलाल मांस का बहिष्कार किया जा रहा है और हर दूसरे दिन किसी गरीब मुसलमान को जेल में डाला जा रहा है कभी लव जिहाद के बहाने, तो कभी देशद्रोह के बहाने। उस तरफ हैं वे भगवापोश 'संत', जो खुल कर कह रहे हैं कि मुसलमानों को समाप्त करने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री के मुंह से अभी तक निंदा के दो शब्द नहीं हमने सुने हैं, सो जहां वे अपने आप को विश्वगुरु के रूप में देखना चाहते हैं, उनको देखा जा रहा है एक तानाशाह के रूप में। क्या वे ऐसा चाहते हैं?


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