राजद्रोह कानून के विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप दुरुपयोग का है। इसके लिए कानून का उपयोग करने वाला तंत्र जिम्मेदार है, कानून नहीं। अवैध हथियार रखना अपराध है। इसके लिए शस्त्र अधिनियम है। यह कानून समाज के लिए उपयोगी है, लेकिन पुलिस इसी कानून में निर्दोषों को भी जेल भेजती है। क्या इसी आधार पर कानून समाप्त करना सही हो सकता है? यहां तमाम कानूनों का दुरुपयोग होता है, लेकिन मात्र दुरुपयोग के आधार पर ही कानून समाप्ति का कोई औचित्य नहीं है। दुरुपयोग रोकना बहुत जरूरी है। इसके लिए कानून प्रवर्तित करने वाले तंत्र के पेच कसने की जरूरत है। राजद्रोह संबंधी कानून के विरुद्ध दूसरा मुख्य आरोप विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक होना है। विचार अभिव्यक्ति संविधान का मौलिक अधिकार है, लेकिन यह निरपेक्ष नहीं है। असीम भी नहीं है। इससे जुड़े अनुच्छेद 19 में विचार स्वातंत्र्य पर 'भारत की प्रभुता, अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था और न्यायालय अवमान आदि के बंधनÓ हैं। यहां विचार अभिव्यक्ति के बहाने राष्ट्र की संप्रभुता अखंडता से खिलवाड़ की छूट नहीं है। ऐसा खिलवाड़ देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आ सकता?
राजद्रोह कानून की संवैधानिकता का परीक्षण उचित है। वर्ष 1962 में सर्वोच्च न्यायपीठ ने केदारनाथ मामले में 124ए की संवैधानिकता का परीक्षण किया था और इसे संवैधानिक घोषित किया था। यह भी कहा था कि 'नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का पूरा अधिकार है बशर्ते वे हिंसा के विचार से दूर रहें।Ó भारत में सरकारों की आलोचना होती है। असहमति के अवसर हैं। विचारधाराओं में टकराव भी हैं। मूलभूत प्रश्न है कि क्या राष्ट्रीय अखंडता और संप्रभुता पर भी आक्रमण करना सिर्फ सरकार की ही आलोचना है? भारत के लोग देश से भावात्मक लगाव रखते हैं। देश की धरती को भारत माता कहते हैं। वंदे मातरम् हमारा राष्ट्रगीत है। पं. नेहरू ने भी 'डिस्कवरी ऑफ इंडियाÓ में देश की धरती और लोगों को भारत माता बताया है। भिन्न-भिन्न समूहों द्वारा भावनाएं आहत होने की चर्चा बहुधा चलती है। राष्ट्रीय अखंडता का अपमान देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आ सकता? कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजद्रोह की चर्चा इन शब्दों में की है, 'यदि साम आदि उपायों से राजद्रोहियों को शांत न किया जा सके तो दंड का प्रयोग होना चाहिए।Ó
राजद्रोह राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती है। भारत में राजद्रोह की घटनाएं घटित होती रहती हैं। कभी करनी द्वारा और बहुधा कथनी द्वारा। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नारेबाजी हुई, 'भारत तेरे टुकड़े होंगे।Ó राष्ट्र तोड़क इस नारेबाजी को राजद्रोह नहीं तो क्या सुभाषित की श्रेणी में रखेंगे? दूसरी नारेबाजी और भी आग लगाऊ है, 'अफजल हम शर्मिंदा हैं। तेरे कातिल जिंदा हैं।Ó यह दोष सिद्ध भारत विरोधी राजद्रोही आतंकी का महिमामंडन है। क्या यह विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का खतरनाक दुरुपयोग नहीं है? इसे राजद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता? पाकिस्तानी झंडे लहराना राष्ट्रीय अखंडता व संप्रभुता पर सीधा हमला है। यह सरासर राजद्रोह है। माओवादी हिंसा राष्ट्र राज्य से युद्ध है। ऐसी सारी घटनाएं विचार और मंसूबे देशद्रोह हैं। ये राजद्रोह की ही श्रेणी में आती हैं। दंड संहिता की 124ए में इनका विचारण संभव है। राष्ट्र राज्य की अस्मिता का विधिक संरक्षण जरूरी है। भारत में विधि का शासन है। यहां प्रत्येक समस्या का समाधान विधि द्वारा ही होता है।
सक्रिय राष्ट्र विरोधी शक्तियों से निपटने के लिए कानून आवश्यक हैं। ये ताकतें किसी न किसी रूप में अपने मंसूबे पूरे करने में लगी हैं। आतंकवादियों की हरसंभव सहायता वही उपलब्ध कराते हैं। राष्ट्र की आंतरिक रक्षा के लिए 124ए की अपनी उपयोगिता है। इसके दुरुपयोग की चर्चा नई नहीं है। दुरुपयोग रोकने के लिए इसी कानून में कतिपय संशोधन संभव हैं। विधि प्रवर्तक तंत्र को भी दुरुस्त करना चाहिए। इस कानूनी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। माननीय न्यायालय की यह बात सही है कि इस कानून में जवाबदेही नहीं है। न्यायपीठ ने इस कानूनी प्रविधान की संवैधानिकता जांचने का निश्चय किया है। यह अच्छी बात है, लेकिन संवैधानिकता के साथ इसकी उपयोगिता का निरीक्षण भी जरूरी है। दुनिया के सभी कानूनों का उद्देश्य उपयोगिता ही होता है। उपयोगिता समाप्ति के बाद कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। तब उसे समाप्त कर देना ही उचित रहता है।
न्यायमूॢत रमना ने कहा है कि 'राजद्रोह कानून पर विचार अभिव्यक्ति के लिटमस टेस्ट से परीक्षण का समय आ गया है।Ó अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने तर्क दिया है कि दुरुपयोग रोकने के लिए, 'कुछ मार्गदर्शी रक्षोपाय जोड़कर कानून का सही लक्ष्य पाया जा सकता है।Ó उनके अनुसार इस कानून का सुनिश्चित उद्देश्य व प्रयोजन है। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है। यह खूबसूरत मौलिक अधिकार है, लेकिन राष्ट्रीय संप्रभुता अखंडता के तोड़को के विरुद्ध विधिक कार्रवाई का कानून भी जरूरी है। राजद्रोह असाधारण प्रकृति का अपराध है। इसलिए कानून की उपयोगिता है। इस दृष्टि से वेणुगोपाल के सुझाव उपयोगी हैं। मूल समस्या कानून के दुरुपयोग की है, कानून समाप्त करने की नहीं है। माननीय न्यायालय ने समग्रता में सुनवाई व विचारण की बात कही है। विश्वास है कि समग्रता में विचारण का फल राष्ट्र हितैषी होगा।