विज्ञान ने विलासिताओं पर ही बड़ा काम किया है और ये शहरों के ही पल्ले पड़ी हैं
जब से सभ्यता ने जन्म लिया, तमाम तरह की हलचलें विज्ञान से जुड़ी रही हैं
डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी का कॉलम:
जब से सभ्यता ने जन्म लिया, तमाम तरह की हलचलें विज्ञान से जुड़ी रही हैं। यह भी स्वीकार लेना पड़ेगा कि शुरुआती दौर में जब सभ्यता का जन्म हो रहा था, तब विज्ञान आवश्यकताओं से ज्यादा जुड़ा था- चाहे घर-बार की बातें हों या खेती-बाड़ी। लेकिन आज विज्ञान की एक अलग पहल भी है और वो ज्यादा विलासिता पर केंद्रित है।
आज चारों तरफ जो भी सुविधाएं विकास का माध्यम बनी हुई हैं और जिनके आधार पर हम देश को विकासशील श्रेणी में रखते हैं, उसका सबसे बड़ा कारण विज्ञान एवं तकनीकी ही है। लेकिन एक अंतर अवश्य है कि तब विज्ञान आवश्यकता और संरक्षण से जुड़ा हुआ था और आज विज्ञान विलासिता और शोषण से जुड़ा है।
जिज्ञासा के विज्ञान आर्थिकी व पारिस्थितिकी को सीधे प्रभावित नहीं करते। आज देश में विभिन्न संस्थान हैं, जो विभिन्न तरह के विज्ञान व तकनीक विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। आज हम विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में जो भी मानव संसाधन तैयार करते हैं, वे देश-दुनिया में कहीं बड़ी भागीदारी करके बड़ा योगदान भी करते हैं। आज विज्ञान के दो रूप बड़े स्पष्ट हैं।
एक इसका मूल स्वभाव जो सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है वो फंडामेंटल साइंस के रूप में जाना जाता है। इसकी दुनिया में हमेशा से आवश्यकता इसलिए रहेगी क्योंकि इसी के आधार पर दुनिया के विभिन्न कार्यों के प्रति समझ बन पाती है। लेकिन दूसरी तरफ ऐसे भी संस्थान हैं जिनका लक्ष्य और उद्देश्य मानव विकास के लिए विज्ञान को विकसित करने की बड़ी भूमिका में है।
लेकिन एक बड़ा सवाल इन सबके बावजूद यह भी है कि ढेर सारे संस्थानों व विश्वविद्यालयों के बाद भी आज देश के साढ़े छह लाख गांव विज्ञान-तकनीकी सामर्थ्य से अछूते हैं। यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा है और स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी इनके सामर्थ्य को बढ़ाने में सफलता नहीं मिली है। जबकि दूसरी तरफ विकसित सुविधाएं, गैजेट्स, कारें व अन्य जो भी जीवन की बेहतर कल्पनाएं हम कर सकते हैं, ये आज शहरों में ही झलकती हैं।
यह भी कहा जाए कि विज्ञान आज कहीं ना कहीं पक्षपाती रहा है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि आज की विज्ञान-तकनीक ने विलासिताओं पर ही बड़ा काम किया है और ये शहरों के ही पल्ले पड़ी हैं। साथ ही आज विज्ञान-तकनीक की प्रासंगिकता भी एक बड़ा मुद्दा है। आज वैज्ञानिक अपनी प्रगति को आंकने के लिए शोधपत्रों को बड़ा माध्यम मानते हैं और उनका एक बड़ा वर्ग नई खोजों की महत्वाकांक्षाओं के चलते ऐसे शोधों पर ज्यादा केंद्रित है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान मिले।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका अपना महत्व है। पर वहीं दूसरी तरफ आज भी कई तकनीक संस्थानों में ज्यादातर शोध पत्रों पर ही जोर है। आज भी ग्राम केंद्रित विज्ञान में हम तकनीकी का ज्यादा दम नहीं भर सकते। और अगर ऐसा कुछ किया भी होगा तो उन्हें गांव तक पहुंचाने के बड़े रास्ते तैयार नहीं हो पाए।
बात साफ है कि आज जब साढ़े छह लाख गांवों की कई आवश्यकताएं व प्राथमिकताएं विज्ञान-लाभ से वंचित हैं तो ऐसे में देश के विज्ञान को ग्राम-केंद्रित होना होगा। और यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि खाली होते गांवों का अगर कहीं कोई समाधान संभव है तो वह इसी पर निर्भर है कि गांव के प्रति विज्ञान जो खेती-बाड़ी, मूल्यवृद्धि, मिट्टी-पानी से जुड़ा है, इन पर हुए शोध कार्यों को गांव तक पहुंचाने की एक बड़ी मुिहम की आवश्यकता है।
विज्ञान को मात्र भोगवादी बनाने के लिए ही उपयोग में न लाएं। उसकी एक अन्य भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के हित को भी साधने में है। यही आज के विज्ञान की सबसे बड़ी चुनौती भी बननी चाहिए। तभी शायद हम गांव और शहर दोनों को मिलाकर बेहतर विकास की कल्पना कर सकते हैं।
विज्ञान को मात्र भोगवादी बनाने के लिए ही उपयोग में न लाएं। उसकी एक अन्य भूमिका प्राकृतिक संसाधनों के हित को भी साधने में है। यही आज के विज्ञान की बड़ी चुनौती भी बने। तभी हम गांव और शहर दोनों को मिलाकर बेहतर विकास कर सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)