संजीवनी सिद्ध हुआ संकल्प: जम्मू-कश्मीर पर भारतीय संसद के संकल्प ने पाकिस्तानी षड्यंत्रों को जवाब देने का किया काम

पाकिस्तान को प्रस्ताव वापस लेना पड़ा

Update: 2021-02-22 15:50 GMT

इंसान की तरह राष्ट्र के जीवन में भी संकल्पों का गहरा असर पड़ता है। एक स्वर में किए गए आह्वान पूरे राष्ट्र को नई दिशा दे सकते हैं। हमारे साथ 27 साल पहले यह घटित हो चुका है। वह पड़ाव था जम्मू-कश्मीर का संकल्प दिवस, जब हमने अपने लड़खड़ाते हुए आत्मविश्वास को पुन: हासिल करने की शुरुआत की थी। 22 फरवरी 1994 को संसद के दोनों सदनों ने एक स्वर से पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत के अभिन्न अंग के रूप में एक बार पुन: निरुपित करते हुए पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले हिस्से को वापस लेने का संकल्प लिया था। बाहरी तौर पर देखने से इसमें कुछ नया नहीं लगता।


संविधान जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानता है
हमारा संविधान जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा मानता है। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन संविधान की प्रस्तावना तथा धारा-3 में भी समग्र जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा माना गया था। इसलिए तकनीकी तौर पर तो यह मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था की घोषणा मात्र थी, किंतु जिस कालखंड में यह संकल्प लिया गया था, वह बहुत महत्वपूर्ण था। उस समय कश्मीर घाटी में 'भारत माता की जय' बोलने का साहस करने वाले गिनती के लोग भी नहीं बचे थे। घाटी में आतंकियों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। प्रशासन उनके नियंत्रण में था। अल्पसंख्यक आबादी को या तो मार दिया गया या उन्हें घाटी से पलायन करने पर मजबूर कर दिया गया था।
सार्वजनिक स्थलों पर तिरंगा फहराने के लिए सुरक्षाबलों की मदद लेनी पड़ती थी

हालत यह हो गई कि सार्वजनिक स्थलों पर तिरंगा फहराने के लिए सुरक्षाबलों की मदद लेनी पड़ती थी। खासतौर से सुरक्षाकर्मी उस समय पाकिस्तान समर्थित आतंकियों के निशाने पर थे। उन पर घात लगाकर हमले की घटनाएं रोजमर्रा की खबरों का हिस्सा थीं। सुरक्षाबलों की जवाबी कार्रवाई को पाकिस्तान मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में प्रचारित कर रहा था। पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं बेनजीर भुट्टो ने इसका बहाना बनाकर कश्मीरी आतंकियों को खुले समर्थन की घोषणा कर दी थी। पाकिस्तानी संसद ने 9 जनवरी, 1990 को एक प्रस्ताव पारित करके जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय को गैर कानूनी घोषित कर दिया था। उनका मनोबल इतना बढ़ा हुआ था कि पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को लागू करने की मांग करनी शुरू कर दी थी और उसके लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाया जा रहा था।


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत अलग-थलग पड़ता जा रहा था

तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के प्रयासों के बावजूद बेनजीर भुट्टो अपने मिशन में सफल होती दिख रही थीं। भारत को इन परिस्थितियों की गंभीरता का अंदाजा तब लगा, जब 1993 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय से जुड़े जान मैलट तथा बाद में रोबिन राफेल अपनी भारत यात्रा के दौरान पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाते दिखे। इस्लामिक देशों का संगठन भी इस मुहिम में शामिल हो गया था और कश्मीर के हालात का जायजा लेने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजने हेतु वीजा की मांग कर दी थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत अलग-थलग पड़ता जा रहा था। यदि उस समय हम एकजुट होकर एक राष्ट्र के रूप में नहीं खड़े होते तो कश्मीर को गंवाने का खतरा पैदा होने लगा था। उन विपरीत परिस्थितियों में भारतीय संसद ने एकजुटता के माध्यम से जो संदेश दिया, उसने आगे बढ़ने की हमारी पीठिका तैयार की थी।
जम्मू-कश्मीर हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है और सदैव रहेगा

कश्मीर के मामले में वह हमारा पुनर्जागरण था। संसद के दोनों सदनों ने देश की जनता की ओर से एक स्वर में संकल्प लिया कि हम भारत के लोग दृढ़तापूर्वक घोषणा करते हैं कि जम्मू-कश्मीर हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है और वह सदैव ही रहेगा तथा भारत से इसे अलग करने के किसी भी प्रयास का हरसंभव साधनों द्वारा प्रतिकार किया जाएगा। इस संकल्प द्वारा यह मांग की गई कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से को तुरंत खाली कर दे, जिस पर उसने आक्रमण के जरिये कब्जा किया और अब तक काबिज है। देश की जनता की ओर से इस प्रस्ताव में यह संकल्प लिया गया कि भारत अपने आंतरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप से बहुत सख्ती से निपटेगा। यह हमारे लिए संजीवनी सिद्ध हुआ। इससे पाकिस्तानी षड्यंत्रों का मुंहतोड़ जवाब देने की शृंखला की जो शुरुआत हुई वह अब तक जारी है। इस संकल्प के पारित होने से पहले ही पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी मोर्चाबंदी कर रखी थी। उसने अपने सहयोगियों तथा इस्लामिक देशों के संगठन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में मानवधिकारों के उल्लंघन के लिए भारत के खिलार्फ ंनदा प्रस्ताव लाने हेतु 27 फरवरी, 1994 को एक प्रस्ताव रखा।
तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने सुरक्षा परिषद में रखा भारत का पक्ष

यदि यह प्रस्ताव पारित हो गया होता तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख खोने के अलावा भारत पर सुरक्षा परिषद की ओर से पाबंदियां भी लगाई जा सकती थी, किंतु उसके केवल पांच दिन पहले ही संसद द्वारा पारित संकल्प ने पूरी बाजी पलट दी। तब संपूर्ण भारत एकजुट होकर उसका सामना करने को तैयार था। हमारा पक्ष रखने के लिए तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के साथ संसद के अनुभवी और ख्यातिलब्ध सदस्यों को भेजा गया था। इसका सकारात्मक असर पड़ा। इंडोनेशिया और लीबिया जैसे देशों ने इस मुहिम से खुद को अलग कर लिया। सीरिया और ईरान ने भी उसमें संशोधन का प्रस्ताव पेश कर दिया। यहां तक की चीन ने भी उससे अपना समर्थन वापस ले लिया।

पाकिस्तान को प्रस्ताव वापस लेना पड़ा

घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि पाकिस्तान को इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा। इस जीत के बाद भारत ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। संसद के माध्यम से पारित उस राष्ट्रीय संकल्प की परिणति 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35-ए की समाप्ति के रूप में प्रत्यक्ष हुई। इससे जम्मू-कश्मीर पर सभी को बराबरी का अधिकार मिला है। आतंकवाद वहां अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और विकासोन्मुखी लोकतंत्र अपनी गति पकड़ चुका है।


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