Vijay Garg: एन.सी.आर. फिर सांसों के संकट से रू-ब-रू है। दिसम्बर में ही दूसरी बार बढ़ते वायु प्रदूषण से निपटने के तात्कालिक उपायों के तौर पर ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप)-4 लागू करना पड़ा है, क्योंकि 301 पार करते ही खतरनाक की श्रेणी में पहुंच जाने वाला वायु गुणवत्ता सूचकांक (ए.क्यू.आई.) फिर से 450 के पार चला गया।
कमर्शियल वाहन छोडि़ए बी.एस.-3 पैट्रोल और बी.एस.-4 डीजल निजी कार तक पर प्रतिबंध है-भले ही आपके पास प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र हो और आपकी कार ‘फिटनैस’ अवधि में भी हो। टैक्सी और दोपहिया वाहनों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। क्या यह अतार्किक नहीं है? कक्षाएं ऑनलाइन हैं तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ का फरमान जारी है। हर काम घर से नहीं हो सकता। जो हो सकते हैं, उनकी भी अनुमति ऑफिस की मर्जी पर निर्भर है। यह समस्या पहली बार भी नहीं। हर साल कम-से-कम 2-3 बार ऐसी नौबत आती है, जब आपातकालीन कदम उठाए जाते हैं। आखिर सरकारें आग भड़कने पर ही कुआं खोदने की मानसिकता से उबर कर आग लगने से रोकने के लिए ही जरूरी एहतियाती कदम क्यों नहीं उठातीं? क्या यह शर्मनाक नहीं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था भारत की राजधानी दिल्ली के निवासियों को पिछले साल सिर्फ 2 दिन ही सांस लेने लायक साफ हवा मिली?
दिल्ली और एन.सी.आर. निवासी भी लगभग पूरे साल प्रदूषित हवा में सांस लेने और तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होने को सालों से अभिशप्त हैं। क्या यह नीति नियंताओं की प्राथमिकताओं पर ही सवालिया निशान नहीं? दिल्ली-एन.सी.आर. के जानलेवा वायु प्रदूषण की चर्चा तो हर साल सर्दियों में हालात बेकाबू हो जाने पर देश-दुनिया में होती है, पर सच यह है कि भारत ‘प्रदूषित राष्ट्र’ बन चुका है। रिसर्च में बताया गया है कि भारत की 81.9 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है, जहां वायु गुणवत्ता का स्तर अपने देश के नैशनल एंबियट एयर क्वालिटी स्टैंडर्ड्स (एन.ए.ए.क्यू.एस.) पर भी खरा नहीं उतरता। साल 2009 में लाए गए एन.ए.ए.क्यू.एस. को भी अपडेट करने की जरूरत बताई जाती रही है। एन.ए.ए.क्यू.एस. के मुताबिक भारत में सुरक्षित वायु गुणवत्ता का मानक पी.एम. 2.5, 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि डब्ल्यू.एच.ओ. 5 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर की सिफारिश करता है।
दिल्ली-एन.सी.आर. में वायु प्रदूषण के संदर्भ में डॉक्टर्स और वैज्ञानिक चेताते हैं कि पी.एम. 2.5 न सिर्फ सांस संबंधी समस्याएं बढ़ाता है, बल्कि ब्लड प्रैशर तथा स्ट्रोक और हार्ट अटैक का खतरा भी बढ़ाता है। एक अध्ययन में यह भी बताया गया कि पी.एम. 2.5 के उच्च स्तर के चलते भारत में हर साल 15 लाख मौतें हो रही हैं, जो देश में होने वाली कुल मौतों का लगभग 25 प्रतिशत है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि देश में हर रोज 6500 लोग प्रदूषण के चलते होने वाली बीमारियों से मर रहे हैं। अब स्कॉटलैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ एंड्रयूज ने अपने शोध में दावा किया है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और दूसरे अंगों के साथ ही हमारी मानसिक स्थिति पर भी गहरा प्रभाव डाल रहा है। लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने से मानसिक रोगों का खतरा बढ़ रहा है। दो लाख लोगों पर किए गए शोध में पता चला कि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड मानसिक विकारों के लिए जिम्मेदार है।
दिल्ली सरकार द्वारा अप्रैल में एन.जी.टी. को सौंपी गई रिपोर्ट में भी दावा किया गया था कि वायु प्रदूषण से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है। छात्रों में पढ़ाई संबंधी परेशानियां और उदासी बढ़ रही है तथा जीवन की चुनौतियों से जूझने की क्षमता कम हो रही है। सुप्रीमकोर्ट ने दिल्ली-एन.सी.आर. में बढ़ते वायु प्रदूषण के मामलों की सुनवाई करते हुए स्वच्छ हवा में सांस लेना मौलिक अधिकार बताया था, पर ये आंकड़े तो बताते हैं कि देश में कहीं भी हवा सांस लेने लायक नहीं है। फिर इन हालात के दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई कौन करेगा और कब? दिल्ली विधानसभा चुनाव की दहलीज पर है। देश और दिल्ली में अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं, जो हर समस्या के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते नहीं थकतीं। फिर भी जानलेवा वायु प्रदूषण चुनावी मुद्दा नहीं बनता, क्योंकि सभी तो शरीक-ए-जुर्म हैं।
पिछले दिनों एक अध्ययन से पता चला कि वायु प्रदूषण से साल में सबसे ज्यादा 12,000 मौतें दिल्ली में होती हैं। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर, 2024 की रिपोर्ट बताती है कि साल 2021 में तंबाकू सेवन से दुनिया भर में 75-76 लाख मौतें हुईं, जबकि वायु प्रदूषण से 81 लाख। तंबाकू सेवन के खतरों के प्रति आगाह करने के लिए सरकारें तमाम तरह के उपाय करती हैं, पर जहरीली हवा पर मौन रहती हैं। क्या इसलिए कि उसके लिए सबसे ज्यादा वे ही जिम्मेदार हैं?
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब