सरदार पटेल को नमन
31 अक्तूबर को स्वतन्त्र भारत को एक संगठित इकाई के रूप में स्वयंभू राष्ट्र बनाने वाले सरदार सरदार पटेल को नमन का जन्म दिवस है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आज 31 अक्तूबर को स्वतन्त्र भारत को एक संगठित इकाई के रूप में स्वयंभू राष्ट्र बनाने वाले लौह पुरुष सरदार सरदार पटेल को नमन का जन्म दिवस है। एकीकृत भारत का गठन 15 अगस्त, 1947 के बाद सबसे कठिन कार्य था क्योंकि चालाक अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र करते समय न केवल इसे दो देशों में बांट दिया था बल्कि इसका शासन साढे़ पांच सौ के लगभग रियासतों के राजाओं व नवाबों के हाथ में दिया था और कह दिया था कि वे अपनी मर्जी के मुताबिक किसी एक देश भारत या पाकिस्तान में अपने विलय का विकल्प चुन सकते हैं अथवा स्वतन्त्र रह सकते हैं। 15 अगस्त, 1947 को पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमन्त्रित्व में भारत की राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ और उसमें सरदार पटेल गृह व उप-प्रधानमन्त्री बने। पूरे भारत को एक इकाई के रूप में खड़ा करना उनका प्रमुख कार्य था। इसके लिए उन्होंने एक कार्य योजना तैयार की जिसके तहत राजे-रजवाड़ों को अपने शासकीय अधिकार लोकतान्त्रिक भारत की सरकार के पक्ष में घोषित करने थे और बदले में प्रिवीपर्स के रूप में उन्हें आर्थिक मुआवजा हर वर्ष मिलना था। इसके साथ ही उन्हें कुछ विशेषाधिकार भी दिये गये जो उनके राजसी तेवरों को बरकरार रखने के सन्दर्भ में थे। लगभग सभी रियासतों ने इस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये परन्तु हैदराबाद के निजाम और जम्मू-कश्मीर के महाराजा व जूनागढ़ के नवाब ने इसे स्वीकार नहीं किया। इनके अलावा कुछ अन्य छोटी रियासतें भी थीं जिनमें भोपाल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। सरदार ने अपने जीवनकाल में ही जूनागढ़ व हैदराबाद जैसी बड़ी रियासतों का विलय भी भारत में करा लिया परन्तु जम्मू-कश्मीर का मामला अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान द्वारा इस रियासत पर हमला किये जाने की वजह से उलझ गया।
15 दिसम्बर, 1950 को सरदार का स्वर्गवास हो गया और उनके जीवित रहते ही भारत का संविधान जब 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ तो सरदार ने कहा कि यह संविधान भारत के लोगों को विकास और नई वैज्ञानिक सोच की तरफ ले जायेगा। उनका कथन बिल्कुल सही साबित हुआ क्योंकि इसके बाद देश ने चहुंमुखी विकास करना शुरू किया और लोकतान्त्रिक भारत में लोगों के मूल नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी सरकारों ने देनी शुरू की। अक्सर यह कहा जाता है कि अगर भारत के प्रधानमन्त्री सरदार पटेल बनते तो भारत की हालत कुछ और होती। इस कथन में कोई वजन इसलिए नहीं है क्योंकि आजादी मिलने के पहले से ही सरदार पटेल ने पं. नेहरू की देशव्यापी लोकप्रियता को देखते हुए उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। पं. नेहरू उस समय देश की युवा पीढ़ी के महानायक थे और उनकी आवाज भविष्य बदलने वाली समझी जाती थी। यहां तक कि जब दिसम्बर 1950 में पं.नेहरू ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के साथ दोनों देशों के अल्पसंख्यकों के नागरिक व धार्मिक अधिकारों को संरक्षित करने हेतु समझौता किया था तो उसके पक्ष में स्वयं सरदार पटेल ने राजनीतिक दलों के बीच अभियान चलाया था। इसकी वजह यही थी कि सरदार पटेल भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की छवि को इसके चहुंमुखी विकास के लिए बहुत जरूरी मानते थे। यह भी संयोग नहीं था कि जब सरदार भगत सिंह की शहादत के बाद 1931 में कराची में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हुआ तो इसकी अध्यक्षता करते हुए उन्हीं की कयादत में भारत के नागरिकों के मूल अधिकारों व नागरिक स्वतन्त्रता की सुरक्षा के साथ ही मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय करने वाला प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाने का वचन भी दिया गया था।
यह एेतिहासिक तथ्य है कि सरदार पटेल ने अप्रैल 1946 में अंग्रेजों द्वारा लाये गये कैबिनेट मिशन के तहत पं. नेहरू के नेतृत्व में गृह व सूचना प्रसारण मन्त्रालयों का जिम्मा संभाला जबकि मुस्लिम लीग की तरफ से लियाकत अली इसमें वित्त विभाग के प्रभारी थे मगर तत्कालीन वायस राय लार्ड वैवेल बहुत ही शातिर दिमाग थे और भारत को हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बांटना चाहता था जिसमें उसकी मदद मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे। अंग्रेजों ने मई 1946 में प्रस्ताव दिया कि हिन्दू व मुस्लिम बहुल आबादी वाले राज्यों को अलग-अलग बांट दिया जाये। इसके विरोध में पटेल समेत पूरी कांग्रेस कार्य समिति थी। चूंकि 1945 में अंग्रेजी शासन में हुए प्रान्तीय एसेम्बली चुनावों में बंगाल, पंजाब व सिन्ध में कांग्रेस पार्टी को बहुमत नहीं मिला था और यहां मुस्लिम लीग को अच्छी खासी सफलता मिली थी तो लार्ड वैवेल ने घोषणा की कि ये चुनाव 1935 के भारत सरकार कानून के तहत न होकर 1919 के कानून के तहत हुए हैं जिसमें भारत को विभिन्न समूहों व जातियों का समुच्य माना गया था। अतः इसका विभाजन किया जा सकता है जिससे अलग पाकिस्तान बनाने के जिन्ना के कथन को समर्थन मिल गया वरना 1935 के भारत सरकार कानून के तहत समूचे भारत को एक संघीय क्षेत्र घोषित किया गया था। अतः गृह मन्त्री के नाते सरदार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया था कि वह भारत के भीतर ही हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर विभिन्न टुकड़े देखे अथवा केवल दो देश देखे। इसी वजह से पाकिस्तान के गठन को उन्होंने स्वीकृति प्रदान की थी मगर सरदार ने तभी स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान को अपने अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा हर कीमत पर करनी पड़ेगी।
जब आजादी वाले वर्ष 1947 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए आचार्य कृपलानी व सरदार पटेल में चुनाव हुआ था तो अधिसंख्य प्रदेश कांग्रेस समितियों ने सरदार पटेल का समर्थन किया था क्योंकि इस पद पर आसीन व्यक्ति ही स्वतन्त्र भारत का पहला प्रधानमन्त्री बनना था तो स्वयं महात्मा गांधी ने हस्तक्षेप करते हुए सरदार पटेल की दावेदारी को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि यदि मैं सरदार का समर्थन करता हूं तो लोग कहेंगे कि एक गुजराती ने दूसरे गुजराती का पक्ष लिया इसलिए प्रधानमन्त्री पद पं. जवाहर लाल नेहरू को दिया जाना सर्वथा उचित होगा किन्तु पटेल ने उप-प्रधानमन्त्री बनते ही पहला कार्य भारत को जोड़ने का किया और पूर्व राजा-महाराजाओं को लोकतान्त्रिक भारत में उनकी हैसियत बताने का किया। असल में सरदार भारत में लोकतन्त्र की जड़ें ही जमा रहे थे जब उन्होंने यह कहा था कि स्वतन्त्र भारत में किसी राजा और रंक के राजनीतिक व नागरिक अधिकार बराबर के होंगे। लोकतन्त्र व भारत की एकता के इस महानायक को शत्-शत् प्रणाम। उनके बारे में एक कवि की ये पंक्तियां उनके पूरे व्यक्तित्व का चित्रण कर देती हैंः
''रहा खेलता सदा समझ कर इस जीवन को खेल
राजनीति का कुशल खिलाड़ी वह सरदार पटेल।''