सफरनामा: लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय का!!

कहने को तो आज ये कॉलेज खुल गया है

Update: 2021-11-20 17:08 GMT

ज्योत्स्ना तिवारी कहने को तो आज ये कॉलेज खुल गया है. यहां की लाइब्रेरी भी खुल गई है. पर न जाने वो चेहरे वो आवाज़ें जिनसे ये ऐतिहासिक इमारत आबाद रहा करती थी, वो कहां गुम हो गईं हैं. कोरोना के बाद से यहां ज़रा सन्नाटा सा छाया रहता है. हालंकि, इक्का दुक्का कक्षाओं से रह रह कर, कुछ आवाज़ें जरूर आती हैं. पर पहले सी बात नहीं रही जब सैंकड़ों विद्यार्थी अपनी साइकिलों, स्कूटियों, बाईकों से यहां अंदर बाहर करते रहते थे. क्या रौनक थी. क्या चहल पहल थी. क्या शान थी. और ये सब डेढ़ साल पहले की ही तो बात थी.

डेढ़ साल पहले का माहौल
इस इमारत की अपनी एक शान, एक गरिमा है. इसके पोर्टिको के नीचे इसकी देहलीज़ को हाथ से छू कर, हाथ सर माथे पर लगा कर ही, यहां के छात्र अंदर कदम रखते हैं. मानो ये एक मंदिर हो. और ये मंदिर है भी. ये मंदिर है मां सरस्वती का. नाद, नाट्य और संगीत का मंदिर.
इस संगीत के मंदिर में कदम रखते ही कानों में पड़ने लगती हैं सुमधुर आवाजें. इधर बाएं वाले कमरे से राग गौड़ सारंग में छोटे ख्याल की बंदिश सुनाई दे रही है. उधर देखिए, दाहिनी तरफ़ एमपीए के छात्र, हाथ में तानपुरा ले राग शंकरा की तिहाई लगा रहे हैं. थोड़ा आगे कदम बढ़ाइए, भरतनाट्यम की कक्षा से घुंघरुओं की आवाज़ें सुनाई देगी. और फिर बारी आती है कथक की. ये वो नाट्य विद्या है जिसके लिए ये संस्थान ही नहीं पूरी अवध की धरती ही मशहूर है.
इस दो मंज़िला इमारत का दूसरा माला भी है. ये माला भी तरह तरह के वाद्ययंत्रों की आवाज़ों से गुलज़ार रहता है. वीणा, तानपुरा, हारमोनियम, सारंगी, वायलिन और तबला…
क्या है ना, तबले की थाप से इस इमारत की सांसे चलती हैं. कथक पर थिरकते पैर, इस इमारत की धड़कनों को बनाए रखते हैं. नई उम्र की नई फ़सल, इस पुरानी इमारत को, जवान बनाए रखने का काम करती है. इस पुरानी इमारत से कुछ रवानी, उधार में, बगल वाले बाग भी पाते हैं. क्योंकि अक्सर इस कॉलेज के विद्यार्थी, साआदत अली खान और खुर्शीद ज़ादी के मकबरे वाले टीले पर संगीत का रियाज़ करते पाए जाते हैं.
ये वो छब है, ये वो स्वरलेहरियां हैं जिनको देख सुन वाजिद अली शाह की आत्मा भी सुकून लेती होगी कि उनके द्वारा बनाई गई न सिर्फ़ इस कॉलेज की इमारत बल्कि उनके द्वारा बनाया गया ये पूरा कैसर बाग हेरिटेज ज़ोन, आज भी एक ज़िंदा संस्कृति का प्रतीक है. इस हेरिटेज इमारत/ भातखंडे संगीत महाविद्यालय का आज भी नृत्य और संगीत से गहरा ताल्लुक है. इस ताल्लुक को बनाए रखने में दो लोगों की अहम भूमिका रही है l एक तो विष्णु नारायण भातखंडे जी और दूसरे, मशहूर हारमोनियम प्लेयर, राजा ठाकुर नवाब अली साब की.
परी खाना
अवध के हरदिलअज़ीज़ नवाब, नवाब वाजिद अली शाह ने इस शानदार इमारत का निर्माण किया था. बड़े नाजों से उन्होंने इसे नाम दिया था, "परी खाना". बागीचे, फव्वारे, कैसर बाग परिसर, ये पूरा क्षेत्र उनके समय में एक शानदार सांस्कृतिक माहौल लिए हुए था.
परीखाना यानि परियों का निवास. यहां शाही संरक्षण में विशेषज्ञ-शिक्षकों द्वारा सैकड़ों सुंदर और प्रतिभाशाली लड़कियों को संगीत और नृत्य की शिक्षा दी जाती थी. इन लड़कियों को सुल्तान परी, माहरुख परी आदि नामों से जाना जाता था.
वाजिद अली शाह
वाजिद अली शाह के समय में "जोगिया जशन" के नाम से एक शानदार सांस्कृतिक मेला आयोजित होता था. इसमें लखनऊ के आम और खास, योगियों के रूप में भाग लेते थे. खुद वाजिद अली शाह भी इस मेले में जोगी का रूप धारण कर उपस्थित रहते थे. बाद में जब कैसरबाग बारादरी बनाई गई, तो वहां रंग से भरी कविताओं, गीतात्मक रचनाओं और कथक नृत्यों से सजे शानदार कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा.
वाजिद अली शाह खुद एक कवि, नाटककार, नर्तक और कला के महान संरक्षक थे. उन का उपनाम "कैसर" था और वो अख्तरपिया" के छद्म नाम से रचनाएं लिखते थे.
उन्हें भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक और ठुमरी गायन शैली के पुनरुद्धार के लिए व्यापक रूप से श्रेय दिया जाता है.
अवध की संस्कृति जो उनके समय पर पूरे शबाब पे थी, उसपे अंग्रेजी हुकूमत और सियासत का ग्रहण लग गया. अवध के "कैसर" को अवध छोड़ना पड़ा. निर्वासन से दुखी नवाब के मन की बात भी, ठुमरी के रूप में ही निकली. इस ठुमरी के "सूफीयाना बोल" हर लखनऊ वाले के दिल को छू गए…"बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए".
खैर,परिवर्तन अपरिहार्य है. वाजिद अली शाह के बनाए हुए परी खाने को कई दशकों बाद एक नई जिंदगी तब मिली जब महाराष्ट्र के विष्णु नारायण भातखंडे और अवध के राजा ठाकुर नवाब अली की, लाहौर में मुलाक़ात हुई. दोनों में दोस्ती हो गई. इसलिए अब आते हैं इन दोनों पर…
विष्णु नारायण भातखंडे और राजा ठाकुर नवाब अली
दरअसल, पहले संगीत की पुस्तकें प्रचलित नहीं थीं. गुरु–शिष्य परम्परा के आधार पर ही लोग संगीत सीखते थे; पर पंडित जी और राजा ठाकुर अली इसे सर्वसुलभ बनाना चाहते थे. वे चाहते थे कि संगीत का कोई पाठ्यक्रम हो तथा इसके शास्त्रीय पक्ष के बारे में भी विद्यार्थी जानें. गुरु शिष्य परंपरा में "नेपोटिज्म" खत्म करने के लिए रागों का ध्वनिमुद्रण/नोटेशन, निर्धारित पाठ्यक्रम और संगीत विद्यालयों की स्थापना, जरूरी कदम थे.
ऐसे में भातखंडे जी देश भर में संगीत के अनेक उस्तादों व गुरुओं से मिले. अधिकांश गुरू उनसे सहमत नहीं थे. बड़े संगीतज्ञ तो अपने राग तथा बंदिशें सबको सुनाते भी नहीं थे. कभी-कभी तो अपनी किसी विशेष बंदिश को वे केवल एक बार ही गाते थे,जिससे कोई उसकी नकल न कर ले. नोटेशन की तब कोई व्यवस्था नहीं थी. कई बार तो ऐसा होता था कि पंडित जी इन उस्तादों के कार्यक्रम में पर्दे के पीछे या मंच के नीचे छिपकर बैठते थे.
उनको गाते हुए सुनते और स्वरलिपियां लिखते जाते. इसके आधार पर बाद में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे. आज अगर छात्रों को पुराने प्रसिद्ध गायकों की स्वरलिपियां उपलब्ध हैं, उनका बहुत बड़ा श्रेय पंडित भातखंडे को है और उनकी इस संगीत यात्रा में अगर किसी एक शख़्स का सबसे ज़्यादा योगदान रहा तो वो थे राजा ठाकुर नवाब अली.
मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक
राजा ठाकुर नवाब अली ने ही भातखंडे जी को उन महान संगीतकारों से मिलवाया था जिनसे मिल कर भातखंडे जी ने अपनी नोटेशंस लिखीं. इस तरह दोनों संगीत साधकों ने संगीत संबंधी कालजई पुस्तकों का सृजन किया. और फिर दोनों ही के अथक प्रयासों के कारण और राय उमानाथ बली एवं राजराजेश्वर बली, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के शिक्षा मंत्री हुआ करते थे, के सहयोग से 1926 में मेरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक की स्थापना हुई. इस संस्था का उद्‌घाटन अवध प्रान्त के तत्कालीन गर्वनर सर विलियम मैरिस के द्वारा किया गया तथा उन्ही के नाम पर इस संस्था का नाम मैरिस काॅलेज ऑफ़ म्यूज़िक रखा गया.
भातखंडे संगीत महाविद्यालय
1966 में मेरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक को
'भातखण्डे हिन्दुस्तानी संगीत विद्यालय' नाम प्रदान किया गया. और फिर भारत सरकार ने इस संस्थान को 24 अक्टूबर 2000 में सम विश्वविद्यालय घोषित कर इसे भारत का एक मात्र संगीत विश्वविद्यालय होने का गौरव प्रदान किया.
नाम, ज़रूर बदलते रहे. परी खाना, मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक और आज भातखंडे संगीत महाविद्यालय. पर इस डेढ़ सौ साल पुरानी शानदार इमारत ने अपना एक भरपूर जीवन जिया है. हमें यकीन है, आगे भी जियेगी. अभी कुछ करोना की मार है, लेकिन हमें यकीन है बहारें फिर लौट कर आएंगी. और जब बहारें लौटेंगी तो एक बार फिर सारंगी, तबला, तानपुरे से स्वरलेहरियाँ निकलने लगेंगी. और एक बार फिर वाजिद अली शाह, विष्णु नारायण भातखंडे, राजा ठाकुर नवाब अली की आत्मा को सुकून होगा, आत्मा को ठंडक मिलेगी… धन्यवाद


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