रूस-यूक्रेन युद्ध का सबब
रूस-यूक्रेन युद्ध के सन्दर्भ में यह समझे जाने की बहुत जरूरत है कि यह लड़ाई यूक्रेन ने अपनी धरती पर स्वयं आमन्त्रित की है क्योंकि वह पश्चिम यूरोपीय देशों व अमेरिका के चढ़ावे में आकर अपनी ही जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा था।
आदित्य नारायण चोपड़ा: रूस-यूक्रेन युद्ध के सन्दर्भ में यह समझे जाने की बहुत जरूरत है कि यह लड़ाई यूक्रेन ने अपनी धरती पर स्वयं आमन्त्रित की है क्योंकि वह पश्चिम यूरोपीय देशों व अमेरिका के चढ़ावे में आकर अपनी ही जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा था। केवल नाटो देशों का सदस्य बनने की जिद के पीछे उसने रूस के साथ अपने पुराने व ऐतिहासिक रिश्तों पर खाक डाल कर ऐसा सपना पालना चाहा जिससे रूस की सुरक्षा को लगातार खतरा बना रहे और उसकी वजह से उसकी आर्थिक प्रगति में बाधा पड़े और उसका पूरा ध्यान सामरिक सुरक्षा की तरफ ही लगा रहे। स्वतन्त्र व संप्रभु राष्ट्र होने का मतलब यह नहीं होता कि वह किसी दूसरे देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक वातावरण तैयार करे। दुर्भाग्य से यूक्रेन ने रूस के साथ यही किया है और ऐसा करते समय उसने रूस की यह अपील भी सुनी कि वह अपने क्षेत्र में सामरिक शक्ति सन्तुलन के साथ खिलवाड़ न करे। पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट है कि किस प्रकार नाटों देश एकत्र होकर अपनी ताकत के आगे विभिन्न देशों को दबाते रहे हैं और अमेरिका के नेतृत्व में मनमानी करते रहे हैं। जाहिर है कि 1991 में सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद दुनिया में सामरिक प्रतिस्पर्धा की संभावनाएं खत्म हो गई थीं मगर इसके बावजूद नाटो देशों की संख्या में वृद्धि होती गई। इसका क्या सबब हो सकता था ? इसका सबब केवल एक ही था कि विघटित सोवियत संघ से निकले रूस को इतना अधिक दबा दो कि उसकी सामरिक शक्ति तो एक तरफ, उसकी आर्थिक प्रगति भी अवरुद्ध हो जाये। मगर अमेरिका व पश्चिमी देश ऐसा करने में कामयाब नहीं हो सके और रूस ने राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में एक ओर जहां अपना आर्थिक विकास किया वहीं सामरिक सामग्री के क्षेत्र में भी अपनी प्रगति की रफ्तार नहीं छोड़ी। अतः अमेरिका व पश्चिम यूरोप के देशों ने श्री पुतिन के व्यक्तित्व पर ही व्यंग्यात्मक तरीके से हमला करना शुरू किया जिसका श्री पुतिन पर कोई असर नहीं पड़ा और उनके नेतृत्व में रूस लगातार पिछले दस वर्षों से प्रगति कर रहा है और दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अपने पुराने दोस्ताना रिश्ते भी निभा रहा है। सोवियत संघ के पूर्ववर्ती देशों में प. यूरोपीय देशों का एक ही एजेंडा रहा कि जैसे भी हो किसी प्रकार सोवियत संघ में शामिल रहे सभी यूरोपीय महाद्वीप के देश उसके साथ आयें और रूस के लिए एक चुनौती बने रहें।इस काम में अमेरिका व यूरोप एक हद तक सफल भी रहे मगर यूक्रेन के पूर्वी इलाकों में ही जब 2014 में इसकी राजधानी कीव में बैठी सरकार के खिलाफ विद्रोह होना शुरू हुआ तो यूक्रेन ने इस इलाके के लोगों पर जुल्म करने शुरू किये जिनका मानवीय आधार पर रूस ने विरोध किया क्योंकि वे रूसी नस्ल के ही लोग थे। मगर यूक्रेन के शासकों ने रूस की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया उल्टे नाटो का सदस्य बनने की जिद पकड़ ली जिससे पूर्वी यूक्रेन में बैठे रूस समर्थक लोगों की मदद करने से रूस न केवल पीछे हटे बल्कि अपनी सुरक्षा की ज्यादा चिन्ता करे। मगर पूर्वी यूक्रेन के दो प्रान्तों के लोगों ने ही स्वयं को यूक्रेन से अलग करके पृथक गणराज्य बनाने की घोषणा कर दी थी। रूस चाहता था कि इन क्षेत्रों की आवाज भी उसी तरह सुनी जाये जिस तरह 1991 में सोवियत संघ से अलग होने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रों की बात सुनी गई थी और उन्हें स्वतन्त्र देश के रूप में मान्यता दी गई थी परन्तु यूक्रेन राष्ट्रपति जेलेंस्की ने उल्टे रूस को पश्चिमी देशों के समर्थन की धमकी दी और रूस के साथ बातचीत द्वारा इस समस्या का हल निकालने में आनाकानी बरती जिसकी वजह से रूस ने अब आकर पूर्वी यूक्रेनी प्रान्तों की स्वतन्त्रता को मान्यता देकर सामरिक कार्रवाई शुरू कर दी। यूक्रेन नाटो देशों की सदस्यता की जिद पर अड़े रह कर रूस को सबक सिखाना चाहता था मगर उल्टे रूस ने ही उसे पहले सबक सिखाने की पहल शुरू कर दी। संपादकीय :दुनिया में मचेगा हाहाकारअमीर-गरीब की बढ़ती खाईरूस के ऊपर थोपा हुआ युद्धसस्ती हो मेडिकल शिक्षासत्यम् शिवम् सुन्दरम्उत्तर प्रदेश में कम मतदानसमझने वाली बात यह है कि पूरे मामले में यूक्रेन ही ASI जिद पर अड़ा लगता है जिससे नाटों व प. यूरोपीय देशों का सामरिक दबदबा रूसी क्षेत्र में कायम हो जाये और रूस भीगी बिल्ली बना बैठे रहे। रूस विश्व का तीसरा नम्बर का पैट्रोलियम कच्चा तेल पैदा करने वाला देश है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि कुछ अरब देशों के साथ भी उसके अच्छे सम्बन्ध रहे हैं इसी वजह से इस क्षेत्र में भी अमेरिका व रूस के बीच लाग-डांट रही है। वह राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद का वीटो शक्ति प्राप्त देश भी है और पांच परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों में उसकी गिनती होती है। राष्ट्रसंघ की संरचना में बदलते समय के अनुसार परिवर्तन का भी वह पक्का पक्षधर है जबकि पश्चिमी देश इस बारे में केवल जबानी-जमाखर्च ही करते रहे हैं। यूक्रेन को चढ़ा कर पश्चिमी देश अपना उल्लू ही सीधा कर रहे हैं और रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबन्ध लगा कर उसके प्रभाव को कम करने के उपाय कर रहे हैं। भारत के सच्चे और परखा हुआ मित्र देश पश्चिमी देशों के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही किरकिरी बना रहा है क्योंकि यह विश्व में विकाशील देशों के हक में खड़ा रहने वाला देश माना जाता है।