Russia Ukraine Crisis: क्या यूक्रेन में रूस की रणनीति से प्रेरणा लेकर चीन भारत के पूर्वोत्तर में कोई बड़ा खेल कर सकता है?
शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन विस्तारवाद और आक्रामकता के मौके तलाशते हुए अपने पड़ोसियों,
अरूप घोष.
यूक्रेन पर रूस (Russia Ukraine Crisis) के विवादास्पद और विनाशकारी आक्रमण और खतरनाक मंसूबों से सीमा पर चीन (China) की मौजूदगी से भारत को सतर्क रहने की जरूरत है. दोनों महाशक्तियों रूस और चीन पर इस वक्त निरंकुश लोगों का शासन है. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) "मातृभूमि की रक्षा करने" का कार्ड खेल कर रूस पर ज्यादा नियंत्रण के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. इस मकसद से उन्होंने एक ही झटके में यूक्रेन और नाटो दोनों को निशाना बनाया है.
शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन विस्तारवाद और आक्रामकता के मौके तलाशते हुए अपने पड़ोसियों, खास तौर पर भारत, का रुख तौल रहा है. चीन भारत के साथ खुलेआम जंग का विकल्प नहीं चुन सकता. फिर भी वह छोटी मोटी झड़प के साथ युद्ध की धमकी देकर तोल-मोल करने की फिराक में रहता है. चीन का असल इरादा बगैर लड़े जीतने का है. चीन के प्राचीन सैन्य रणनीतिकार सुन झू मानते थे कि "बिना किसी लड़ाई के दुश्मन को वश में करने की क्षमता ही सर्वोच्च रणनीति है."
जैसे-जैसे तनाव बढ़ रहा है, दूसरे देश के हिस्सों पर कब्जा करने के रूसी और चीनी रवैये के भारत जैसे लोकतंत्र के लिए गहरे अर्थ हो सकते हैं. इससे भारत को पूर्वोत्तर और मध्य यूरोप को लेकर अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करना चाहिए. क्वॉड गठबंधन से ज्यादा लाभ लेने के साथ भारत को चीन को लेकर अत्यधिक सतर्कता बरतने की जरूरत है. वहीं इस क्षेत्र के छोटे लोकतंत्रों के लिए संदेश है कि युद्ध के खतरे को रोकने के लिए वे बड़े और मजबूत राष्ट्रों के साथ गठबंधन बनाएं.
पुतिन के इरादे क्या हैं?
तो, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के मन में आखिर है क्या? इस वक्त निर्णायक मुठभेड़ क्यों? नाटो, यूक्रेन के लिए इसका क्या महत्व है? और सबसे महत्वपूर्ण ये है कि भारत के लिए इसमें क्या सबक हैं? यूक्रेन पर ऐतिहासिक दावा ठोंकने की अपनी योजना के हिस्से के रूप में पुतिन ने यूक्रेन के डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों को पहले स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने के आदेश पर हस्ताक्षर किए, जिससे इस क्षेत्र में तनाव बढ़ गया. फिर पुतिन ने पूर्वी यूक्रेन में सैनिकों को भेजा और उसे "शांति स्थापना" मिशन बताया.
स्वतंत्रता के आदेश पर हस्ताक्षर करने वाले पुतिन के कदम का क्या असर होगा?
सामूहिक रूप से डोनबास के तौर पर जाना जाने वाले डोनेट्स्क और लोगान्स्क क्षेत्र पूर्वी यूक्रेन में रूस की सीमा के करीब हैं. डोनबास के डोनेट्स्क शहर में कई खान हैं जहां लौह अयस्क बड़ी मात्रा में मौजूद है. यह युक्रेन में इस्पात का उत्पादन करने वाला मुख्य इलाका है. लोहान्स्क, जिसे पहले वोरोशिलोवग्राद नाम से जाना जाता था, करीब डेढ़ लाख लोगों वाला औद्योगिक शहर है. जब फरवरी 2014 में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के बाद यूक्रेन के मास्को समर्थक राष्ट्रपति को हटा दिया गया तो रूस ने जवाब में यूक्रेन के क्राइमिया पेनिनसूला पर कब्जा कर लिया. फिर उसने यूक्रेन के डोनबास इलाके में रूसी भाषा बोलने वाले विरोधियों को उकसाया.
अप्रैल 2014 में रूस समर्थित विद्रोहियों ने डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों में सरकारी भवनों पर कब्जा कर लिया और गणराज्य होने की घोषणा की. विद्रोहियों ने यूक्रेन के सैनिकों और स्वयंसेवी बटालियन से लोहा लिया. अलगाववादी क्षेत्रों ने आजादी की घोषणा कर रूस का हिस्सा बनने की कोशिश की. मगर रूस ने इस घोषणा को लटकाए रखा जिससे यूक्रेन अपने प्रभाव क्षेत्र में ही रहा और नाटो में शामिल नहीं हो सका. पुतिन यूक्रेन को पश्चिम की "कठपुतली" बोलते रहे. उन्होंने कहा कि दोनों क्षेत्रों की "स्वतंत्रता को तुरंत मान्यता देने की जरूरत है जो काफी वक्त से लटका है." इसका मतलब यह भी है कि रूस अब विद्रोही क्षेत्रों के साथ गठबंधन कर सकता है और खुले तौर पर उनके छद्म युद्ध में समर्थन दे सकता है.
असल में पुतिन यूक्रेन के क्षेत्रफल को कम करना चाहते हैं, उसे नाटो से दूर रखना चाहते हैं, यूक्रेन के पूर्वी हिस्सों पर कब्जा करना चाहते हैं और ऐसा लगता है कि वो ये सब कुछ हासिल कर लेंगे. पुतिन का यह विवादास्पद कदम फ्रांस और जर्मनी की मध्यस्थता के बाद फरवरी 2015 में हुए मिन्स्क समझौते का भी उल्लंघन है. यूक्रेन, रूस और विद्रोहियों के बीच शांति समझौते ने एक नए संघर्ष विराम को जन्म दिया था. इसमें भारी हथियारों की वापसी और राजनीतिक समझौते की बात थी. वह समझौता अब अधर में लटक गया है.
बीजिंग ने किसी का पक्ष नहीं लिया है
पश्चिमी देशों ने पुतिन के इस कदम की निंदा की है. प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने इसे "यूक्रेन की संप्रभुता और अखंडता का उल्लंघन" बताया. यूरोपीय संघ की प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयेन और चार्ल्स मिशेल ने वादा किया कि उनका संघ "इस अवैध कार्य में शामिल लोगों के खिलाफ प्रतिबंध लगा कर कड़ी प्रतिक्रिया देगा."
अमेरिका का कहना है कि रूस का निर्णय दर्शाता है कि वो मिन्स्क समझौतों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है. यह यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर सीधा हमला है. जबाव में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने उस एक्जीक्यूटिव ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत रूस ने यूक्रेन के जिन हिस्सों को स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दी है उन इलाकों में अमेरिका व्यापार और निवेश नहीं करेगा. व्हाइट हाउस ने आर्थिक प्रतिबंधों की चेतावनी दी है. यूरोपीय संघ ने भी कहा कि वह यूक्रेन से अलग हुए क्षेत्रों को मान्यता देने के कारण रूस पर प्रतिबंध लगाएगा. बीजिंग ने किसी का पक्ष नहीं लिया है. उसने सभी पक्षों से "तनाव को बढ़ावा देने वाले किसी भी कार्रवाई से बचने" को कहा है.
भारत के लिए सबक
भारत यूक्रेन के खिलाफ रूस को सार्वजनिक रूप से आगाह करने को तैयार नहीं है. वह यूक्रेन की संप्रभुता की रक्षा करने को भी तैयार नहीं है. भारत के विदेश मंत्रालय (MEA) ने अमेरिका और नाटो से मध्य यूरोप में सुरक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने को कहा है जिसे पुतिन शत्रुतापूर्ण मानते हैं. भारत काफी हद तक रूस की सैन्य आपूर्ति पर निर्भर है. वह रूस को नाराज नहीं करना चाहेगा. इसके अलावा वह गलवान के बाद सीमा पर चीन की बढ़ती सैन्य तैयारी से चिंतित है.
यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र से भारत के लिए एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि वो पूर्वोत्तर के राज्यों को भारत की मुख्यधारा में लाने और एकीकृत करने की कोशिश करे. इन क्षेत्रों तक पहुंच, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, इनर लाइन परमिट सिस्टम और घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने की जरूरत है. संक्षेप में अलगाव की कोई भी भावना वहां को लोगों में पनपने नहीं देना चाहिए. हालांकि चीन बिलकुल अलग मिट्टी का बना है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बड़े जोखिम उठाए हैं. सार्वजनिक रूप से जारी अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट में कहा गया है कि उनका शासन "पड़ोसियों को बीजिंग की प्राथमिकताओं से सहमत होने के लिए मजबूर करना" चाहता है. चीन पर नजर रखने वालों का कहना है कि शी जिनपिंग को लगता है कि उसके पास कुछ सीमित समय के लिए खुला अवसर है और वो उस अवसर के खत्म होने से पहले उसका फायदा उठाना चाहते हैं.
शी ने भारत के खिलाफ जो आक्रामकता अपनाई है उसके भू-राजनीतिक उद्देश्य हैं. वह एशिया में चीन की प्रधानता को सुदृढ़ और विस्तारित करना चाहते हैं. शी का मानना है था कि अगर वे भारत को चकमा देने में कामयाब हो गए और सीमा पर कुछ गैर-चिन्हित क्षेत्रों पर कब्जा करने में या सीमा पर यथास्थिति को परिवर्तित करने में कामयाब हो गए तो छोटे एशियाई देश उसके डर से थर-थर कांपने लगेंगे. लेकिन शी की चाल उलटी पड़ गई. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत के सशस्त्र बल उनकी सेना के साथ दो-दो हाथ करेंगे. 2020 में भारतीय सुरक्षा बलों के साथ बार-बार हुई झड़पों ने चीन को करीबी मुकाबले से दूर रहने का सबक भी दिया.
पूर्वोत्तर में चीनी खतरा
यही कारण है कि चीन ने भारत को तीन क्षेत्रों में बफर जोन स्वीकार करवाने की कोशिश की. रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि चीन युद्ध होने पर ऐसी स्थिति पैदा करना चाहता है कि वह भारत के उत्तर-पूर्व को देश के बाकी हिस्सों से काट दे. चीन लगातार इस तरह के सामरिक कदम उठा रहा है जिसके परिणामस्वरूप भारत के पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर तनाव बढ़े. यह संयोग ही है कि भारत और चीन 3488 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं.
चीन मामलों के जानकार ब्रह्म चेलानी लिखते हैं, "काम को रुकवा कर, धोखा देकर, सूचना युद्ध और वार्ता के दौरान ज्यादा हथियाने की कोशिश से चीन अपने विरोधियों के समझौता करने की स्थिति को आजमाता है और अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश करता है. ये वार्ता के दौरान उसकी रणनीति का अभिन्न हिस्सा है." सीमा पर चीन हेलीपोर्ट्स से लेकर इलेक्ट्रॉनिक युद्ध का सामान जिस तेज गति से जमा कर रहा है उससे यही लगता है चीन जंग की तैयारी कर रहा है. पेंगोंग झील पर पुल बनाने से लेकर भारत के चिकन-नेक के पास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त भूटानी क्षेत्र में सैन्य गांव और सड़कों के निर्माण से चीन भारत के खिलाफ दबाव का खेल खेल रहा है. चीन दोहरे उपयोग वाले गांवों के निर्माण में माहिर है.
ब्रह्म चेलानी कहते हैं, "पैंगोंग पर चीनी पुल, क्षेत्र में चीन की आक्रामक क्षमता को बढ़ाना और रणनीतिक कैलाश में ऊंचाई पर मौजूद भारतीय सेना का करीब एक साल पहले लौट आना भारतीय रणनीति की कमजोरी है. कैलाश की ऊंचाई वाली जगह, जहां से चीन के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का मोल्डो गैरीसन साफ नजर आता था, से वापसी कर भारत ने चीन को नये साल का तोहफा दे दिया." चेलानी ने कहा, "भारत ने लद्दाख के तीन अलग-अलग क्षेत्रों में चीन के मुताबिक 'बफर ज़ोन' को भी स्वीकार किया. यहीं से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने घुसपैठ की थी. बफर ज़ोन बड़े पैमाने पर उन क्षेत्रों में बनाए गए हैं जो पहले भारत के गश्त वाले अधिकार क्षेत्र में आते थे."
सैन्य और तकनीकी रूप से भी चीन भारत से आगे है
चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल मनोज एम नरवने के मुताबिक भारतीय सशस्त्र बल इस वक्त तत्काल ऑपरेशन करने की तैयारी में हैं. फिर भी चीन उन क्षेत्रों में घुसपैठ के बाद वापस जाने के मूड में नहीं लगता जो भारतीय डिफेंस के लिए महत्वपूर्ण हैं. इनमें वाई-जंक्शन पर मौजूद देपसांग भी है जहां से कोई कई क्षेत्रों तक आसानी से पहुंच सकता है. भारतीय सेना ने अरुणाचल प्रदेश में लुंगरो ला, जिमीथांग और बुम ला जैसे सेक्टरों में पीएलए की बढ़ती गतिविधियों की रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक पीएलए ने जनवरी 2020 से अक्टूबर 2021 तक लुंगरो ला क्षेत्र में 90 बार गश्त की. जनवरी 2018 और दिसंबर 2019 के बीच उसने लगभग 40 बार गश्त की.
चीन ने पीएलए के तिब्बत की ऊंचाई वाले हिस्सों में अभ्यासों का वीडियो जारी किया है. इनमें लड़ाकू जेट, विमानों की उड़ान, ड्रोन का इस्तेमाल और होवित्जर तोप से पैदल सेना के सटीक हमले शामिल हैं. ये सब भारत के लिए चेतावनी की तरह हैं. भारत के M777 अल्ट्रा-लाइट हॉवित्जर तोप की तैनाती और टैंक अभ्यास के जवाब में चीन सीमा पर 100 से अधिक लंबी दूरी के रॉकेट लांचर भी तैनात कर रहा है. चीन के विशेषज्ञ क्लाउड अर्पी ने लिखा है कि चीन अक्साई चिन सड़क के विस्तार की योजना बना रहा है जिससे लद्दाख और सिक्किम-अरुणाचल मोर्चे तक सैनिकों का पहुंचना आसान हो जाए.
चीन ने लंबे समय से कहा है कि गैर-हस्तक्षेप और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान उसकी विदेश नीति के मूल में है. लेकिन जब बात भारत की आती है तो अंतरराष्ट्रीय कानून के इन सभी सिद्धांतों को चीन आसानी से भूल जाता है. चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना बड़ी है. सैन्य और तकनीकी रूप से भी चीन भारत से आगे है. हो सकता है कि शी जिनपिंग को लगा हो कि सीमाओं पर सैन्य बल का इस्तेमाल करने का यह सही समय है. चीन और रूस के बाद दुनिया में भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा तीसरी सबसे बड़ी है. अब तक भारत ने घुसपैठ पर दुश्मन को रोकने और उस पर नियंत्रण करने की नीति अपनाई है. अब छोटे और घातक युद्ध की धारणा को दूर करने की जरूरत है. शी जिनपिंग को यह समझने की जरूरत है कि भारत से पंगा लेना आसान नहीं है.
(लेखक एनएनआईएस के सीईओ हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)