बढ़ती लागत, घटती आमद

बेशक पिछले छह वर्षों में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में पहले से वृद्धि हुई है। कृषि बजट में वृद्धि की गई है, जो अब 1.23 लाख करोड़ रुपए का है। कृषि में निवेश भी बढ़ा है। मगर इन सब के विपरीत खेती में काम आने वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक, डीजल सहित मजदूरी भी इन छह वर्षों में दोगुनी हो चुकी है।

Update: 2022-10-15 04:33 GMT

विनोद के. शाह; बेशक पिछले छह वर्षों में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में पहले से वृद्धि हुई है। कृषि बजट में वृद्धि की गई है, जो अब 1.23 लाख करोड़ रुपए का है। कृषि में निवेश भी बढ़ा है। मगर इन सब के विपरीत खेती में काम आने वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक, डीजल सहित मजदूरी भी इन छह वर्षों में दोगुनी हो चुकी है। इस लागत में किसान ने सरकार से मिलने वाली सम्मान निधि को भी खपा दिया है, मगर उसके हाथ पहले से ज्यादा खाली हैं। लगातार प्राकृतिक आपदाओं और तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन ने कृषि की उत्पादकता और उसकी गुणवत्ता को प्रभावित किया है। एक बार फिर खेती घाटे के सौदे में तब्दील होने लगी है।

सरकार की कृषि व्यापार नीति और कृषि आय बढ़ाने के लिए लागू किए जा रहे उपायों के परिणाम अभी तक बहुत उत्साहजनक साबित नहीं हुए हैं। यह रबी फसलों की बुआई का समय है, लेकिन किसानों के पास अच्छी गुणवत्ता के बीज नहीं हैं। अधिकांश राज्य सरकारों के पास अभी तक पर्याप्त मात्रा में उर्वरक उपलब्ध नहीं हैं। यूरिया का उपयोग कम करने के लिए इसके उत्पादन और आयात को कम किया जा रहा है, लेकिन इसके बेहतर विकल्प और किसानों को उनके उपयोग के प्रति सचेत करने में सरकारी प्रयास अधूरे हैं।

किसान उर्वरकों के किफायती उपयोग के बजाय, नकली उर्वरक और कालाबजारियों की लूट का शिकार हो रहे हैं। खरीफ फसलों में किसानों का रुझान धान की फसल की तरफ तेजी से बढ़ा है। इसकी वजह सोयाबीन जैसी तिलहनी और अरहर, मूंग, उड़द जैसी दलहनी फसलों में लागत अधिक होने और अनिश्चितता की परिस्थितियां, लगातार नुकसान के कारण धान के रकबे में बिगत तीन वर्षों में वृद्धि हुई है। मगर सरकार की नीतियां अब धान उत्पादक किसानों को विचलित कर रही हैं।

वर्ष 2019-20 के मुकाबले 2021-22 में भारत के गैर-बासमती चावल के निर्यात में 11.17 फीसद और बासमती चावल के निर्यात में 19.69 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है। इसकी वजह सरकार की नीतियां और प्रशासनिक लापरवाही रही है। मार्च-अप्रैल 2022 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय सिर्फ गेहूं के निर्यात पर ध्यान लगाए हुआ था। बंदरगाहों पर चावल उतारने का स्थान उपलब्ध नहीं था। कंटेनर नहीं थे। बाद में सरकार ने गेहूं के निर्यात को प्रतिबंधित किया, लेकिन तब तक व्यापारियों के चावल निर्यात के करार की समय सीमा खत्म हो गई थी।

चालू खरीफ सीजन में मौसमी अनिश्चितता ने तिलहन और दलहन के घरेलू उत्पादन को निचले पायदान पर ला दिया है। पिछले साल की तुलना में तिलहन की बुआई एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कम हुई है। दलहन की बुआई में सात लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल की कमी आई है। दूसरी तरफ, कटाई के दौरान बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के कारण दलहन और तिलहन की फसलें बर्बाद हो चुकी हैं। सर्वाधिक सोयाबीन उत्पादक राज्य मध्यप्रदेश और राजस्थान में सोयाबीन की खेती अधिक लागात पर पर्याप्त उत्पादन न देने वाली फसल बन चुकी है।

मध्य प्रदेश में सोयाबीन के खेतों पर अन्य राज्यों की तुलना में कर अधिक है। राज्य के व्यापारी वर्षों से कर कम करने की मंग करते आ रहे हैं। मगर राज्य सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। दूसरे देशों में जहां प्रतिवर्ष औसत उत्पादन बढ़ रहा है, हमारा किसान सोयाबीन की बिगड़ी फसलें देखकर आत्मघात जैसे कदम भी उठा रहा है।

इन्हीं वजहों से पिछले वर्ष की तुलना में चालू वर्ष में सोयाबीन की बुआई डेढ़ लाख हेक्टेयर कम हुई है। गुजरात में भी मूंगफली का रकबा घटा है। देश की पूंजी का बड़ा हिस्सा दलहन और तिलहन के आयात पर खर्च हो रहा है। मगर परंपरागत फसलों के विकल्प देने और मौसम की मार सहन करने वाले बीजों को विकसित करने में हमारे अनुसंधान केंद्र बहुत पिछड़े हुए हैं।

बीज और उर्वरकों की उचित मात्रा का सटीक ज्ञान देश के सत्तर फीसद किसानों को अब भी नहीं है। मगर केंद्र सहित राज्य सरकारें इन व्यवस्थाओं पर अपने संसाधन खर्च नहीं कर पा रही हैं। इन हालात में नवीन कृषि खोजें कभी पूरी न हो पाने वाली कल्पना साबित होने लगी हैं। देश में दलहनी और तिलहनी फसलों के घटते रकबे की वजह इन फसलों की कटाई के लिए संसाधन न मिल पाना भी है। सोयाबीन, उड़द और मूंग की सत्तर फीसद कटाई मजदूरों पर निर्भर है। पहले की तुलना में अब मजदूर दो से तीन गुना अधिक मजदूरी मांगने लगे हैं।

देश के बड़े हिस्से में मानसून देर से सक्रिय होने से धान की फसल प्रभावित हुई है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में वर्षा की कमी से धान का उत्पादन कम होने के आसार हैं। धान के उत्पादन में पचास लाख टन कमी का अनुमान है। सोयाबीन का उत्पादन पिछले साल की तुलना में पांच फीसद कम होने का अनुमान है। धान उत्पादन में अनुमानित कमी के आधार पर केंद्र सरकार ने चावल के निर्यात पर रोक लगााने के साथ चावल की चूरी पर बीस फीसद शुल्क लगा दिया है। देश में चावल चूरी की खपत बहुत कम होती है।

चीन, बांग्लादेश में इस चूरी चावल का उपयोग पशु आहार, नूडल्स और शराब बनाने में होता है। इससे देश के किसानों को न केवल अच्छे भाव मिलते हैं, बल्कि उनका अनुपयोगी दाना-दाना ठिकाने लग जाता है। वर्ष 2021-22 में चावाल चूरी का निर्यात 213 लाख टन रहा, लेकिन नए कर की वजह से चालू वर्ष में देश के चूरी चावल के निर्यात में चालीस से पचास लाख टन की कमी आना माना जा रहा है। सरकार की निर्यात नीतियां किसानों में मूल्य घाटा और उत्पादन के प्रति भय पैदा करने वाली हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी फसलें अब फरवरी और मार्च माह की तेज गर्मी के चलते पकने से पहले ही सूखने लगी हैं। पिछले साल मौसम में हुए इस परिवर्तन से देश में गेहूं का उत्पादन लगभग तेईस लाख टन कम हुआ था। आने वाले समय में मौसम के सटीक पूर्वानुमान के लिए भारत के पास अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इजराइल जैसा विकसित तंत्र नहीं है। आगामी रबी फसल को लेकर किसानों के सामने फसल चयन की चुनौती है। अगर वह गेहूं की बुआई करता है तो पिछले साल की तरह अत्यधिक गर्मी से समय पूर्व फसल पकने का खतरा है। चना, मसूर का चयन करता है तो इस वर्ष की अत्यधिक वर्षा अनेक रोगों को जन्म दे सकती है।

वहीं इस वर्ष दलहनी फसलों में तुषार और पाले का संभावित खतरा किसानों को असमंजस में डाले हुए है। मगर देश के कृषि वैज्ञानिकों की सलाह किसान हित में जारी करने का दायित्व राज्य सरकारें नहीं निभा रही हैं। उत्पादन बढ़ाने के लिए देश के कृषि अनुसंधान केंद्रों ने जो गेहूं का बीज विकसित किया, वह चार से पांच सिंचाई वाला है।

ठंड में हर सिंचाई पर किसान यूरिया और अन्य उर्वरकों का छिड़काव आवश्यक मानता है, जिससे न सिर्फ लागत बढ़ती, बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति भी कमजोर होती है। देश के चालीस फीसद हिस्से की खेती बगैर सिंचाई वाली है, जहां कम पानी की फसलों के बीज की आवश्यकता रहती है। मगर सरकारी प्रयास किसानों की आवश्यकताओं से मीलों दूर है।


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