सूचना का अधिकार कानून: फिर तंत्र कैसे बने पारदर्शी

सूचना के अधिकार की मांग 1989-90 में शुरू हुई। इस संबंध में पहली बार 2002 में कानून पारित हुआ। पर उस कानून को लागू नहीं किया जा सका

Update: 2021-10-14 05:11 GMT

सूचना का अधिकार कानून को लेकर हाल ही में आई जानकारियों से शायद ही किसी को हैरत हुई होगी। सरकारी तंत्र को लेकर आम धारणा है कि राजनीतिक नेतृत्व के कड़े कदम की भी वह काट निकाल ही लेता है। सूचना के अधिकार से जुड़ी सूचनाएं भी साबित कर रही हैं कि तंत्र ने लोगों को सशक्त बनाने और प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता लाने वाले सूचना के अधिकार कानून को किनारे रखने की राह निकाल ली है। यही वजह है कि बीते 30 जून तक सूचना के अधिकार कानून से संबंधित 2,55,602 मामले लंबित पाए गए। ये मामले ऐसे हैं, जो गंभीर हैं और जिनके बारे में मांगी गई जानकारियां या तो अधिकारियों ने नहीं दीं या फिर टालू जानकारियां दीं। प्रथम या दूसरी अपील की नौबत तभी आती है, जब या तो अधिकारियों द्वारा सही और मांगी हुई जानकारी नहीं दी जाती, या फिर बहाने से उन्हें देना टाल दिया जाता है। देश में ढाई लाख से ज्यादा मामलों की सुनवाई का लंबित होना यह भी साबित करता है कि जिम्मेदार प्राधिकारी किस तरह सूचना के अधिकार कानून को ठेंगे पर रखने लगे हैं।

सतर्क नागरिक संगठन की ओर से मांगी गई जानकारी के मुताबिक, 30 जून तक सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में लंबित थे, जिनकी संख्या 74,240 है। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है, जहां 48,514 मामले लंबित हैं। केंद्रीय सूचना आयोग का नंबर तीसरा है, जहां 36,788 मामले लंबित हैं।

घुमा-फिराकर संदर्भहीन जानकारियां देने की परिपाटी शुरू

सूचना का अधिकार कानून लागू करते समय माना गया था कि इससे प्रशासनिक व्यवस्था पारदर्शी होगी। सूचना के अधिकार की मांग 1989-90 में शुरू हुई। इस संबंध में पहली बार 2002 में कानून पारित हुआ। पर उस कानून को लागू नहीं किया जा सका। फिर नया कानून बनाया गया और उसे 2005 में लागू किया गया। शुरुआत में इस कानून का असर देखा गया, पर धीरे-धीरे प्राधिकारी इसकी भी काट निकालने लगे। सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी मांगने सामान्य व्यक्ति तभी जाता है, जब उसे किसी प्राधिकार से न्याय नहीं मिलता। ऐसे मामलों में जानकारियां अब घुमा-फिराकर देने की परिपाटी शुरू हो गई है। सूचना देने के लिए जिम्मेदार अधिकारी शुरुआत में ही सूचना के अधिकार कानून की कई धाराओं और उपधाराओं का हवाला देकर सूचना मांगने वाले को हतोत्साहित करते हैं। फिर भी अगर वह व्यक्ति दोबारा जानकारी मांगता है, तो उसे घुमा-फिराकर संदर्भहीन जानकारियां दी जाती है या उसे गुमराह करने की कोशिश की जाती है। सूचना आयोग में लंबित मामलों की इस संख्या में ज्यादातर मामले ऐसे ही हैं।

कई राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त का पोस्ट खाली

सूचना के अधिकार कानून को लेकर तंत्र की संजीदगी किस कदर कम हो रही है, इसका प्रमाण यह है कि झारखंड, त्रिपुरा और मेघालय में तो आयोग ही निष्क्रिय पड़े हैं, जबकि नगालैंड, मणिपुर और तेलंगाना में मुख्य सूचना आयुक्त तक नहीं है। सूचना आयोग में अपील पर जैसी फौरी कार्रवाई होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही। सतर्क नागरिक संगठन के मुताबिक, एक अगस्त, 2020 से 30 जून 2021, तक देश के 25 सूचना आयोग के सामने 1,56,309 मामले दायर हुए, जबकि 27 आयोग ने इसी दौरान 1,35,979 मामले निपटाए। निपटाने की इस प्रक्रिया में जानकारों ने देखा है कि सूचना के अधिकार कानून की धारा 20 के तहत जिन मामलों में सूचना अधिकारी पर अर्थदंड लगना चाहिए, उन्हें भी छोड़ दिया गया है।

सूचना आयोग के समक्ष दायर मामलों में से 59 फीसदी ऐसे हैं, जिनमें सूचना के अधिकार कानून की धारा 20 का उल्लंघन हुआ है, जिसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर आर्थिक दंड लगना चाहिए था। पर सिर्फ 4.9 फीसदी मामलों में ही जुर्माना लगाया गया है। जब ऐसी स्थिति रहेगी, तो सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देने की जिन पर जिम्मेदारी होगी, वे और टालमटोल करेंगे। पारदर्शी शासन और व्यवस्था के बिना विकास को निचले स्तर तक पहुंचा पाना आसान नहीं। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज में सूचना के अधिकार कानून की मांग बढ़ी। भारत ने भी इसी दशा में कदम बढ़ाया था। पर इसे लागू करने को लेकर जिस तरह का रवैया दिख रहा है, वह लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए उचित नहीं।

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