पुण्यतिथि पर फारुख की याद: याद तेरी कभी दस्तक, कभी सरगोशी से रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें..!
इस विलुप्त होती स्मृतियों में किसी रील से गुजर जाते हैं
चश्मे बद्दूर हो या उमराव जान, कथा, किसी से ना कहना, साथ-साथ, नूरी, गमन, लिसन अमाया, गरम हवा, बाजार हो या कोई और फिल्म - फारुख शेख जैसा आदमी जो सिर्फ कलाकार ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन व्यक्ति था - हिंदुस्तानी फिल्म इतिहास में जो काम जबरदस्त फारूख ने किया है वह अद्भुत है।
फिल्म बाजार को याद करता हूं तो मुझे दुबला - पतला सा फारुख याद आता है। उमराव जान में कोई नवाब याद आता है। चश्मे बद्दूर में एक बेरोजगार सा लड़का जो दीप्ति नवल के पीछे लगा है राकेश बेदी और रवि वासवानी के साथ; फारुख शेख की भाषा, उसके कहने का अंदाज, उसकी डायलॉग डिलीवरी और उसकी पूरी बॉडी लैंग्वेज - मतलब लगता है कि बंदा सात समंदर पार से 84 लाख योनियों और असंख्य पहाड़ों को कूद फांदकर सिर्फ अभिनय करने ही यहां इस धरा पर आया था।
उमराव जान में जब वह अपनी बीवी के साथ रेखा का मुजरा सुनता है तो उसके चेहरे के जो भाव हैं - वे आपको कहीं दूर ले जाकर छोड़ देते हैं और लगता है कि पता नहीं इस कलाकार के चेहरे - मोहरे और आंखों में कितना कुछ हर बार शेष रह जाता है - जो वह अभिनय, संवाद के साथ अभिव्यक्त करना चाहता है और किसी भी काल्पनिक कहानी को इतना जीवंत कर देता है जैसे अभी - अभी सच में वह कोई उस फिल्म का किरदार हो, जो जीवन जी गया।
पति - पत्नी के रिश्ते में जमीर और खुद्दारी की बात, साथ-साथ में दीप्ति के साथ क्या खूब उभारी - "इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए", गमन हो या किसी से ना कहना में क्या किरदार था बन्दे का - सफेद रंग के धवल कुर्ते पाजामे में बन्दा इतना नफीस लगता था कि मानो जाहिद हो, कोई वाइज हो खुदा का और नम्रता इतनी कि शैतान भी खौफ खाए बन्दे से।
फारुख शेख, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल, अमोल पालेकर, उत्पल दत्त, सतीश शाह, टीकू तलसानिया, सुप्रिया और रत्ना पाठक, रवि वासवानी और शबाना के साथ ओमपुरी जैसे लोग जब से इस फिल्मी दुनिया से चले गए हैं - तब से ना फिल्में देखने का मन करता है और ना ही कोई कहानी पसंद आती है। नसीरुद्दीन शाह जैसे मंझे हुए लोग अभी भी हैं, परंतु अब जिस तरह के हो गए हैं या नाना पाटेकर भी, अब फिल्मों के बारे में कुछ कहना मुश्किल है।
बहरहाल, फारुख शेख का होना एक तसल्ली थी, एक आस्था थी - भरोसा और विश्वास था कि यह सब उतना कठिन और दुरूह नहीं है। इस संसार की हर "मिस चमको" के लिए एक आदर्शवादी हीरो ही नहीं, धड़कते दिल ही नही बल्कि जीवन का पर्याय था, जो बहुत सहज रूप से हंसता बोलता है, संजीदा रहता है और हर क्षण जीता है एकदम साफगोई से ऐसे लोगों के काम को देखना भी सम्भवतः एक स्वर्गिक सुख ही है जो इस विलुप्त होती स्मृतियों में किसी रील से गुजर जाते हैं और रोते - हंसते हुए बार - बार आंसू पोछते हैं, अपने में ही मुस्कुराते हैं, गुनगुनाते हैं और गा उठते हैं।
"जिंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती हैं हमें
ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें"
फारुख - आज ना जाने क्यों याद आ रहा सुबह से, अभी लिखा तो लग रहा जैसे रूह को सुकून आ गया और वो यह लिखें जाने तक मेरे आसपास मंडरा रहा हो जैसे, ना जाने कितने दिलों की हसरत और धड़कन था वो, पर बन्दा था गजब का; सई परांजपे ने एक मराठी कादम्बरी के दीवाली विशेषांक में कहा था कि "कथा" से मुझे यश मिला और उसमें दिलफेंक मुम्बइया हीरो का चरित्र निभाने वाला मुंबईया चाल का असली जीवन परसोनिफाई करने वाला फारुख ना होता तो मेरा निर्देशक होना ही नहीं, एक बेहतरीन मनुष्य होना भी सम्भव नहीं था।
फारुख मरते नहीं वे बस दिलों में बस जाया करते हैं.
फिर छिड़ी रात, बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की
फूल के हैं फूल के गजरे
शाम फूलों की, रात फूलों की
आपका साथ-साथ फूलों का
आपकी बात बात फूलों की
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की..
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है