फसल विविधता कम होना खतरे की घंटी
मध्य प्रदेश सरकार को उन्हीं नगदी फसल गेहूं और धान ने चिंता में डाल दिया है
मध्य प्रदेश सरकार को उन्हीं नगदी फसल गेहूं और धान ने चिंता में डाल दिया है जिनकी दम पर वह लगातार पांच साल कृषि कर्मण अवार्ड लेती रही. सरकार अब इस बात पर चिंतित है कि प्रदेश की कृषि विविधता को गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है. सत्तर के दशक से हरित क्रांति के बाद लगातार दलहनी-तिलहनी और अन्य मोटे अनाज वाली फसलें लगातार कम हो रही हैं, इससे न केवल पर्यावरण बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है. सरकार ने इसके लिए कुछ ठोस और जरूरी कदम उठाए हैं.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कई महीनों से अपने भाषणों में लगातार प्राकृतिक खेती की बातें दोहरा रहे हैं. इससे उनकी चिंता समझ में आती है. नीति आयोग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय कृषि कार्यशाला में भी उन्होंने माना कि हरित क्रांति में रासायनिक खाद के उपयोग ने खाद्यान्न की कमी को पूरा किया, परंतु अब इसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं. इनके ज्यादा उपयोग से धरती की सतह कठोर और मुनष्य रोग ग्रस्त होता जा रहा है. इसके उपयोग को नियंत्रित करने की आवश्यकता है, जो प्राकृतिक खेती से ही संभव है. मुख्यमंत्री खुद किसानपुत्र हैं और वह अब भी वक्त निकालकर अपने खेतों में पहुंच जाते हैं.
लंबे समय से इस बारे में कवायद चल रही थी, लेकिन पिछली मंत्रिपरिषद की बैठक में एक ठोस निर्णय लेते हुए मप्र में 'मध्यप्रदेश फसल विविधीकरण हेतु प्रोत्साहन योजना लागू करने का निर्णय लिया. इसके लिए एक बोर्ड का गठन किए जाने का निर्णय लिया गया.
हालांकि मध्यप्रदेश में ऐसी पहल पहली बार नहीं हो रही है एमपी पहला राज्य है जिसने अपने यहां जैविक कृषि नीति लागू की थी, लेकिन इसके बावजूद यहां रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम नहीं हुआ. मध्यप्रदेश कृषि सांख्यिकी रिपोर्ट के मुताबिक 2001 में जहां एक हेक्टेयर पर चालीस किलो उर्वरक का उपयोग किया जाता था वह 2013-14 में दोगुना (80 किलो प्रति प्रति हेक्टेयर) हो गया. अलबत्ता इसे जैविक खेती की जगह इस बार प्राकृतिक खेती कहा जा रहा है.
मप्र में क्या हैं हालात
किसान कल्याण तथा कृषि संचालनालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक मप्र में गेहूं उत्पादन में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. 2017—18 में गेहूं का उत्पादन जहां 20020 मीट्रिक टन था वहीं 2019—20 में बढ़कर 37198 मीट्रिक टन हो गया जो एक रिकॉर्ड है. पिछले साल सरकार ने दावा किया था कि देश में कुल गेहूं उपार्जन में मप्र की हिस्सेदारी लगभग 33 प्रतिशत है और उसने इस मामले में गेहूं उत्पादन में अव्वल रहे पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है.
धान का उत्पादन भी बहुत तेजी से इसलिए बढ़ा क्योंकि मप्र का काला सोना कहा जाने वाला सोयाबीन की फसल लगातार पिटती रही. 2001—02 में 1777 हजार हेक्टेयर खेत में धान की बोनी होती थी जो 2020—21 में बढ़कर 3441 हजार हेक्टेयर में की जाने लगी. वहीं उत्पादन 2017—18 में 7349 हजार मीट्रिक टन से बढ़कर 20—21 में 12502 हजार मीट्रिक टन हो गया.
इसी अवधि में दलहनी फसल (जैसे अरहर, चना, उड़द, मूंग, मसूर, मटर आदि) का उत्पादन पिछले तीन सालों में 9469 हजार मीट्रिक टन से घटकर 6210 हजार मीट्रिक टन हो गया. तिलहनी फसल सोयाबीन, राई आदि का उत्पादन भी इस दौरान घट गया. 2017—18 में 6947 हजार मीट्रिक टन तिलहनी फसलों को उत्पादन हो रहा था, जोकि 2020—21 में 5445 हजार मीट्रिक टन हो गया है .
कभी मप्र में अरहर का उत्पादन भी अच्छा खासा था, लेकिन 2017—18 में जो अरहर 647 हजार हेक्टेयर प्रक्षेत्र में ली जा रही थी वह 2020—21 में घटकर महज 219 हजार हेक्टेयर तक में पहुंच गई. मक्का का उत्पादन लगभग 1.31 प्रतिशत कम हो गया, जबकि एमपी में मोटे अनाज के रूप में मक्का खाया जाता रहा है. मध्यप्रदेश में उर्वरक की खपत भी तेजी से बढ़ी है, 2017—18 में नाइट्रोजन—फास्फेट और पोटाश का 20 लाख मीट्रिक टन वितरण किया गया था जो 2020—21 में 30 लाख मीट्रिक टन हो गया है.
5200 गांवों से होगी शुरुआत
52 जिलों वाले राज्य में 5,200 गांवों से प्राकृतिक खेती का आगाज इसी खरीब सीजन से हो जाएगा. नर्मदा नदी के दोनों ओर प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित किया जाएगा. हालांकि कृषि विभाग का दावा है कि जैविक खेती अभियान से सवा लाख किसान पहले से ही जुड़े हैं, फिलहाल 3130 गांवों के 17 लाख हेक्टेयर में जैविक खेती की जा रही है.
सरकार मानती है कि प्राकृतिक खेती के लिए देसी गाय आवश्यक है इसलिए वह इसे अपनाने वाले हर किसान को देसी गाय रखने के लिए 900 रुपए प्रतिमाह देगी. यह सही बात है कि गाय और गोबर के बिना जैविक खेती मुश्किल है, लेकिन बढ़ते मशीनीकरण ने गांवों से पशुधन को कम कर दिया है. छत्तीसगढ़ में सरकार के गोबर खरीदने की योजना काफी हद तक सफल रही है.
हालांकि इस योजना में कई तरह की चुनौतियां भी हैं. झाबुआ जिले में देसी बीजों को प्रोत्साहित करने वाली संपर्क संस्था के निलेश देसाई का कहना है कि यह फैसला अच्छा है पर जीएम मुक्त राज्य घोषित किये बिना यह अधूरा है. अब जबकि यह साबित हो चुका है कि जीएम फसलें स्वास्थ्य और पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं इस पर कठोर निर्णय लेने की जरुरत है. वहीं मप्र में विविधतापूर्ण बीज समाप्त होने की ओर है. इन्हें संरक्षित किए बिना यह योजना सफल नहीं हो सकती है. बता दें कि जीएम फसल उन फसलों को कहा जाता है जिनके जीन को वैज्ञानिक तरीके से रूपांतरित किया जाता है.
पद्मश्री किसान बाबूलाल दाहिया का कहना है कि पहले जो फसल विविधता थी वह बनावटी नहीं स्वाभाविक थी, लेकिन जो सरकार करेगी वह अस्वभाविक होगी, क्योंकि पहले किसान अपने खेत में उस अनाज का बीज बोता था जो उसका खेत चाहता था, लेकिन अब वह अनाज उगाता है जो बाजार मांगता है. जब खेत के मांग के अनुसार फसल उगाई जाती थी तो स्वाभाविक है कि वह ऊंचे खेतों और हल्की जमीन में कोदो, कुटकी, समा, अरहर, तिल आदि बोता था. इसी तरह गहरी जमीन में गेहूं, धान, क्योंकि प्राचीन विविधता वाली खेती वर्षा आधारित खेती थी, रासायनिक खाद भी नहीं थी अस्तु खेत को उर्वर बनाए रखने के लिए अदल—बदल कर भी खेती करनी पड़ती थी. पर आज की खेती मात्र दो अनाजो में सिमट कर रह गई है गेहूं और चावल. तो प्राचीन नैसर्गिक विविधता के मुकाबले यह विविधता कितनी सफल होगी? वक्त ही बताएगा.
खेती और पर्यावरण को बचाने की चुनौतियां तो बहुत हैं. अच्छी बात यह है कि इस पर कोशिशें शुरू हो गई हैं. प्रकृति और जीवन की विविधता बनी रही, यह आज और आने वाले कल के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.