ममता दी के खिलाफ विद्रोह

तृणमूल कांग्रेस के ऐसे दूसरे कद्दावर नेता होंगे जो ममता दी का साथ छोड़ कर भाजपा का दामन थामेंगे।

Update: 2020-11-28 13:32 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। प. बंगाल की राजनीति में परिवहन मन्त्री श्री सुवेन्दु अधिकारी ने अपने पद से इस्तीफा देकर वह तूफान खड़ा कर दिया है जिसकी आहट पिछले कई महीनों से सुनाई पड़ रही थी। राज्य की ममता दी नीत तृणमूल कांग्रेस सरकार के लिए इसे जबर्दस्त झटका माना जायेगा क्योंकि सुवेन्दु अधिकारी कूटबिहार व आसपास के कई जिलों के लोकप्रिय व प्रभावशाली नेता हैं। अब ऐसा माना जा रहा है कि वह अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों से पूर्व भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो जायेंगे। यदि ऐसा होता है तो वह तृणमूल कांग्रेस के ऐसे दूसरे कद्दावर नेता होंगे जो ममता दी का साथ छोड़ कर भाजपा का दामन थामेंगे। उनसे पहले एक जमाने में ममता दी का दायां हाथ समझे जाने वाले मुकुल राय ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। मुकुल राय के तृणमूल छोड़ कर भाजपा में जाने से ममता दी को गहरा धक्का लगा था क्योंकि श्री राय ने प. बंगाल में भाजपा की पैठ बनाने में रणनीतिक भूमिका निभाई थी।


विगत 2019 के लोकसभा चुनावो में राज्य में भाजपा को जो सफलता मिली उससे बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों का 'पंचाग' गड़बड़ा गया था। अब सुवेन्दु अधिकारी के विद्रोह से आगामी विधानसभा चुनावों मे ऊंट किस करवट बैठेगा इसके बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि राज्य में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर होगा। मगर सुवेन्दु अधिकारी के पिता श्री शिशिर अधिकारी भी तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं। अपने पुत्र के तृणमूल कांग्रेस से विद्रोह करने का असर उन पर क्या रहता है यह तो समय ही बतायेगा मगर अधिकारी परिवार प. बंगाल का एक प्रमुख राजनीतिक परिवार है और इसका इतिहास रहा है कि जब यह अपनी राजनीतिक निष्ठाएं बदलता है तो सामूहिक तौर पर ही बदलता है। श्री अधिकारी के दो अन्य भाई भी राजनीति में ही हैं। मगर अधिकारी के प्रभाव वाले कूच बिहार जिले से तृणमूल विधायक श्री मिहिर गोस्वामी ने भी तृणमूल कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। श्री गोस्वामी ने पिछले महीने अक्टूबर में पार्टी के सभी संगठनात्मक पदों से इस्तीफा दे दिया था और कहा था कि यदि ममता दी का निर्देश हुआ तो वह विधायक पद से भी इस्तीफा दे देंगे।

वर्तमान विधानसभा कार्यकाल में अब कुछ महीनों का समय ही शेष रह गया है जिसे देखते हुए कहा जा सकता है कि ममता दी के खिलाफ विद्रोह और फैल सकता है तथा अधिकारी समर्थक अन्य विधायक भी पार्टी छोड़ सकते हैं। गौर से देखा जाए तो ममता दी की कार्य प्रणाली के खिलाफ उनकी पार्टी के भीतर यह विद्रोह पनपता लगता है। इसकी वजह कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक उनके भतीजा प्रेम या मोह को मान रहे हैं जो वर्तमान में लोकसभा के सांसद हैं। सुवेन्दु अधिकारी स्वयं को पार्टी में उपेक्षित महसूस कर रहे थे और इसका इजहार उन्होंने कई महीने पहले से करना शुरू कर दिया था। वह पिछले समय से ममता दी से दूरी बना कर रख रहे थे और अपने समर्थकों के बीच अपने ही सम्मेलन करके सन्देश दे रहे थे कि ममता दी ने उनके नेता होने का सम्मान खो दिया है।

पिछले दिनों उन्होंने जितने भी सम्मेलन किये उनमें से किसी में भी ममता दी के चित्रों और तृणमूल कांग्रेस पार्टी की पहचान का इस्तेमाल नहीं किया गया। इन सम्मेलनों में उनके समर्थक नारे लगाते थे कि 'आमरा दादेर अनुगामी' अर्थात हम दादा के साथ हैं। इस बारे में जब भी सुवेन्दु अधिकारी से पूछा गया तो उन्होंने यही कहा कि वह लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु उनकी मंशा साफ हो चुकी थी क्योंकि उन्होंने पिछले दो महीने से राज्य मन्त्रिमंडल की बैठक में भी भाग नहीं लिया था। मगर ममता दी ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हुई हैं। क्योंकि वह जमीन से संघर्ष करते हुए ऊपर उठ कर ही नेता बनी हैं। जमीनी सच्चाई से वह नावाकिफ नहीं हो सकतीं इसी वजह से उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक फलक को विस्तार देने के लिए अन्य समान विचार वाले दलों के साथ सहयोग करने की नीति अभी से चलना शुरू कर दिया है। यह भी वास्तविकता है कि अभी तृणमूल कांग्रेस से और नेताओं का पलायन हो सकता है और वे भाजपा का दामन थाम सकते हैं इसी वजह से ममता दी ने बांग्ला राष्ट्रवाद का विमर्श सतह पर लाना शुरू कर दिया है।

गौर से देखा जाये तो तृणमूल कांग्रेस मूल रूप से 90 के दशक की कांग्रेस पार्टी ही है क्योंकि सीताराम केसरी के समय में हुए कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन के समय ही ममता दी ने अपनी पृथक तृणमूल कांग्रेस गठित की थी। इसके बाद उन्होंने राज्य में तीन दशक पुराने वामपंथी गठजोड़ को सत्ता से बाहर करने की

मुहीम चलाई और निर्जीव दिखने वाली कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस में अवतरित करके इसमें 'सड़क संघर्ष' की ऊर्जा भर डाली और 2001 में रिकार्ड बहुमत से अपनी पार्टी की सरकार बनाई। उन चुनावों में एक ही नारा गूंजा था ''ए बारी ममता, वामपंथ होवे ना" अर्थात इस बार ममता दी की सरकार वामपंथियों की छुट्टी। मगर पिछले लोकसभा चुनावों ने यह सिद्ध कर दिया है कि राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा हो गई है और वामपंथी हांशिये पर चले गये हैं। इस चुनौती से ममता दी किस प्रकार निपटेंगी, यह देखने वाली बात होगी। मगर इतना निश्चित है कि उनकी पार्टी में विद्रोह का बिगुल बज चुका है और भाजपा ने एक नया राष्ट्रवादी विमर्श पेश कर दिया है, परन्तु ये चुनाव लोकसभा के नहीं बल्कि विधानसभा के होंगे और राज्य भाजपा के पास अपना कोई ऐसा नेतृत्व नहीं है जो ममता दी का मुकाबला कर सके। अतः इस राज्य का राजनीतिक संघर्ष बहुत दिलचस्प होगा।


Tags:    

Similar News

-->