राज बनाम द्रोह
सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में इसकी समीक्षा कर कुछ उपाय निकालने का भरोसा दिलाया है। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल मई में इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज करने पर रोक लगा दी और और सरकार से पूछा था कि ब्रिटिश कालीन इस कानून का क्या औचित्य है।
Written by जनसत्ता: सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में इसकी समीक्षा कर कुछ उपाय निकालने का भरोसा दिलाया है। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल मई में इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज करने पर रोक लगा दी और और सरकार से पूछा था कि ब्रिटिश कालीन इस कानून का क्या औचित्य है।
सरकार की तरफ से कहा गया है कि रोजद्रोह संबंधी गंभीर मामलों के खिलाफ मुकदमे दर्ज होने से नहीं रोका जा सकता और ऐसे अपराधों की जांच के लिए एक जिम्मेदार अधिकारी होना चाहिए। हालांकि जिस तरह अदालत में सरकार की तरफ से इस मामले में पक्ष रखा गया है, उससे लगता है कि इस कानून पर कोई लचीला रुख अपनाया जा सकता है।
राजद्रोह कानून यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए, ब्रिटिश हुकूमत के दौरान विद्रोहियों पर अंकुश लगाने की नीयत से बनाई गई थी। उस वक्त इस कानून के तहत कई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को कारावास की सजा सुनाई गई थी। आजादी के बाद अनेक मौकों पर इस कानून के औचित्य को प्रश्नांकित करते हुए मांग उठी कि इसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए। मगर किसी भी सरकार ने इसे हटाने पर विचार नहीं किया।
पिछले सात-आठ सालों में इस कानून के तहत अनेक बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल भेजा जा चुका है। इसलिए फिर से इस कानून के विरोध में आवाजें उठनी शुरू गई हैं। इसी संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई थी, जिस पर अदालत ने कहा कि जब तक सरकार इस कानून की समीक्षा नहीं कर लेती, तब तक इसके तहत किसी पर मुकदमा नहीं दर्ज किया जा सकता।
सरकार को इस संबंध में जवाब देना था, मगर उसने और मोहलत मांगी और फिर कानून पर रोक भी बढ़ गई। दरअसल, राजद्रोह शब्द को लेकर बहसें होती रही हैं कि क्या सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के अंतर्गत आता है। राष्ट्रद्रोह का अर्थ तो समझ में आता है कि अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल है, तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। मगर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजद्रोह जैसे कानून की क्या जरूरत? लोकतंत्र में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी हासिल है और वह सरकार के किसी भी फैसले पर अपनी राय देने को स्वतंत्र है।
हालांकि इस कानून को इतने आसान ढंग से रद्द करना भी संभव नहीं। सरकार के खिलाफ साजिश रचने के मामले भी इस कानून के तहत आ सकते हैं। ऐसे मामलों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वर्तमान सरकार और इससे पहले की सरकारें भी इसी पहलू के मद्देनजर इस कानून को रद्द करने से बचती रही हैं।
मगर यह कानून अगर किसी सरकार को यह छूट लेने दे पा रहा है कि वह अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए भी इसका इस्तेमाल कर सके, तो इसकी समीक्षा की जरूरत स्वाभाविक है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से इसीलिए समीक्षा की बात कही है, ताकि इस कानून में स्पष्ट हो सके कि सरकार की आलोचना करना और सरकार के खिलाफ साजिश रचना दोनों भिन्न बातें हैं। वर्तमान सरकार औपनिवेशिक जमाने के बहुत सारे कानूनों को रद्द कर चुकी है, इसलिए उससे उम्मीद की जाती है कि इस कानून को भी व्यावहारिक रूप देने का प्रयास करेगी।