कोरोना काल में नस्लभेद
कोरोना महामारी के दौरान नस्लभेद की बहस भी सामने आई है। आस्ट्रेलिया ने कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कुछ समय के लिए भारत से लौटने वाले अपने नागरिकों के पहुंचने पर रोक लगा दी थी |
आदित्य नारायण चोपड़ा: कोरोना महामारी के दौरान नस्लभेद की बहस भी सामने आई है। आस्ट्रेलिया ने कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कुछ समय के लिए भारत से लौटने वाले अपने नागरिकों के पहुंचने पर रोक लगा दी थी, जिसे नस्लभेदी बताया गया है, इस पर भी बड़ा विवाद हुआ था। अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में एशियाई मूल के लोगों को नस्लभेदी टिप्पणियों और हमलों का सामना करना पड़ा था। इसी वर्ष जुलाई में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोग हिंसा आैर लूट का िशकार बने। नस्लभेद या रंगभेद से जुड़ी घटनाएं नई नहीं हैं। भारतीय अभिनेता और अभिनेत्रियों से लेकर आम भारतीयों को भी विदेशों में नस्लभेद का शिकार होने की घटनाएं उजागर हो चुकी हैं। अमेरिका में भी अश्वेतों से दुर्व्यवहार की घटनाएं सामने आती रहती हैं। ब्रिटेन सरकार का हाल ही में लिया गया फैसला अब विवाद का रूप धारण कर चुका है। यह फैसला ब्रिटेन की यात्रा और क्वारंटीन नियमों से जुड़ा है। ब्रिटेन सरकार के नियमों के मुताबिक भारत, संयुक्त अरब अमीरात, थाइलैंड, जोर्डन, तुर्की, रूस समेत कुछ देशों से यात्रा करके ब्रिटेन पहुंचने वाले व्यक्ति को दस दिन क्वारंटीन में िबताने होंगे और कोिवड टेस्ट भी कराना होगा। विवाद का कारण यह भी है िक जिन्होंने कोरोना वैक्सीन की दो डोज ले ली हैं उन्हें भी इन नियमों का पालन करना होगा। ब्रिटेन की नई यात्रा नीति अनावश्यक तरीके से जटिल बना दी गई है। कांग्रेस सांसद आैर पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर ने ब्रिटेन की इस नीति के िवरोध में वहां कैंब्रिज यूिनयन नाम की संस्था की ओर से आयोिजत डिबेट कार्यक्रम से अपना नाम वापिस ले लिया है। इसके अलावा उन्हें अपनी किताब 'द बैटल ऑफ बिलांगिंग के िवमोचन के लिए ब्रिटेन जाना था। कुछ अन्य नेताअों ने भी शशि थरूर का समर्थन करते हुए ब्रिटेन के इस नियम का विरोध किया है। कई अन्य देेश भी ब्रिटेन से नाराज हैं।यह भी बड़ा अद्भुत है कि ब्रिटेन ने उन देशों के िलए भी यह नियम लागू किया है जहां के लोगों को वही वैक्सीन लगाई जा रही है, जो ब्रिटेन के लोगों को लगाई गई है। जैसे फाइजर, माडर्ना और एस्ट्राजेनेका आिद। शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी महत्वपूर्ण पद पर रहे हैं और वह पहले भी भारत में ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन और नस्लभेद के खिलाफ खुलकर अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं। ब्रिटेन भारत सरकार से इस संबंध में बातचीत कर रहा है कि वैक्सीन सर्टिफिकेट को कैसे प्रमाणित किया जाए। अधिकतर यूरोपीय देशों ने कोवैक्सीन की डोज लेने वालों को भी यात्रा की अनुमति नहीं दी है। भारत में जिन लोगों ने कोवैक्सीन की डोज ली है, वे अब भी कोवैक्सीन को डब्ल्यूएचओ की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि ब्रिटेन ने अपने फैसले का बचाव यह कहकर किया है कि यह लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिहाज से उठाया गया एक कदम है, ताकि वो सुरक्षित माहौल में खुलकर एक-दूसरे से मिल सकें।संपादकीय :आंखें नम हुई...पाक और चीन का फौजी रुखचन्नीः एक तीर से कई शिकारस्पेस टूरिज्म : अरबपतियों का रोमांचबंगाल में तृणमूल और भाजपागुलामी के समय की न्याय व्यवस्थाब्रिटेन के शाही घराने के किले की ऊंची दीवारों के भीतर भी रंगभेद की परतें तो उस समय खुल गई थीं जब प्रिंस हैरी और मेगन मर्केल ने शाही परिवार को छोड़ दिया था और मर्केल ने शाही परिवार पर रंगभेद के आरोप लगाए थे। नस्लभेद या रंगभेद एक मानसिकता है जो खुद की नस्ल को सर्वश्रेष्ठ मानती है और दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखती है। पश्चिमी देशों में जहां गोरेपन का आधिपत्य है, वहां त्वचा का सफेद रंग आज भी श्रेष्ठता का प्रतीक है। ब्रिटेन ने जहां-जहां भी राज िकया, वहां भी हम इसे देख सकते हैं कि भारत के शासक गोरे थे, इसिलए भी किसी काले या सांवले को गोरे के मुकाबले कमतर समझा जाता है। भारत में भी युवक कितना ही सांवला क्यों न हो, बहू उसे गोरी ही चाहिए। पश्चिमी देशों में तो भारतीयों को ब्राउन कहा जाता है, यानी रंग के आधार पर गोरे हमें हर हाल में अपने से कमतर मानते हैं। ब्रिटेन के शाही परिवार का सूर्यअस्त हो चुका है, लेकिन इस मानसिकता से उसे छुटकारा कब मिलेगा कहा नहीं जा सकता।