वर्चस्व की होड़
पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी की लड़ाई है। जिसे एक बार सत्ता का चस्का लग जाता है वह जीते जी उस पद को छोड़ना नहीं चाहता और नई पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं करना चाहता। छोटे से संगठन से लेकर बड़ी-बड़ी संस्थाओं और राजनीतिक पार्टियों का यही हाल है।
Written by जनसत्ता: पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी की लड़ाई है। जिसे एक बार सत्ता का चस्का लग जाता है वह जीते जी उस पद को छोड़ना नहीं चाहता और नई पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं करना चाहता। छोटे से संगठन से लेकर बड़ी-बड़ी संस्थाओं और राजनीतिक पार्टियों का यही हाल है।
बड़े-बुजुर्ग लोग अपने पद से रिटायर ही नहीं होना चाहते। वे नई पीढ़ी को अपरिपक्व समझते हैं। जब तक नई पीढ़ी आगे नहीं आएगी, दायित्व नहीं संभालेगी, जिम्मेदारी नहीं संभालेगी, तब तक उन्हें अनुभव कैसे प्राप्त होगा। आज नेताओं के लिए सेवानिवृत्ति की कोई उम्र नहीं है। वे रिटायर होना ही नहीं चाहते और युवा पीढ़ी को आगे आने नहीं देना चाहते तो कैसा चलेगा?
आज जरूरत है नेताओं और मंत्रियों के लिए एक उम्र सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। अगर कोई ज्यादा बुद्धिमान और जरूरी है तो उन्हें पार्टी में मार्गदर्शक मंडल में लिया जा सकता है। जीवन के चौथेपन में प्रवेश कर चुके नेताओं को भी राजनीति का मोह त्यागने की आदत डाल लेनी चाहिए। हालत यह है कि जीवन के अंतिम दौर में पहुंचे नेता भी देश के संचालन का निर्देशन करते रहते हैं और दूसरी ओर अट्ठावन या साठ साल में किसी कामगार को नियमित काम करने लायक मानने से इनकार कर दिया जाता है।
भ्रष्टाचार से ग्रस्त आचरण की कई किस्में और डिग्रियां हो सकती हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि राजनीति से ही भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है। दोनों का मजबूत गठबंधन है। दोनों एक दूसरे के संरक्षण और सहयोग से लगातार पुष्पित और पल्लवित हो रहे हैं। विडंबना यह है कि एक ओर राजनीति की दुनिया की ओर से लगातार एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते हैं, मगर ऐसा शायद ही देखा जाता है कि राजनीतिक दलों ने अपने भीतर से भ्रष्टाचार को दूर करने या दूर रहने का कोई ईमानदार संकल्प लेकर पूरा किया हो।