जूवेनाइल जस्टिस एक्ट पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 के बहुचर्चित कठुआ गैंगरेप और मर्डर केस में नाबालिग बताए गए एक आरोपी के बारे में यह व्यवस्था दी कि वह अपराध को अंजाम देते वक्त बालिग था और इसीलिए उसके खिलाफ एक वयस्क के रूप में ही मुकदमा चलाया जाना चाहिए।

Update: 2022-11-18 02:23 GMT

नवभारत टाइम्स: सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 के बहुचर्चित कठुआ गैंगरेप और मर्डर केस में नाबालिग बताए गए एक आरोपी के बारे में यह व्यवस्था दी कि वह अपराध को अंजाम देते वक्त बालिग था और इसीलिए उसके खिलाफ एक वयस्क के रूप में ही मुकदमा चलाया जाना चाहिए। यह मामला आठ साल की एक बच्ची के साथ क्रूरता की इंतिहा के चलते ही नहीं, आरोपियों के बचाव में शुरू की गई राजनीतिक मुहिम के कारण भी देश भर में चर्चित हुआ था। मगर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की अहमियत के कई और पहलू भी हैं। इस आरोपी की सही उम्र को लेकर संदेह शुरू से था। बचाव पक्ष की ओर से इस संबंध में जो दस्तावेज पेश किए गए थे, उनमें भी खामियां पाई गईं। मगर निचली अदालतों में ये खामियां नहीं पकड़ी जा सकीं।

सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं खामियों को मद्देनजर रखते हुए विशेषज्ञों की समिति की उस रिपोर्ट पर भरोसा करना बेहतर समझा, जिसमें अपराध के समय आरोपी की उम्र 19 से 23 साल के बीच होने की बात कही गई है। हालांकि कोर्ट ने भी माना कि विशेषज्ञों की ऐसी मेडिकल ओपिनियन कोई ठोस साक्ष्य नहीं बल्कि एक राय ही है, लेकिन फिर भी उसने कहा कि ऐसे गंभीर अपराधों के मामले में अगर आरोपी की उम्र को लेकर संदेह की स्थिति बनती हो तो अपर्याप्त दस्तावेज के बजाय इस राय को ही फैसले का आधार बनाया जाना चाहिए। फैसले का दूसरा अहम पहलू अपराधियों को नाबालिग मान कर उन्हें दी जाने वाली कानूनी रियायतों से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट का यह ऑब्जर्वेशन बेहद महत्वपूर्ण है कि नाबालिग बताकर अपराधियों को सजा में रियायतें दिए जाने से उनमें सुधार होने के बजाय अपराधियों का दुस्साहस ही बढ़ता है।

 साफ है कि कोर्ट का इशारा जूवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 की ओर था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के औचित्य पर कोई सीधी टिप्पणी नहीं की, लेकिन यह कहते हुए इस पर सवाल जरूर खड़ा कर दिया कि नाबालिगों द्वारा अपराध के बढ़ते मामलों के मद्देनजर हम यह सोचने को मजबूर हैं कि क्या सचमुच यह कानून अपना मकसद पूरा करने में कामयाब हुआ है। साफ है कि अब आगे का काम सरकार का है। निश्चित रूप से कच्ची उम्र में किए गए अपराधों के लिए सजा देते हुए ध्यान बच्चों के सुधार पर ही होना चाहिए, लेकिन कोई खास प्रावधान उन बच्चों में सुधार ला रहा है या नहीं, यह देखना भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए। खासकर जब ऐसे संकेत मिल रहे हों कि घृणित कृत्यों को अंजाम देने के बाद अपराधी तत्व उस प्रावधान का इस्तेमाल अपनी सजा कम करवाने में कर रहे हैं, तो फिर उसकी अनदेखी करने का कोई कारण नहीं रह जाता। सरकार को तत्काल इस दृष्टि से जूवेनाइल जस्टिस एक्ट पर पुनर्विचार की दिशा में प्रयास शुरू कर देने चाहिए।

                 

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