मुफ्त चुनावी सौगातों का सवाल

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग व केन्द्र सरकार को नोटिस देकर पूछा है कि चुनावों से पूर्व विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को मुफ्त तोहफे व सुविधाएं दिये जाने के वादों को लेकर कानूनन क्या कार्रवाई की जा सकती है।

Update: 2022-01-27 03:15 GMT

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग व केन्द्र सरकार को नोटिस देकर पूछा है कि चुनावों से पूर्व विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को मुफ्त तोहफे व सुविधाएं दिये जाने के वादों को लेकर कानूनन क्या कार्रवाई की जा सकती है। प्रधान न्यायाधीश श्री ए.वी. रमण व अन्य दो न्यायमूर्तियों की पीठ ने इस बारे में दायर एक याचिका पर सुनावई करते हुए नोटिस जारी करने का फैसला किया। इस बारे में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि विभिन्न पार्टियां अपने चुनाव घोषणापत्रों में जिस तरह के वादे मतदाताओं को लुभाने के लिए करते हैं, क्या उन्हें चुनावी भ्रष्टाचार की श्रेणी में डाला जा सकता है? राजनीतिक दल सत्ता में आने की खातिर मतदाताओं के विभिन्न चुनीन्दा वर्गों को अपनी तरफ झुकाने की गरज से जो मुफ्त सौगात देने के वादे करते हैं उन्हें केवल सरकारी खजाने से ही दिया जा सकता है और यह खजाना जनता द्वारा दिये गये राजस्व से ही भरा जाता है। दूसरे अर्थों में यह जनता का ही पैसा होता है जिसे राजनीतिक दल 'लालच' के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इन मुफ्त सौगातों का राजनीतिक विचारधारा से कोई मतलब कैसे हो सकता है जबकि जनता का पैसा ही जनता को तोहफे के रूप में दिया जाता है। सार्वजनिक कोष पर समस्त जनता का बराबर का अधिकार होता है जिससे कोई भी सरकार जनकल्याण के कार्यों को करती है। इसके साथ यह भी देखना जरूरी है कि किसी भी राज्य के चुनावों में कोई भी राजनीतिक दल अपने राज्य की वित्तीय स्थिति का आंकलन किये बगैर किस प्रकार किसी एक खास वर्ग को मुफ्त उपहार देने का वादा कर सकता है जबकि वित्तीय स्रोतों का संचयन केन्द्र व राज्य सरकार का सांझा होता है। मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुफ्त सौगात देने की होड़ में राजनीतिक दल अपनी सम्यक या सर्वानुपाती जिम्मेदारी से दूर भागने का काम करते हैं या नहीं? लोकतन्त्र में किसी भी पार्टी की सरकार सर्वजन हिताय अर्थात लोककल्याण के लिए इस प्रकार काम करती है कि उसकी नीतियों से गैर बराबरी खत्म हो और समता मूलक समाज का निर्माण हो सके। यह कार्य केवल कुछ मुफ्त सौगात बांटने से पूरा नहीं हो सकता क्योंकि इसका प्रभाव स्थायी नहीं होता और यह केवल तात्कालिक लाभ होता है। अतः इस प्रकार की घोषणाएं लालच देने के समकक्ष रखी जा सकती हैं और इन्हें चुनावी भ्रष्टाचार की श्रेणी में व्यावहारिक तौर पर डाला जा सकता है मगर कानूनी नजरिये से एेसे कार्यों को भारत के जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत रखना होगा। इस बारे में याचिका पर सुनावई करते हुए मुख्य न्यायाधीश श्री ए.वी. रमण ने जो टिप्पणी की वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यह मुफ्त सौगात का मामला बहुत गंभीर है। 2013 में इसी विषय पर दायर एस. सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य के मुकदमे न्यायालय ने अपने आंकलन में कहा था। हालांकि चुनाव घोषणापत्रों में किये गये वादों को भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता है जैसा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 कहती है मगर इस हकीकत को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि मुफ्त सौगातों का वादा मतदाताओं को प्रभावित करता है। इसी वजह से 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से कहा था कि वह चुनाव घोषणापत्रों के बारे में एक पृथक कानून विधायिका द्वारा बनाने के लिए कहे जिससे भारत के लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों को अनुशासित किया जा सके। अब 2022 चल रहा है और इस तरफ हमारी चुनावी प्रणाली के निर्धारकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया है। जिसकी वजह से राजनीतिक दलों के हौंसले और बढे़ हुए हैं। यदि गौर से देखा जाये तो मुफ्त सौगात बांटने की परंपरा भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से शुरू हुई थी जिसका विस्तार उत्तर प्रदेश तक हो गया। मगर मूलतः यह मुद्दा समाज के वंचित या गरीब वर्ग के लोगों के वोटों की सौदेबाजी का है। एेसे मतदाताओं की केवल कुछ फौरी जरूरतों को पूरा करने का वादा करके राजनीतिक दल उन्हें भारत के लोकतन्त्र में दिये गये सबसे बड़े एक वोट के संवैधानिक अधिकार का सौदा करने की जुर्रत करते हैं और सत्ता में आने के बाद इन्हीं लोगों द्वारा की जाने वाली जवाबदेही से बचना चाहते हैं। दरअसल यह जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को गूंगा बना देने की कवायद है और लोकतन्त्र को किसी सामन्ती तर्ज पर चलाने की कुचेष्टा है। राजनीतिक दल यह भूल रहे हैं कि इस लोकतान्त्रिक प्रणाली में जनता को जो भी सुविधा मिलती है वह उनके अधिकार रूप में स्थायी तौर पर मिलती है। खैरात या सौगात पुराने सामन्ती या राजशाही दौर में शासक के दया करने पर मिला करती थी। लोकतन्त्र में राजनीतिज्ञ जनता की दया के पात्र होते हैं क्योंकि जनता ही उनकी मालिक होती है और वे पांच साल के लिए सिर्फ सेवादार होते हैं।

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