मध्य, उत्तर पूर्व और पश्चिम हिमालय के किसी भी गांव को देखेंगे, तो ऊपर जंगल व चरागाह, बीच में गांव और इसके चारों ओर सीढ़ीदार खेती की जमीन और इसी में कहीं जलस्रोत भी होगा। जहां से लोग पीने के पानी की आपूर्ति करते हैं। गांव के इस दृश्य से ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यहां पानी, पशुपालन, खेती आदि कार्य जंगल के कारण चलते हैं। विज्ञान के इस युग में जंगल जाने वाली महिलाओं की पीठ का बोझ भी कम नहीं हुआ है। अब जंगल दूर भाग रहे हैं। इस विषम परिस्थिति में भी वनों से महिलाओं का दैनिक रिश्ता है।
वर्ष 1994-95 की घटना है, जब मध्य हिमालय उत्तराखंड में लोगों ने पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे। उन दिनों यहां वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही थी। तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार ने उत्तराखंड में 10 हजार फीट की ऊंचाई तक दुर्लभ वन प्रजातियों को सूखा घोषित करके वन कटान के लिए रास्ता खोल दिया था। उन दिनों उत्तराखंड में पृथक राज्य का संघर्ष भी चल रहा था। लोग सड़कों पर आ गए थे। लेकिन वनों के निकट रहने वाले दर्जनों गांव के लोगों के सामने जब निर्दयतापूर्ण पेड़ों की कटाई होने लगी तो, टिहरी और उत्तरकाशी की महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पेड़ों को बचाने के लिए राखी बांधी। पांच-छह वर्षों के संघर्ष के बाद वर्ष 2000 तक कई स्थानों पर वनों का व्यावसायिक कटान रोकने में सफलता मिली। आज भी कई स्थानों पर हरे पेड़ों की कटाई के खिलाफ रक्षासूत्र बांधे जा रहे हैं। जिसे रक्षासूत्र आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस पर एक पुस्तक भी लिखी गई है।
रक्षासूत्र आंदोलन की तर्ज पर उत्तराखंड के अलावा हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्व दिल्ली, मुंबई, मध्य प्रदेश के कई स्थानों पर लोगों ने पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई है। देहरादून के पास छरवा गांव में वर्ष 2013 में जब कोका कोला की फैक्टरी से जंगल कट रहा था, तो वहां भी पेड़ों पर रक्षा सूत्र बांधकर लोगों ने जीत हासिल की है। अकेले उत्तराखंड में लगभग 12 लाख वृक्षों को कटने से बचाया गया है। रक्षाबंधन के पर्व पर कई स्थानों से खबरें छपती रहती हैं कि बच्चों, महिलाओं और शिक्षकों ने पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधकर पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया है।
उल्लेखनीय है कि चीड़ को नियंत्रित कर टिहरी और उत्तरकाशी के सैकड़ों गांव जिसमें खिटटा, खलडगांव, शुक्री, मजखेत, पिपलोगी, कुडियालगांव और रावतगांव आदि ने मिश्रित वन पालकर इसकी रक्षा के लिए पेड़ों पर राखी बांधी है। गांव के लोग अपने पाले हुए जंगलों से आवश्यकतानुसार चारा और जलावन लेते हैं। वे सालभर इसकी सुरक्षा अपने चौकीदार से करवाते हैं। प्रत्येक घर से चौकीदार को नगद अथवा अनाज के रूप में पारिश्रामिक दिया जाता है। वन संरक्षण की इस मजबूत व्यवस्था को बनाए रखना वर्तमान में गांव के सामने एक चुनौती बनकर भी उभर रही है, क्योंकि लोगों के पास वनाधिकार नहीं हैं। जबकि जंगल उन्हीं के हैं, जो जंगल के बीच में है। वे हमेशा इसी भावना में जीते हैं।
पेड़ों पर राखी बांधकर जलवायु नियंत्रण, वर्षा वनों का पोषण, जल स्रोतों की रक्षा और खेती बाड़ी को बढ़ाने का संदेश भी है। कई स्थानों पर रक्षासूत्र नेतृत्वकारी महिलाएं जैसे सुमति नौटियाल, गंगादेवी, हिमला, आदि से सवाल पूछा गया कि राखी बांधकर पेड़ों से महिलाएं चारा क्यों लाती हैं, तो उनका जवाब था कि पेड़ उनके भाई हैं, जो वर्षभर चारा और लकड़ी देते हैं। भाई की कलाई पर इसलिए राखी बांधी जाती है कि वह हर समय साथ रहता है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)