By अभिजीत मुखोपाध्याय
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के गलियारे उसके सम्मानित शिक्षकों की कहानियों से भरे पड़े हैं. इनमें अधिकतर कहानियां व किंवदंतियां प्रोफेसर अभिजीत सेन के बारे में हैं. उनके बड़े बाल और लंबी दाढ़ी तुरंत नये छात्रों को आकर्षित करते थे. कोई भी पाठ्यक्रम पढ़ाने की उनकी योग्यता उनका दूसरा आकर्षण थी. जब भी कोई शिक्षक अवकाश पर होता था या किसी और कारण से विश्वविद्यालय से बाहर होता था,
तो उसके पाठ्यक्रम को पढ़ाने की जिम्मेदारी प्रोफेसर सेन पर आती थी. उन्होंने हमें सांख्यिकी और संसाधन अर्थशास्त्र, हमारे वरिष्ठों को व्यष्टि अर्थशास्त्र तथा कनिष्ठ छात्रों को मूल्य एवं वितरण के क्लासिक सिद्धांत और अन्य पाठ्यक्रम पढ़ाया.
हम लोग आपस में मजाक किया करते थे कि अभिजीत सेन को कोई भी कोर्स दे दो, वे पढ़ा लेंगे. हमारे सीनियर बैच में एक दिन वे कक्षा लेने आये और बोर्ड पर कुछ लिखा. तुरंत उन्होंने अपना सिर तेजी से हिलाया और कहा कि 'हो नहीं पा रहा है, मैं अगले सप्ताह आऊंगा.' वे कक्षा से बाहर निकल गये. कुछ कक्षाओं में वे ऊबे हुए भी दिखाते थे, पर वे अक्सर विषय से संबंधित उन मुद्दों और सवालों पर चर्चा करते थे, जिनके बारे में कोई और बात नहीं करता था. अर्थशास्त्र से परिचित कोई भी व्यक्ति यह समझ सकता है कि हर साल अलग-अलग विषय पढ़ाना कितना कठिन, बल्कि लगभग असंभव सा है. पर प्रोफेसर सेन हर साल ऐसा करते थे.
प्रोफेसर सेन ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी तथा जेएनयू आने से पहले ससेक्स, ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और एसेक्स में पढ़ाया था. भारतीय योजना अनुभव में कृषि संबंधी अवरोधों पर अपने शोध प्रबंध पर आधारित दो लेखों को उन्होंने 1981 में कैंब्रिज जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रकाशित किया था. वे लेख स्वतंत्र भारत में भारतीय कृषि से जुड़ी सैद्धांतिक बहसों से परिचित होने का संभवत: सबसे अच्छा स्रोत हैं.
वर्ष 1991 में उदारीकरण के तुरंत बाद के दौर में अर्थशास्त्र से संबंधित सर्वाधिक ध्रुवीकृत बहसें हुई थीं. इसका परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्र के अध्ययन के क्षेत्र में दो खेमों का स्पष्ट विभाजन हो गया. प्रोफेसर अभिजीत सेन इस स्थिति के शानदार अपवाद थे. वे हमेशा आंकड़ों, सांख्यिकी और तथ्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहे. एक अकादमिक के रूप में आंकड़ों और सांख्यिकी से ऐसा लगाव बहुत कम ही देखने को मिलता है. लोक कल्याण के प्रति उनकी व्यापक प्रतिबद्धता के साथ तथ्यों के प्रति लगाव के कारण दक्षिण और वाम दोनों खेमों से उनकी जोरदार बहसें होती रहीं. लेकिन वे अपने दृढ़ निश्चय पर हमेशा अडिग रहे.
बहुत सारे अकादमिकों के विपरीत वे नीति निर्धारण प्रक्रिया से संबद्ध रहे तथा उसमें बहुत योगदान दिया. उनकी तरह के अर्थशास्त्री बहुत कम ही होते हैं, जो आसानी से सैद्धांतिकी और तथ्य आधारित नीति निर्धारण के बीच आवाजाही कर सकें. ऐसा कर उन्होंने अर्थव्यवस्था की स्थिति में बदलाव के लिए बेहतरीन योगदान दिया. वे 2004 से 2014 तक कृषि लागत और मूल्य पर बनी समिति के अध्यक्ष तथा योजना आयोग के सदस्य रहे.
भारत में कृषि कार्य की लागतों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के साथ संबद्ध करना उनका ठोस और दीर्घकालिक योगदान है. वर्ष 2013 में बने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पर उनकी स्पष्ट छाप देखी जा सकती है. प्रोफेसर सेन सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जोरदार पक्षधर थे.
इस कानून के कारण सस्ते दर पर देश की एक-तिहाई आबादी को चावल और गेहूं मुहैया कराया जा सका. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा कार्यक्रम है. इसे बनाने में प्रोफेसर सेन ने केंद्रीय भूमिका निभायी थी. लोक सेवा में अप्रतिम योगदान के लिए उन्हें 2010 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था.
शिक्षक, शोधार्थी और नीति निर्धारक जैसी भूमिकाओं में होने के बाद भी वे अर्थशास्त्र विभाग के सबसे अधिक जनतांत्रिक शिक्षकों में थे. कोई भी छात्र कक्षा में या कक्षा से बाहर उनसे बहस कर सकता था. उनकी भूल जाने की आदत और अजीब हरकतें किंवदंतियां बन चुकी हैं. एक बार हम लोग उनसे सीढ़ियों पर टकरा गये. वह शनिवार का दिन था. उन्होंने आराम से पूछा कि क्या आज कोई परीक्षा है.
हमने उन्हें बताया कि आपके पाठ्यक्रम की ही परीक्षा है. वे अचरज के साथ पीछे मुड़े और तेजी से अपने कमरे में चले गये. हम लोग समझ गये कि वे प्रश्न पत्र बनाना भूल गये हैं. लेकिन बीस मिनट के भीतर ही वे छपे हुए प्रश्न पत्र लेकर कक्षा में आ गये. ऐसे व्यक्ति थे वे- एक उत्कृष्ट शिक्षक, एक निपुण अर्थशास्त्री, एक प्रतिबद्ध नीति निर्धारक, एक अपरंपरागत अकादमिक और एक विलक्षण मनुष्य. अब कोई दूसरा अभिजीत सेन नहीं होगा.